जिन्ना को लेकर उठा नया विवाद

By: May 5th, 2018 12:10 am

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

लेखक, वरिष्ठ स्तंभकार हैं

एक वक्त ऐसा आया जब अंग्रेजों को महसूस हुआ कि जिन्ना को भारत की राजनीति में उतारा जाए। कई साल बाद वे जब लंदन से लौटे, तो वे बिल्कुल बदले हुए थे। स्वभाव और मानसिकता में नहीं, वह तो उनका पूर्ववत ही था, लेकिन अपनी राजनीति और विचारधारा को लेकर उन्होंने नया खेमा पकड़ लिया था। अब वे मुस्लिम लीग की राजनीति कर रहे थे। उनके आने से पहले मुस्लिम लीग मृतप्राय ही थी। इसी लीग के माध्यम से अंग्रेज वह सब कुछ करवाने में सफल हो गए जो वे करवाना चाहते थे…

मोहम्मद अली जिन्ना को लेकर भारत में विवाद कभी समाप्त नहीं होता। वे बार-बार कब्र से निकलकर जिंदा हो जाते हैं और उन पर नए सिरे से बहस शुरू हो जाती है। जिन्ना हिंदुस्तान की सियासत में कभी सक्रिय रहे थे, लेकिन वह बौद्धिक स्तर पर ही था। वे लोकनेता कभी नहीं थे और न ही उनकी लोक चेतना या जनांदोलनों में रुचि रहती थी। महात्मा गांधी के भारतीय राजनीति के फलक पर आने से पूर्व कांग्रेस भी लगभग अंग्रेजी पढ़े-लिखे वकीलों का ही संगठन था, जिसे एक प्रकार का बौद्धिक क्लब कहना उचित होगा। वकील नाम की संस्था प्राचीन भारतीय संस्कृति और इतिहास में नहीं मिलती। इसलिए इस संस्था की कोई भारतीय विरासत या संस्कृति भी उपलब्ध नहीं है। यह संस्था विशुद्ध रूप से ब्रिटिश विरासत का हिस्सा थी। इसलिए अंग्रेजों को भी अनुकूल लगती थी। यही कारण था कि जिन्ना भी इस बौद्धिक क्लब में अपने को सहज अनुभव करते थे, लेकिन जब महात्मा गांधी कांग्रेस में आ गए, तो कांग्रेस का मूल चरित्र ही बदल गया। अब कांग्रेस याचकों की मुद्रा से निकलकर आम लोगों से जुड़ने लगी थी। वह जन आंदोलन बनती जा रही थी। कांग्रेस का यह चरित्र जिन्ना के स्वभाव के बिल्कुल विपरीत था। वे अभिजात्य वर्ग से आते थे। आमजन उनके लिए हिकारत की चीज था। इसलिए वे भारत और भारत की राजनीति को छोड़ कर लंदन चले गए और वहीं वकालत करने  लगे। अंग्रेजों की सोहबत वैसे भी उन्हें पसंद थी।

बाद में एक वक्त ऐसा आया जब अंग्रेजों को महसूस हुआ कि जिन्ना को भारत की राजनीति में उतारा जाए। कई साल बाद वे जब लंदन से लौटे, तो वे बिल्कुल बदले हुए थे। स्वभाव और मानसिकता में नहीं, वह तो उनका पूर्ववत ही था, लेकिन अपनी राजनीति और विचारधारा को लेकर उन्होंने नया खेमा पकड़ लिया था। अब वे मुस्लिम लीग की राजनीति कर रहे थे। उनके आने से पहले मुस्लिम लीग मृतप्राय ही थी। अंग्रेज सरकार कांग्रेस के जनांदोलनों का मुकाबला करने के लिए किसी मजहबी ताकत की तलाश में थी। मुस्लिम लीग के नाम से यह मजहबी संस्था मौजूद तो थी, लेकिन उसमें ताकत नहीं थी। इंग्लैंड से जिन्ना खुद वापस आए या वापस लाए गए, यह या तो खुदा जानता होगा या फिर उस समय की इंग्लैंड सरकार। लेकिन भारत वापस आकर जिन्ना को क्या करना है, इसको लेकर न तो ब्रिटिश सरकार को भ्रम था और न ही स्वयं जिन्ना को। उनको मुस्लिम लीग में रूह डालनी थी। वह उन्होंने डाल दी। मुस्लिम लीग की धार तेज कर दी। इतनी तेज कि वह अब कांग्रेस को भी काटने की स्थिति में आ गई थी। इस समय तक जिन्ना के दो रूप सामने आ गए थे। पहला रूप उनके इंग्लैंड जाने के पहले का है और दूसरा वहां से लौट आने के बाद का। जिस जिन्ना को आज भी कुछ लोग राष्ट्रीयता के समर्थक के रूप में देखते-पहचानते हैं, वह जिन्ना इंग्लैंड चले जाने के पहले का जिन्ना है। यह जिन्ना राष्ट्रीयता की बात करता था। इस जिन्ना का दूसरे जिन्ना से कुछ लेना-देना नहीं है।

दूसरे वाला जिन्ना मुस्लिम जनसंख्या को आधार बना कर हिंदुस्तान के विभाजन की तस्वीर बना रहा था। इस तस्वीर में रंग भरने का काम इंग्लैंड सरकार को ही करना था। वह उसने बखूबी भरा भी। भारत का पश्चिमोत्तर प्रदेश काट कर एक नया देश बना और जिन्ना उसके कायदे आजम कहलाए। उन्होंने इस्लामी आक्रमणकारियों का अधूरा एजेंडा पूरा कर दिया। छह-सात सौ साल से ये आक्रमणकारी भारत को दारुल इस्लाम बनाने का सपना पाले हुए थे और उसके लिए हरसंभव प्रयास भी कर रहे थे, लेकिन उनको इसमें सफलता नहीं मिली। इससे पहले ही मध्य एशिया के मुगलों के शासन का भारत में अंत हो गया। लेकिन जो काम मुगल और तुर्क सात सौ साल में नहीं कर पाए, वही काम हिंदुस्तान के अपने ही मोहम्मद अली जिन्ना ने अंग्रेजों की सहायता से मुगल शासन के समाप्त होने के दो सौ साल बाद कर दिखाया। पूरे हिंदुस्तान को न सही, पश्चिमोत्तर भारत के एक विशाल हिस्से को तो उसने दारुल इस्लाम बना ही दिया। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय अभी भी उसी मोहम्मद अली जिन्ना को सीने पर चिपकाए बैठा है।

उसके तुलबा या दानिशमंदों का कहना है कि जिन्ना उनके नायक हैं, वे उसे धोखा नहीं दे सकते। उनकी बात में भी दम है। पाकिस्तान बनाने के वैचारिक आंदोलन को खाद-पानी देने में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का भी बहुत बड़ा हाथ है। इतिहास में इसे पाकिस्तान का जन्मदाता भी कहा जाता है। जिन्ना तो बाद में नमूदार हुए। इस विश्वविद्यालय ने तो अपना काम पहले ही शुरू कर दिया था। सपना इसका भी वही था जो जिन्ना का था, हिंदुस्तान को दारुल इस्लाम बनाना। अंतर केवल इतना था कि जिन्ना मूल रूप में हिंदुस्तानी थे लेकिन 1875 में अलीगढ़ विश्वविद्यालय के संस्थापक सैयद अहमद खां खांटी अरबी थे। वे उस सैयद कुनबे के थे जो अरबों में बहुत ऊंचा माना जाता है।

सैयद अहमद खान पाकिस्तान का सपना देखते सुपुर्द-ए-खाक हो गए। बाद में उस सपने को मोहम्मद अली जिन्ना ने पूरा किया, तो अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का तो यह मजहबी फर्ज था कि वह इस शख्स का सम्मान करता। भारत को काट कर पाकिस्तान बना देने वाले शख्स का चित्र सीने पर चिपकाए अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय यही तो कर रहा है। नहीं तो जिन्ना न तो इस विश्वविद्यालय के कभी छात्र रहे और न ही अध्यापक। फिर किस हैसियत में वे विश्विद्यालय की दीवार पर लटके हुए हैं? पाकिस्तान बन जाने पर बहुत से लोगों ने कहा था कि इस दुखद घटना के लिए वैचारिक रूप से जिम्मेदार इस बड़े मदरसे का स्वभाव और चरित्र बदल कर इसे देश के अन्य विश्वविद्यालयों की तर्ज पर विकसित किया जाए। लेकिन तब नेहरू नहीं माने और अब 2018 तक आते-आते अलीगढ़ एक बार फिर से इतना ताकतवर हो गया है कि सरेआम जिन्ना को नायक घोषित कर रहा है। आमीन।

ई-मेलःkuldeepagnihotri@gmail.com

 

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