जीवन का आंतरिक श्रेय

By: May 26th, 2018 12:05 am

अवधेशानंद गिरि

स्वयं के भीतर जिस ज्ञान की प्रेरणा, कर्म की प्रवृत्ति और भाव का मैं अनुभव करता हूं, ये सब भी कहां से आते हैं। मेरे अंदर श्रेय और प्रेय, उचित-अनुचित, न्याय-अन्याय, धर्म-अधर्म का एक भेद बोध हमेशा विद्यमान है एवं बुद्धि विकास के साथ-साथ इस बोध का भी विकास होता रहता है…

दर्शन शब्द का साधारण अर्थ है देखना। इसका पारिभाषिक अर्थ तत्त्व विज्ञान है। सामान्य अर्थ ही पारिभाषिक अर्थ को स्पष्ट करता है और उसके यथार्थ स्वरूप को प्रकट करता है। मनुष्य ने देखने की शक्ति के साथ जन्म लिया है। जन्म के साथ ही मनुष्य के सामने एक बहुविध, विस्मयकारी वैचिर्त्य से भरा हुआ जगत होता है। स्वभावतः मनुष्य की देखने की क्षमता का जितना विकास होता है, उतना ही मनुष्य अनुभव करता है कि देखने में दृष्टव्य जगत के साथ मनुष्य का यथार्थ परिचय नहीं होता और मनुष्य यह अनुभव करता है कि वह देखना संपूर्ण नहीं है। पदार्थों की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश का अक्षुण्ण क्रम देखते-देखते यह प्रश्न उठता है कि इस संपूर्ण क्रम का उद्गम स्थल और विलीनता का केंद्र कहां है? प्रत्येक पदार्थ का किसी न किसी कारण से उत्पन्न होने का स्वभाव देखकर असंख्य पदार्थों के समिष्ट स्वरूप समस्त जगत के कारण संबंध का निर्णय करके जब तक पदार्थों के स्वरूप की जानकारी नहीं हो जाती, तब तक बुद्धि इस तथ्य को स्वीकार नहीं करती कि यथार्थ बोध हो गया है। संपूर्ण दृश्यमान जगत का क्रम देखते-देखते उनके केंद्र में रहने वाले अद्भुत अखंड नियम शृंखला की सत्ता हमारी दृष्टि को आकर्षित करती है। निर्माण एवं ध्वंस के मूल में भी एक ऐक्य, सामंजस्य स्पृहा जन्म लेती है। परमात्मा के उन सारे नियमों को और उनके अंतराल में विद्यमान नियंत्रण करने वाली शक्ति को भलीभांति जान लिए बिना विकसित बुद्धि को इस बात का संतोष नहीं हो सकता कि संपूर्णता के साथ जगत को देख लिया है। इंद्रियों के विकार, मन के भाव और अवस्थाओं के परिवर्तन, ज्ञान का हृस, बुद्धि इन सबमें भी मनुष्य के मैं व मेरेपन का एकत्व नष्ट नहीं होता। यह मैं कौन है? इस मैं का भलीभांति परिचय पाए बिना मनुष्य का स्वयं को देखना है। स्वयं के भीतर जिस ज्ञान की प्रेरणा, कर्म की प्रवृत्ति और भाव का मैं अनुभव करता हूं, ये सब भी कहां से आते हैं। मेरे अंदर श्रेय और प्रेय, उचित-अनुचित, न्याय-अन्याय, धर्म-अधर्म का एक भेद बोध हमेशा विद्यमान है एवं बुद्धि विकास के साथ-साथ इस बोध का भी विकास होता रहता है। इस भेद का कोई आधार है या नहीं? यदि है तो उस आधार का स्वरूप क्या है? मनुष्य के जीवन का आंतरिक श्रेय क्या है? क्या करने पर मनुष्य की इच्छाओं की निवृत्ति होगी? इन सभी समस्याओं के समाधान के बिना मनुष्य अपने को अपने आप में अपने परिपूर्ण रूप में नहीं देख सकता। इस प्रकार अपने को और जगत के देखते-देखते बुद्धि के उत्कर्ष के साथ-साथ जिन गंभीर समस्याओं की उत्पत्ति होती है उन सभी समस्याओं का समाधान हो जाने पर देखना होता है, तभी वह देखना भी वास्तव में होता है। इस प्रकार देखने में दर्शन शब्द का ही सही तात्पर्य निहित है। इसी का नाम तत्त्व विज्ञान है। देखने के लिए जैसे इंद्रियों का सुनियत व्यवहार आवश्यक है, इसी के साथ युक्ति विचार भी आवश्यक है। सत पुरुषों ने देखा कि विश्व कतिपय वस्तुओं और व्यापारियों के समष्टि नहीं है। क्षुद्र, वृहद, जड़, चेतन और समस्त विश्व प्रपंच का अतिक्रमण करके भी उसकी सत्ता नित्य विद्यमान है। उस परमतत्त्व को सत पुरुषों ने ब्रह्म जगत के अनंत रूपों में अभिव्यक्त किया है। ब्रह्म जो समग्र ज्ञान का उत्स भी है।

अपना सही जीवनसंगी चुनिए| केवल भारत मैट्रिमोनी पर-  निःशुल्क  रजिस्ट्रेशन!


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App