तालाब की परंपरागत धार्मिक संस्कृति
बिहार के मधुबनी इलाके में छठवीं सदी में आए एक बड़े अकाल के समय पूरे क्षेत्र के गांवों ने मिलकर 63 तालाब बनाए थे। इतनी बड़ी योजना बनाने से लेकर उसे पूरी करने तक के लिए कितना बड़ा संगठन बना होगा, कितने साधन जुटाए गए होंगे, नए लोग, नई सामाजिक और राजनीतिक संस्थाएं, इसे सोचकर तो देखें। मधुबनी में ये तालाब आज भी हैं…
जो समाज को जीवन दे, उसे निर्जीव कैसे माना जा सकता है? तालाबों में, जलस्रोत में जीवन माना गया और समाज ने उनके चारों ओर अपने जीवन को रचा। जिसके साथ जितना निकट का संबंध, जितना स्नेह, मन उसके उतने ही नाम रख लेता है। देश के अलग- अलग राज्यों में, भाषाओं में, बोलियों में तालाब के कई नाम हैं। बोलियों के कोष में, उनके व्याकरण के ग्रंथों में पर्यायवाची शब्दों की सूची में तालाब के नामों का एक भरा-पूरा परिवार देखने को मिलता है। डिंगल भाषा के व्याकरण का एक ग्रंथ हमीर नाम-माला तालाबों के पर्यायवाची नाम तो गिनाता ही है, साथ ही उनके स्वभाव का भी वर्णन करता है। लोक धरम सुभाव से जुड़ जाता है। प्रसंग सुख का हो तो तालाब बन जाएगा। प्रसंग, दुख का भी हो तो तालाब बन जाएगा। जैसलमेर, बाड़मेर में परिवार में साधन कम हों, पूरा तालाब बनाने की गुंजाइश न हो तो उन सीमित साधनों का उपयोग पहले से बने किसी तालाब की पाल पर मिट्टी डालने, छोटी-मोटी मरम्मत करने से होता था। मृत्यु किस परिवार में नहीं आती? हर परिवार अपने दुखद प्रसंग को समाज के सुख के लिए तालाब से जोड़ देता था। पूरे समाज पर दुख आता, अकाल पड़ता, तब भी तालाब बनाने का काम होता। लोगों को तात्कालिक राहत मिलती और पानी का इंतजाम होने से बाद में फिर कभी आ सकने वाले इस दुख को सह सकने की शक्ति समाज में बनती थी। बिहार के मधुबनी इलाके में छठवीं सदी में आए एक बड़े अकाल के समय पूरे क्षेत्र के गांवों ने मिलकर 63 तालाब बनाए थे। इतनी बड़ी योजना बनाने से लेकर उसे पूरी करने तक के लिए कितना बड़ा संगठन बना होगा, कितने साधन जुटाए गए होंगे, नए लोग, नई सामाजिक और राजनीतिक संस्थाएं, इसे सोचकर तो देखें। मधुबनी में ये तालाब आज भी हैं। कहीं पुरस्कार की तरह तालाब बना दिया जाता, तो कहीं तालाब बनाने का पुरस्कार मिलता। गोंड राजाओं की सीमा में जो भी तालाब बनाता, उसे उसके नीचे की जमीन का लगान नहीं देना पड़ता था। संबलपुर क्षेत्र में यह प्रथा विशेष रूप से मिलती थी। दंड-विधान में भी तालाब मिलता है। बुंदेलखंड में जातीय पंचायतें अपने किसी सदस्य की अक्षम्य गलती पर जब दंड देती थीं तो उसे दंड में प्रायः तालाब बनाने को कहती थी। यह परंपरा आज भी राजस्थान में मिलती है। अलवर जिले के एक छोटे से गांव गोपालपुरा में पंचायती फैसलों को न मानने की गलती करने वालों से दंड स्वरूप कुछ पैसा ग्राम कोष में जमा करवाया जाता है। उस कोष से यहां पिछले दिनों दो छोटे-छोटे तालाब बनाए गए हैं। गड़ा हुआ कोष किसी के हाथ लग जाए तो उसे अपने पर नहीं, परोपकार में लगाने की परंपरा रही है। परोपकार का अर्थ प्रायः तालाब बनाना या उनकी मरम्मत करना माना जाता था। कहा जाता है कि बुंदेलखंड के महाराज छत्रसाल के बेटे को गड़े हुए खजाने के बारे में एक बीजक मिला था। बीजक की सूचना के अनुसार जगतराज ने खजाना खोद निकाला। छत्रसाल को पता चला तो बहुत नाराज हुए। अब जब खजाना उखाड़ ही लिया है तो उसका सबसे अच्छा उपयोग किया जाएगा। पिता ने बेटे को आज्ञा दी कि उससे चंदेलों के बने सभी तालाबों की मरम्मत की जाए और नए तालाब बनवाए जाएं। खजाना बहुत बड़ा था। पुराने तालाबों की मरम्मत हो गई और नए भी बनने शुरू हुए। वंशवृक्ष देखकर विक्रमी संवत् 286 से 1162 तक की 22 पीढि़यों के नाम पर पूरे 22 बड़े-बड़े तालाब बने थे। ये बुंदेलखंड में आज भी हैं। गड़ा हुआ धन सबको नहीं मिलता। लेकिन सबको तालाब से जोड़कर देखने के लिए भी समाज में कुछ मान्यताएं रही हैं। अमावस और पूनों, इन दो दिनों को कारज यानी अच्छे और वह भी सार्वजनिक कामों का दिन माना गया है। इन दोनों दिनों में निजी काम से हटने और सार्वजनिक काम से जुड़ने का विधान रहा है। किसान अमावस और पूनों को अपने खेत में काम नहीं करते थे। उस समय का उपयोग वे अपने क्षेत्र के तालाब आदि की देखरेख व मरम्मत में लगाते थे। समाज में श्रम भी पूंजी है और उस पूंजी को निजी हित के साथ सार्वजनिक हित में भी लगाते जाते थे। श्रम के साथ-साथ पूंजी का अलग से प्रबंध किया जाता रहा है। इस पूंजी की जरूरत प्रायः ठंड के बाद, तालाब में पानी उतर जाने पर पड़ती है। तब गरमी का मौसम सामने खड़ा है और यही सबसे अच्छा समय है तालाब में कोई बड़ी टूट-फूट पर ध्यान देने का। वर्ष की बारह पूर्णिमाओं में से ग्यारह पूर्णिमाओं को श्रमदान के लिए रखा जाता रहा है, पर पूस माह की पूनों पर तालाब के लिए धान या पैसा एकत्र किए जाने की परंपरा रही है। छत्तीसगढ़ में उस दिन छेरा-छेरा त्योहार मनाया जाता है। छेर-छेरा में लोगों के दल निकलते हैं, घर- घर जाकर गीत गाते हैं और गृहस्थ से धान एकत्र करते हैं। धान की फसल कट कर घर आ चुकी होती है। हरेक घर अपने-अपने सामर्थ्य से धान का दान करता है। इस तरह जमा किया गया धान ग्रामकोष में रखा जाता है। इसी कोष से आने वाले दिनों में तालाब और अन्य सार्वजनिक स्थानों की मरम्मत और नए काम पूरे किए जाते हैं। सार्वजनिक तालाबों में तो सबका श्रम और पूंजी लगती ही थी, निहायत निजी किस्म के तालाबों में भी सार्वजनिक स्पर्श आवश्यक माना जाता रहा है। तालाब बनने के बाद उस इलाके के सभी सार्वजनिक स्थलों से थोड़ी-थोड़ी मिट्टी लाकर तालाब में डालने का चलन आज भी मिलता है। छत्तीसगढ़ में तालाब बनते ही उसमें घुड़साल, हाथीखाना, बाजार, मंदिर, श्मशान भूमि, वैश्यालय, अखाड़ों और विद्यालयों की मिट्टी डाली जाती थी। शायद आज ज्यादा पढ़-लिख जाने वाले अपने समाज से कट जाते हैं। लेकिन तब बड़े विद्या केंद्रों से निकलने का अवसर तालाब बनवाने के प्रसंग में बदल जाता था। मधुबनी, दरभंगा क्षेत्र में यह परंपरा बहुत बाद तक चलती रही है। तालाबों में प्राण हैं। प्राण प्रतिष्ठा का उत्सव बड़ी धूमधाम से होता था। उसी दिन उनका नाम रखा जाता था। कहीं-कहीं ताम्रपत्र या शिलालेख पर तालाब का पूरा विवरण उकेरा जाता था। कहीं-कहीं तालाबों का पूरी विधि के साथ विवाह भी होता था। छत्तीसगढ़ में यह प्रथा आज भी जारी है। विवाहोत्सव की स्मृति में तालाब पर स्तंभ भी लगाया जाता है। बहुत बाद में जब तालाब की सफाई-खुदाई दोबारा होती है, तब भी उस घटना की याद में स्तंभ लगाने की परंपरा रही है। आज बड़े शहरों की परिभाषा में आबादी का हिसाब केंद्र में है। पहले बड़े शहर या गांव की परिभाषा में उसके तालाबों की गिनती होती थी। आज यह प्रथा मिट-सी गई है। तालाब में जल-स्तर को देख आने वाले समय की भविष्यवाणी करनी हो तो कई तालाबों पर खड़े भोपा शायद यही कहते हैं कि बुरा समय आने वाला है।
-अनुपम मिश्र
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