परमेश्वर की पूजा

By: May 26th, 2018 12:05 am

स्वामी विवेकानंद

गतांक से आगे… 

वह घट-घट में प्रकट हो रहा है, लेकिन मनुष्य को वह मनुष्य रूप में ही दृष्टि गोचर, उपलब्ध होता है। जब उसकी ज्योति, उसका अस्तित्व, उसका ईश्वरत्व मानवी मुखमंडल पर प्रकट होता है, तभी मनुष्य उसकी पहचान कर सकता है। इस तरह मनुष्य सर्वदा मानव रूप में परमेश्वर की पूजा करता आ रहा है और जब तक मनुष्य रहेगा, वह ऐसा करता ही जाएगा। वह भले ही ऐसी पूजा के विरुद्ध चिल्लाए, उसके प्रतिकूल प्रयत्न करे, पर ज्यों ही वह परमेश्वर प्राप्ति का प्रयत्न करेगा, उसे प्रतीत हो जाएगा कि संवभवतः ही वह ईश्वर का विचार मनुष्य रूप में ही कर सकता है।

अतएव, प्रायः प्रत्येक धर्म में हम तीन मुख्य बातें देखते हैं, जिनके द्वारा परमेश्वर की पूजा की जाती है, वे हैं प्रतिमाएं या प्रतीक, नाम और देव मानव। प्रत्येक धर्म में ये बाते हैं और फिर भी लोग एक-दूसरे से लड़ना चाहते हैं। एक कहता है, ‘यदि संसार में कोई प्रतिमा सच्ची है, तो वह मेरे धर्म की, कोई नाम सच्चा है, तो मेरे धर्म का और कोई देव-दानव है, तो मेरे ही धर्म का। इन दिनों ईसाई पादरी कुछ नरम हो गए हैं। वे मानने लगे हैं कि पुराने धर्मों के विभिन्न पूजा-प्रकार ईसाई धर्म के पूर्वाभास मात्र हैं, परंतु फिर भी उनके मत से ईसाई धर्म ही सच्चा धर्म है। ईसाई उत्पन्न करने के पहले ईश्वर ने अपनी शक्तियां जांच लीं, इन पूजा-पद्धतियों को निर्माण कर उसने अपने बलाबल को नापा और अंत में ईसाई धर्म की उत्पत्ति हुई। उनका आजकल ऐसा कहना कुछ कम प्रगतिसूचक नहीं है। 50 वर्ष तो वे लोग यह भी स्वीकार करने को तैयार न थे कि उनके धर्म को छोड़कर और अन्य कुछ भी सत्य न था। यह भाव किसी धर्म, किसी एक राष्ट्र या किसी एक जाति का वैश्विष्टय नहीं है, लोग तो हमेशा यही सोचते रहे हैं कि जो कुछ वे करते आए हैं, वही ठीक है और अन्य लोगों को भी वैसा ही आचरण करना चाहिए। विभिन्न धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन से हमें यहां बहुत सहायता मिलेगी।

इस अध्ययन से यह मालूम हो जाएगा कि जिन विचारों को हम अपने  कहते आए हैं, वे सैकड़ों वर्ष पूर्व दूसरे लोगों के मन में विद्यमान थे और कभी-कभी तो उनका व्यक्त रूप हमारे विचारों से कहीं अधिक अच्छा था। ये तो उपासना के केवल बाह्य अंग हैं, जिनमें से होकर मनुष्य को गुजरना पड़ता है, किंतु यदि वह सचमुच सत्य की प्राप्ति करना चाहता है, तो उसे इन बाह्य अंगों से ऊंचा उठकर ऐसी भूमि पर पहुंचना होगा, जहां ये बाह्य अंग शून्यवत हो जाते हैं। मंदिर और गिरिजा, पोथी और पूजा, ये धर्म की केवल शिशुशाला मात्र हैं, जिनके द्वारा आध्यात्मिक शिशु पर्याप्त बलवान होता है, जिससे वह उच्चतर सीढि़यों पर पैर रखने में समर्थ होता है। यदि उसकी इच्छा है कि उसकी धर्म में गति हो, तो यह पहली सीढि़यां आवश्यक हैं। ईश्वर प्राप्ति की पिपासा उत्पन्न होने के साथ ही मनुष्य में सच्चा अनुराग, सच्ची भक्ति उत्पन्न हो जाती है। पर ऐसी पिपासा है किसे? प्रश्न तो यही है। धर्म न तो मतों में है, न पंथों में और न तार्किक विवाद में ही।

धर्म का अर्थ है आत्मा की ब्रह्मस्वरूपता को जान लेना, उसका प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त कर लेना और तद्रूप हो जाना। हम ऐसे अनेक लोगों से मिलते हैं, जो परमेश्वर, आत्मा और विश्व के गूढ़ रहस्यों के बारे में बातें किया करते हैं। किंतु एक एक को लेकर यदि यदि तुम उनसे पूछो ‘क्या तुमने परमेश्वर का प्रत्यक्ष दर्शन किया है, क्या तुम्हें आत्मानुभव हुआ है?

अपना सही जीवनसंगी चुनिए| केवल भारत मैट्रिमोनी पर-  निःशुल्क  रजिस्ट्रेशन!


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App