पर्वतीय क्षेत्रों में जल संरक्षण की चुनौतियां

By: May 8th, 2018 12:05 am

कुलभूषण उपमन्यु

अध्यक्ष, हिमालयन नीति अभियान

तेज ढलानों और वनस्पति की कमी के चलते बारिश के पानी का भू-जल में संचय की चुनौती के साथ सतही जल को रोकना और प्रयोग कर पाना दूसरी बड़ी चुनौती है। ग्लेशियर जल में होती कमी के चलते बारिश के पानी को अन्य तरीकों से रोकना जरूरी है। पर्वतीय क्षेत्रों में जलागम विकास के सिद्धांत पर ही जल संरक्षण कार्य हो सकता है…

हिमालयी पर्वतीय क्षेत्र तेज ढलानों और विविधता से भरपूर भौगोलिक संरचना के कारण जल संरक्षण की दृष्टि से बहुत ही पेचीदा और चुनौतीपूर्ण क्षेत्र है। मैदानी क्षेत्रों में तालाब आदि बना कर भू-जल भरण की गति को आसानी से बढ़ाया जा सकता है। राजस्थान, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश आदि राज्यों में ऐसे सफल प्रयास हो भी रहे हैं, किंतु पर्वतीय क्षेत्रों में तेज ढलानों और भौगोलिक विविधता इतनी अधिक होती है कि एक-दो किलोमीटर के भीतर ही प्रयोग की जाने वाली तकनीकों को बदलना पड़ सकता है। पर्वतीय भू-जल भंडारों की बनावट भी विविधतापूर्ण और पेचीदा होती है। इसलिए इन क्षेत्रों में जल संरक्षण कार्य भिन्न-भिन्न तरीके अपना कर ही किया जा सकता है। पिछले दो-तीन दशकों से पर्वतीय क्षेत्रों की नदियों में जल की मात्रा कम होती जा रही है, जो छोटी खड्डों और नालों में तो स्पष्ट दृष्टिगोचर हो जाती है। पुराने कई नाले सूख गए हैं। सदाबहार खड्डें, नाले मौसमी बनते जा रहे हैं, जिनमें केवल बरसात में ही पानी आता है। इसलिए गर्मियां आते ही पेय जल और सिंचाई की समस्या सामने आ जाती है। पूरे गंगा और सिंध के मैदान की सिंचाई हिमालय से निकलने वाली नदियों, खड्डों और नालों से ही होती है।

ग्लेशियर कम होने के चलते और बर्फ के पीछे हटते जाने से बड़ी नदियों में जल की मात्रा कम हो रही है, तो छोटी खड्डें और नाले भी सूखते जा रहे हैं।  इस तरह यह संकट पर्वतीय और मैदानी दोनों ही क्षेत्रों के लिए एक समान चिंता का कारण बनता जा रहा है। आबादी के बढ़ने के साथ-साथ औद्योगिक क्षेत्र की जल की मांग में भी लगातार बढ़ोतरी हो रही है। इससे जल को लेकर देश भर में स्थानीय या अंतर प्रदेशीय स्तर पर टकराव बढ़ते ही जा रहे हैं। इसके अंतरराष्ट्रीय स्तर तक विस्तार को भी नकारा नहीं जा सकता है। हालांकि मैदानी क्षेत्रों में जल संरक्षण के पुराने समय से ही कुछ प्रयास किए जाते रहे हैं। तालाब, कुएं, बावडि़यां आदि बना कर सतही और भू-जल भरण की व्यवस्थाएं विकसित की गई हैं। आज भी उन पारंपरिक विधियों की प्रासंगिकता को समझ कर कई संगठन जल संरक्षण कार्य के महत्त्व को समझ कर संरक्षण कार्य में लगे हैं। तेज ढलानों और वनस्पति की कमी के चलते बारिश के पानी का भू-जल में संचय की चुनौती के साथ सतही जल को रोकना और प्रयोग कर पाना दूसरी बड़ी चुनौती है। ग्लेशियर जल में होती कमी के चलते बारिश के पानी को अन्य तरीकों से रोकना जरूरी है। बड़े बांध बना कर पानी को रोकने की अपनी सीमाएं हैं और इस विधि के कारण होने वाले विस्थापन और पर्यावरणीय दुष्प्रभावों को देखते हुए, इस विधि का विस्तार नहीं हो सकता। इसलिए सतही जल को भू-जल में संरक्षित करने पर ही ज्यादा जोर देने की जरूरत है। उत्तराखंड के उफरेखाल में स्वामी सचिदानंद भारती ने स्थानीय स्तर पर छोटे नाले को पुनर्जीवित करने का सुंदर प्रयोग करके दिखाया है, किंतु कहीं ऐसे प्रयोगों का विस्तृत प्रयोग देखने को नहीं आया है। जलागम विकास कार्यक्रमों में जल संरक्षण एक महत्त्वपूर्ण पहलू था, किंतु ऐसे कार्यक्रमों के क्रियान्वयन के बाद कोई दिखने लायक प्रदर्शन क्षेत्र तैयार नहीं हुआ। पर्वतीय क्षेत्रों में जलागम विकास के सिद्धांत पर ही जल संरक्षण कार्य हो सकता है। चाहे आप उसे किसी भी नाम से पुकार लें। हिमरेखा से नीचे के क्षेत्रों में जलागम कार्यक्रम को गंभीरता से चलाने की जरूरत है। क्योंकि बर्फ  घटने के बाद इसी क्षेत्र से संरक्षित जल से बड़ी नदियों के पानी को कुछ हद तक बनाए रखा जा सकेगा और स्थानीय जरूरतों को भी पूरा किया जा सकेगा। आज तक जलागम विकास कार्यक्रम विशेषज्ञता पूर्ण दृष्टि से नहीं चलाए गए, क्रियान्वयन कार्य आप चाहे जलागम समिति से करवाएं या पंचायत से, जरूरत तो विशेषज्ञता की है। क्रियान्वयन करने वाली इकाइयों को विशेषज्ञ सलाह उपलब्ध करवाना सरकार की जिम्मेदारी बनती है। न केवल सलाह बल्कि कार्यक्रम का नियंत्रण भी विशेषज्ञ सलाह के अंतर्गत ही होना चाहिए। स्थानीय स्तर पर जन भागीदारी का अपना महत्त्व है, किंतु भागीदारी कार्य की गुणवत्ता के साथ समझौते का कारण नहीं बननी चाहिए और न ही दीर्घकालीन जिम्मेदारी से बचने का माध्यम ही बननी चाहिए। पिछले अनुभवों से यह सामने आया है कि अच्छे सफल कार्य भी परियोजना समाप्ति के बाद संभाल की कमी के कारण नष्ट हो जाते हैं। इसलिए उपचारित जलागम क्षेत्र को बाद में संभालने की जिम्मेदारी किसी स्थाई व्यवस्था के हवाले की जानी चाहिए, जो उसके रख-रखाव के लिए स्थाई तौर पर जवाबदेह हो। इसके लिए वन प्रबंधन समिति, वन विभाग, वन पंचायत आदि कोई व्यवस्था खड़ी की जा सकती है।

पर्वतीय क्षेत्रों में जलागम विकास कार्यक्रमों को चलाने के लिए विशेषज्ञ विभाग बनाया जाना चाहिए, जिसमें भूविज्ञानी, वानिकी के जानकार, पर्वतीय आजीविका के जानकार,  सिविल इंजीनियर और समाज शास्त्री होने चाहिए, जो एक ही छत के नीचे सब तरह की वांछित विशेषज्ञता उपलब्ध करवा सकें। कार्यक्रम के लिए योजना निर्माण में विशेषज्ञों को स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार उपचार योजना बनाने की छूट दी जाए। कागजी खानापूर्ति पर उतना ध्यान देने के बजाय, पांच वर्ष की असली उपलब्धि और स्थाई प्रबंध व्यवस्था खड़ी करने पर जोर दिया जाए। वन विभाग और नोडल विभाग का टकराव भी जलागम कार्यक्रम की उपलब्धि में न्यूनता का कारण बनता रहा है। नोडल विभाग का कार्य सामुदायिक विकास विभाग को दिया गया था, किंतु वन विभाग उन्हें अपने क्षेत्रों में वनरोपण की अनुमति नहीं देता रहा है। जलागम विकास के वनरोपण के लक्ष्य पूरा करने के लिए निजी भूमियों पर वृक्षारोपण करवा कर जबरदस्ती लक्ष्य पूरे किए जाते रहे हैं। बिना वनभूमि को उपचारित किए पर्वतीय क्षेत्रों के जलागम विकास का अर्थ ही नहीं रहता, क्योंकि इन क्षेत्रों में वन भूमि 60 प्रतिशत से ज्यादा है।

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