प्रतीक उपासना

By: May 12th, 2018 12:05 am

श्रीराम शर्मा

प्रतीक उपासना की पार्थिव पूजा के कितने ही कर्मकांडों का प्रचलन है। तीर्थयात्रा, देवदर्शन, स्तवन, पाठ, षोडशोपचार, परिक्रमा, अभिषेक शोभायात्रा, श्रद्धांजलि, रात्रि-जागरण, कीर्तन आदि अनेकों विधियां विभिन्न क्षेत्रों और वर्गों में अपने-अपने ढंग से विनिर्मित और प्रचलित है। इससे आगे का अगला स्तर वह है जिसमें उपकरणों का प्रयोग न्यूनतम होता है और अधिकांश कृत्य मानसिक एवं भावनात्मक रूप से ही संपन्न करना पड़ता है। उच्चस्तरीय साधनाक्रम में मध्यवर्ती विधान के अंतर्गत तीन कृत्य आते हैं। जप, ध्यान , प्राणायाम। न केवल भारतीय परंपरा में वरन् समस्त विश्व के विभिन्न साधना प्रचलनों में भी किसी न किसी रूप में इन्हीं तीन का सहारा लिया गया है। प्रकार कई हो सकते हैं, पर उन्हें इन तीन वर्गों के ही अंग-प्रत्यंग के रूप में देखा जा सकता है। साधना की अंतिम स्थिति में शारीरिक या मानसिक कोई कृत्य करना शेष नहीं रहता। मात्र अनुभूति, संवेदना, भावना तथा संकल्प शक्ति के सहारे विचार रहित शून्यावस्था प्राप्त की जाती है। इसी को समाधि अथवा तुरियावस्था कहते हैं। ब्रह्मानंद का परमानंद का अनुभव इसी स्थिति में होता है। इसे ईश्वर और जीव के मिलने की चरम अनुभूति कह सकते हैं। इस स्थान पर पहुंचने से ईश्वर प्राप्ति का जीवन लक्ष्य पूरा हो जाता है। यह स्तर समयानुसार आत्म विकास का क्रम पूरा करते चलने से ही उपलब्ध होता है। उतावली में काम बनता नहीं बिगड़ता है। ईश्वर दर्शन, समाधि स्थिति, कुंडलिनी जागरण, शक्तिपात जैसी आतुरता से बलबुद्धि का परिचय भर दिया जा सकता है, प्रयोजन कुछ सिद्ध नहीं होता। शरीर को सत्कर्मों में और मन को सद्विचारों में ही अपनाए रहने से जीव सत्ता का उतना परिष्कार हो सकता है, जिससे वह स्थूल और सूक्ष्म शरीरों को समुन्नत बनाते हुए कारण शरीर के उत्कर्ष से संबद्ध दिव्य अनुभूतियां और दिव्य सिद्धियां प्राप्त कर सके। ऐसी दिव्य सत्ताएं इस संसार में मौजूद हैं, जो पात्रता के तालाब को बादलों की तरह बरस कर सदा भरापूरा रखने को सहायता प्रदान कर सकें। हमें शरीर के जड़ और मन के अर्ध चेतन स्तरों को परिष्कृत बनाने में ही अपना सारा ध्यान केंद्रित करना चाहिए। साधना विज्ञान की दौड़ इन्हीं दो क्षेत्रों के विकास में सहायता करने वाले विधि-विधान बनाने में केंद्रीभूत है। इतना बन पड़े तो अगली बात निखिल ब्रह्मांड में संव्याप्त दिव्य चेतना के प्रत्यक्ष मार्ग दर्शन पर छोड़ी जा सकती है। अपना आपा ही इतना ऊंचा उठ जाता है कि पृथ्वी की आकर्षण शक्ति से ऊपर निकल जाने के बाद राकेट जिस प्रकार अपनी यात्रा अपने बलबूते पर चलाने लगते और अमुक कक्षा बनाकर भ्रमण करने लगते हैं, उसी प्रकार स्वयंमेव आत्म साधना का शेष भाग पूरा हो सकता है। आत्मोत्कर्ष की जिन कक्षाओं का सैद्धांतिक और व्यावहारिक पाठ्यक्रम सीखने, सिखाने की आवश्यकता पड़ती है, वे चिंतन की उत्कृष्टता एवं कर्त्तव्यत्व की आदर्शवादिता के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए हैं। उनकी उपेक्षा करके मात्र कर्मकांडों के सहारे कोई बड़ी सफलता हाथ नहीं लग सकती। ऊंचा चढ़ने के लिए लाठी की और जल्दी पहुंचने के लिए वाहन की जरूरत पड़ती है। यह उपकरण बहुत ही उपयोगी और आवश्यक हैं, पर यह ध्यान रखना चाहिए कि स्वतंत्र रूप से कोई जादुई शक्ति से संपन्न नहीं है।

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