प्रेम का द्वार परमात्मा

By: May 12th, 2018 12:05 am

बाबा हरदेव

अतः बात दृष्टि की है। पदार्थ में क्या सौंदर्य हो सकता है, शब्द में क्या सार हो सकता है क्योंकि पदार्थ और शब्द में झलकता है सार। इस संसार असार में प्रेम रत्न है सार। जैसे दर्पण में  कोई प्रतिबिंब झलकता है, जैसे रात को आकाश में चांद, तारे इसी झील में चमकते नजर आते हैं। इसीलिए तत्त्व ज्ञानियों ने संसार को माया कहा है, यहां असली है नहीं, यहां असली स्वप्नवत है, यहां असली की केवल परछाई पड़ती है, यहां असली की प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है…

प्रेम ते भगति होण जे कट्ठे रूह वी नूरी होंदी एं।

प्रेमी प्रेम न छाड़ई होए न प्रेम तो हीन

मरी हुई भी ऊर में जल चाहत है मीन।

जैसा कि ऊपर वर्णन किया गया है ‘प्रेम’ का मार्ग बहुत बारीक है, अतिसूक्ष्म है। इसलिए प्रेम शब्द बहुत गहरा अर्थ रखता है। कामना-युक्त मनुष्य जब इस शब्द का उपयोग करता है तो ‘प्रेम’ का अर्थ होता है ‘काम’ और जब भगत इसका उपयोग करता है तो ‘प्रेम’ का अर्थ होता है ‘राम’। मानो काम से लेकर राम तक सब प्रेम से जुड़ा है। इसलिए ‘प्रेम’ को समझना ऊपर भी ले जाता है यानी जो सीढ़ी नीचे ले जाती है, वही सीढ़ी ऊपर भी ले जाती है, सिर्फ दिशा का भेद होता है। नीचे जाते समय हम नीचे की तरफ देखते हैं जबकि ऊपर जाते समय हमारी आंखें ऊपर की ओर अटकी होती हैं। आध्यात्मिक जगत में नीचे की तरफ अटकी हुई आंखों को ‘वासना’ कहते हैं और ऊपर की ओर उठी हुई आंखों को प्रार्थना के नाम से संबोधित किया जाता है, बस इतना ही फर्क है ‘वासना’ और ‘प्रार्थना’ का। अन्यथा सीढ़ी वही है, नीचे उतरे तो ‘वासना’ ऊपर चढ़े तो ‘प्रार्थना’। अब अगर हमारी आंखें उज्ज्वल हैं, हमारे भीतर विवेक का दीया जल रहा है, तो हम किसी वस्तु में सौंदर्य देखते समय पाएंगे कि इसमें परमात्मा की ही छवि झलक रही है। फिर हम वस्तु के प्रेम में न पड़ेंगे, बल्कि वस्तु के माध्यम से परमात्मा के प्रेम में पड़ेंगे। अतः महात्मा का फरमान है कि जब भी प्रेम घटे तो पदार्थ (वस्तु) पर मत अटकें, क्योंकि अगर हम पदार्थ पर अटक जाते हैं, तो वासना और अगर परमात्मा की सूझबूझ प्रेम के जरिये मिलने लगे, तो प्रार्थना। मानो अगर हम पदार्थ पर अटक जाते हैं तो नीचे की तरफ चले जाते हैं, कीचड़ की तरफ चले जाते हैं और अगर परमात्मा की सुध-बुध स्मरण आने लगे तो चले ऊपर की तरफ, कमल की तरफ। फिर पंख से लग जाते हैं, हम आकाश की तरफ  आनंद की यात्रा पर निकल जाते हैं। अतः परमात्मा जिस प्रेम की बात अपनी पवित्र वाणियों में करते आ रहे हैं ये इसी दृष्टि का नाम है।

प्रेम दीवाने जो भये पलट गयो सब रूप

सहजो दृष्टि न आवई कहां रंक कहां भूप।

 अतः बात दृष्टि की है। पदार्थ में क्या सौंदर्य हो सकता है, शब्द में क्या सार हो सकता है क्योंकि पदार्थ और शब्द में झलकता है सार। इस संसार असार में प्रेम रत्न है सार। जैसे दर्पण में  कोई प्रतिबिंब झलकता है, जैसे रात को आकाश में चांद, तारे इसी झील में चमकते नजर आते हैं। इसीलिए तत्त्व ज्ञानियों ने संसार को माया कहा है, यहां असली है नहीं, यहां असली स्वप्नवत है, यहां असली की केवल परछाई पड़ती है, यहां असली की प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है। वाक्यी! यह जगत छाया है, माया है। इस जगत में जो आम मनुष्य का प्रेम  का अनुध्यान है वो भी माया है, छाया है, मगर तत्त्वज्ञानी इस प्रेम की बात करते हैं जिसके समस्त अनुभवों का निचोड़ परमात्मा है। जो आकाश में चांद, तारों जैसा है।

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