भारत-चीन के सुधरते संबंध

By: May 7th, 2018 12:08 am

कुलदीप नैयर

लेखक, वरिष्ठ पत्रकार हैं

ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चीन-निर्देशित सीमा को स्वीकार कर लिया है। सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी तर्क कर सकती है कि उसने वह स्वीकार किया है जो कानूनी तौर पर वास्तव में है। जिसका ऐतिहासिक क्षण के रूप में स्वागत किया जा रहा है, वह वास्तव में बीजिंग के समक्ष दीन-हीन समर्पण है। व्यवहार में यह एक हार है। अगर कांग्रेस पार्टी ने ऐसा किया होता तो उसे भारत को बेचने वाली ताकत के रूप में प्रदर्शित किया गया होता। इस मामले में हैरानीजनक यह है कि नरेंद्र मोदी को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का समर्थन हासिल लगता है…

भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने गर्व के साथ चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई का समर्थन किया था। वह प्रथम फं्ट आर्मी कमांडर चियांग काई शेक को हराकर उभरे थे। चीनी प्रधानमंत्री ने उस समय भारत के स्वतंत्रता संघर्ष का समर्थन किया था, जबकि ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने कहा था कि भारत की आजादी दूसरे विश्व युद्ध में मित्र देशों की विजय पर निर्भर नहीं है। यह एक पूर्व निश्चित निष्कर्ष था जब अमरीका ने ब्रिटेन तथा ऐसी ही अन्य लोकतांत्रिक ताकतों को समर्थन की घोषणा की। अब तक नेहरू कांग्रेस का समर्थन हासिल करने में सफल हो चुके थे। इसने यह घोषणा इसके बावजूद की कि महात्मा गांधी ने फासीवादी ताकतों का नेतृत्व कर रहे एडोल्फ हिटलर के विजेता के तौर पर उभरने का अनुमान जताया था। वर्ष 1962 में भारत पर आक्रमण करके चाऊ एन लाई ने नेहरू को धोखा दिया, जो एक बड़ा आघात था जिससे नेहरू उबर नहीं पाए। इसके बाद गुट निरपेक्ष देशों ने एक साथ कोलंबो प्रस्तावों में संशोधन किया था और नेहरू के गौरव को अंशतः वापस प्राप्त किया था। प्रस्तावों में नई सीमा को मान्यता दी गई थी, जहां चीन ने अपनी सेनाओं के जरिए बाहरी रेखा खींची थी। नई दिल्ली ने बीजिंग में अपने राजदूत को वापस बुलाकर खिझलाहट दिखाई थी। दोनों देशों के संबंधों में तब से लेकर कड़वाहट चल रही है।

ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चीन-निर्देशित सीमा को स्वीकार कर लिया है। सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी तर्क कर सकती है कि उसने वह स्वीकार किया है जो कानूनी तौर पर वास्तव में है। जिसका ऐतिहासिक क्षण के रूप में स्वागत किया जा रहा है, वह वास्तव में बीजिंग के समक्ष दीन-हीन समर्पण है। व्यवहार में यह एक हार है। अगर कांग्रेस पार्टी ने ऐसा किया होता तो उसे भारत को बेचने वाली ताकत के रूप में प्रदर्शित किया गया होता। मोदी हिंदी में अपने मीठे-मीठे भाषणों से उन लोगों को लुभा सकते हैं जो सीमाई समस्या की पेचीदगियों को नहीं समझ पाते हैं। परंतु हैरानी की बात यह है कि उन्हें इस मामले में उस नागपुर मुख्यालय से समर्थन मिल गया जहां से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ हाई कमान संचालित होता है। चीन और भारत शायद ही कभी इस बात पर सहमत हुए हों कि वास्तविक सीमा रेखा कहां है। नेहरू ने कहा था कि उन्होंने भारतीय सेना को घुसपैठियों को बाहर खदेड़ने व अपना इलाका खाली करवाने को कहा था। तब से लेकर दोनों देशों के संबंध न्यूनाधिक रूप ने शत्रुतापूर्ण चल रहे हैं। कुछ समय पहले डोकलाम में भारत ने अपना ऐसा बाहुबल दिखाया जो किसी नतीजे पर न पहुंचने की स्थिति है। चीन को अपनी सेनाएं वर्तमान सीमा से पीछे हटानी पड़ी थीं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की गत सितंबर में ब्रिक्स देशों की यात्रा ने तनाव को कम किया। मोदी की इस यात्रा का सकारात्मक पक्ष यह है कि दोनों देश सामूहिक रूप से आतंकवाद के खिलाफ लड़ने के लिए तैयार हुए हैं।

लेकिन यहां भी बीजिंग ने अपनी थ्यूरी मजबूत की। फिर भी चीन और पाकिस्तान की दोस्ती नई दिल्ली की चिंताओं को बढ़ा रही है। बहुत पहले की बात नहीं है, बीजिंग ने अरुणाचल से चीन की यात्रा करने वाले भारतीयों के वीजा नत्थी करने शुरू कर दिए थे। चीन यह संकेत देना चाहता था कि यह एक अलग क्षेत्र है तथा भारत का हिस्सा नहीं है। नई दिल्ली ने चीन की इस हरकत को चुपचाप सहन किया था। अरुणाचल प्रदेश को भारत का हिस्सा दिखाने वाले मानचित्रों को चीन स्वीकार नहीं करता है। अरुणाचल व चीन की सीमा के बीच छोटे क्षेत्र पर विवाद को याद करें तो अरुणाचल की स्थिति पर चीन हमेशा सवाल उठाता रहा है। चीन के लिए तिब्बत वैसा ही है जैसा भारत के लिए कश्मीर है। तिब्बत में आजादी के लिए मांग उठती रहती है। हालांकि इस मामले में एक फर्क है, वह यह कि दलाईलामा चीन के भीतर ही स्वायत्त दर्जे के लिए राजी हैं। कश्मीर आज आजादी चाहता है। ऐसा भी हो सकता है कि एक दिन ऐसा आए जब कश्मीरी इसी तरह के दर्जे के लिए राजी हो जाएं। समस्या इतनी पेचीदा है कि छोटा बदलाव एक बड़े विनाश का कारण बन सकता है। ऐसा जोखिम लेना भी मुश्किल है। पिछले साल दलाईलामा ने अरुणाचल का दौरा किया जिससे वे दिन याद आ गए जब चीन ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया था।

उस समय नेहरू ने इस पर कोई ऐतराज नहीं जताया था क्योंकि उनका चाऊ एन लाई से निजी समझौता था। दलाईलामा के अरुणाचल दौरे ने तिब्बत को लेकर कोई संदेह पैदा नहीं किए, परंतु इसने चीन द्वारा तिब्बत को कब्जाने के मसले पर फिर से चर्चा शुरू करवा दी। चीन ने इस दौरे को उकसाने वाला बताया था। उसने उस समय यह चेतावनी भी दी थी कि यह दौरा दोनों देशों के सामान्य संबंधों को प्रभावित कर सकता है। वास्तव में इसी कारण डोकलाम विवाद उभर कर सामने आया। फिर भी भारत इस विवाद को सुलझाने में सफल रहा। वास्तव में भारत के साथ चीन की समस्या की जड़ दोनों देशों की सीमाओं के ब्रिटिश अंकन में है। चीन मैकमोहन लाइन को मानने से इसलिए इनकार करता है क्योंकि यह अरुणाचल को भारत का हिस्सा बताती है। इसलिए इस क्षेत्र में अगर कोई भी गतिविधि होती है तो उसे चीन शत्रुता की दृष्टि से देखता है। रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण ने विवादित क्षेत्र का दौरा चीन की आपत्ति के बावजूद किया। यह बात इसे दर्शाती है कि अगर बात शत्रुता तक पहुंचती है तो भारत उसके लिए भी तैयार है। वर्ष 1962 में भारतीय सेना के पास इतना साजो-सामान नहीं था। आज भारत के पास इसकी कमी नहीं है और वह उभरती सैन्य ताकत है। ऐसा लगता है कि चीन की ओर से भारत को उकसाने वाले कार्रवाइयां जारी रहेंगी। जब युद्ध को खारिज किया जाता है तो चीन के पास केवल यही विकल्प होता है। किस तरह इस मसले का प्रतिकार करें कि शत्रुता भी न बढ़े, यह वह स्थिति है जिसका भारत को सामना करना पड़ता है। बीजिंग भारत-चीन भाई-भाई जैसी दृश्यावलि को फिर जगाने की कोशिश कर रहा है। डोकलाम विवाद के बाद जब नरेंद्र मोदी पहली बार चीन गए थे तो चीनी विदेश मंत्रालय का यह वक्तव्य सामने आया था कि दोनों देश परिपक्वता के साथ काम करेंगे तथा एक-दूसरे की चिंताओं व अपेक्षाओं का सम्मान करेंगे। वक्तव्य में यह भी बताया गया कि दोनों देश सीमा पर शांति बनाए रखने के लिए जो कुछ भी संभव होगा, उसे करेंगे। दोनों सेनाओं के बीच निरंतर संचार की सहमति भी बनी। दोनों में विश्वास बढ़ाने के उपाय भी किए जाएंगे। दोनों देशों के मध्य सांस्कृतिक आदान-प्रदान बढ़ाने तथा नागरिकों के बीच संपर्क बढ़ाने की दिशा में काम करने पर भी सहमति बनी। दोनों के मध्य जो अनौपचारिक बातचीत हुई, उसमें इन देशों के व्यापारिक संबंध मजबूत करने पर भी सहमति जताई गई। दोनों देशों के मध्य नवीनतम  अभियान का लक्ष्य इन देशों के आपसी संबंधों को मजबूत करना है। शांति, समृद्धि व विकास के लिए नरेंद्र मोदी व शी जिनपिंग ने वुहान की पूर्वी झील का सैर-सपाटा भी किया, नाव में सवारी भी की और यह सब कुछ एक आरामदायक व मैत्रीपूर्ण वातावरण में हुआ। यह भविष्य के लिए शुभ संकेत हैं।

ई-मेल : kuldipnayar09@gmail.com

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