भारत में जिन्ना की प्रासंगिकता

By: May 14th, 2018 12:07 am

कुलदीप नैयर

लेखक, वरिष्ठ पत्रकार हैं

हिंदू व मुसलमानों के आपस में बंटे होने के बावजूद दोनों ने अंग्रेजों को कड़ी चुनौती दी। इसका मतलब यह है कि जब किसी तीसरे पक्ष का मामला आता है, तो उसे बाहर निकाल फेंकने के लिए दोनों हाथ मिला लेते थे। न्यूनाधिक रूप से यह वही है जो पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना ने 1945 में लाहौर के विधि महाविद्यालय में कहा था। मैं उस वक्त एक छात्र था। मेरे इस सवाल पर कि अगर कोई तीसरा पक्ष भारत पर हमला कर देता है तो पाकिस्तान का क्या रुख होगा, उन्होंने सीधे-सीधे कहा था कि उस स्थिति में दुश्मन को हराने के लिए पाकिस्तान के जवान भारतीय जवानों से हाथ मिला लेंगे…

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी केवल अध्ययन का एक स्थान मात्र नहीं है। आजादी के आंदोलन के दौरान पाकिस्तान की मांग को लेकर जो अभियान चला, उसमें इस विश्वविद्यालय ने अग्रणी भूमिका निभाई थी। मिल्लत के लिए जो भी लाभकारी माना जाता है, उसके प्रति इस विश्वविद्यालय का झुकाव आज भी माना जाता है। यह देखते हुए इस विश्वविद्यालय के गौरवमयी स्थान अर्थात केन्नी हाल की दीवार पर मुहम्मद अली जिन्ना का फोटो कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है। विभाजन से पहले भी यह तस्वीर वहां लगी हुई थी तथा तब से लेकर अब तक सभी वर्षों के दौरान यह वहीं टंगी हुई है। परंतु मुझे जो बात हैरान करती है, वह है एक मई को इसका वहां से हट जाना तथा फिर तीन मई को इसका फिर से वहां टंग जाना। यह सत्य है कि यह काम भाजपा के एक उन्मादी कार्यकर्ता ने किया। उसने पहले यह तस्वीर वहां से हटा दी, फिर दो दिन के भीतर ही अपनी राय बदलते हुए इसे फिर वहां पर चिपका दिया। शायद भाजपा का यह वर्कर कर्नाटक में मुसलमान मतदाताओं को अपने पक्ष में करने की कोशिश कर रहे भाजपा हाईकमान की रणनीति से प्रभावित हुआ हो। देशभर में जितनी भी रैलियां हुई हैं, उनमें संबोधन के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी कर्नाटक के चुनाव को ध्यान में रखा है। एक अवसर पर उन्होंने यह टिप्पणी भी की थी कि कब्रिस्तान की तरह ही दाह संस्कार वाले स्थलों पर भी बिजली की व्यवस्था होनी चाहिए। उनके इस तरह के बयान हिंदू मतदाताओं को यह आश्वासन दिलाने के लिए होते हैं कि उनकी पार्टी हिंदू राष्ट्र के अपने दर्शन को आज भी अपना मार्गदर्शक सिद्धांत मानती है।

चूंकि भारत में 80 फीसदी आबादी हिंदुओं की है, ऐसे में इस बात में कोई संदेह नहीं है कि बहुसंख्यक जनता का झुकाव उस ओर है जिसे हिंदुत्व के रूप में जाना जाता है। लेकिन मैं यह नहीं सोचता हूं कि यह वह चीज है जो लंबे समय तक अस्तित्व में रहेगी। हिंदू व मुसलमान शताब्दियों तक एक साथ रहे हैं। वर्तमान में हिंदुत्व की जो गर्म हवाएं चल रही हैं, इनके बावजूद हिंदू-मुसलमान ऐसा करते रहेंगे। मिजाज के अनुसार देखें तो भारत एक बहुलवादी समाज है। हालांकि यह जरूर लग रहा है कि वर्तमान में देश हिंदुत्व की राह पर चल रहा है, किंतु इसके बावजूद देश का बहुलवादी स्वरूप बना रहेगा। हालांकि देश में हमेशा एक विनाशकारी समूह रहा है जो, जो कुछ भी हितकर है, उसका विरोध, विरोध के लिए करता रहा है। भारत-पाकिस्तान संबंधों का मामला लेते हैं। कुछ ऐसे तत्त्व हैं जो दोनों के बीच किसी समझौते के प्रयास को हमेशा तारपीडो करने की कोशिश करते रहते हैं। दोनों के बीच संबंध सामान्य बनाने की दिशा में जो भी सकारात्मक कदम उठाया जाता है, उसमें ये तत्त्व रोड़ा बन जाते हैं। कुछ वर्ष पहले पाकिस्तान के लाहौर में शदमान चौक के फिर से नामकरण की दिशा में पाकिस्तान ने अपनी ओर से पहल की। उसकी इस पहल का भारत में भी व्यापक स्वागत हुआ। वास्तव में यह प्रयास विभाजन से पूर्व के स्वतंत्रता नायकों को सम्मान देने की नीति का एक हिस्सा था। मुझे याद है कि कुछ वर्षों पहले मार्च के महीने में शहीद भगत सिंह की जयंती मनाने के बाद पाकिस्तान का एक प्रतिनिधिमंडल अमृतसर में एक समारोह में शामिल हुआ था जिसमें जलियांवाला बाग हत्याकांड की त्रासदी का स्मरण किया गया था। उल्लेखनीय है कि इस हत्याकांड में हिंदू तथा मुसलमान, दोनों समुदायों के लोग शहीद हुए थे। इतनी उमंग पैदा हो गई थी कि 1946 में स्थापित इंडियन नेशनल आर्मी तथा नौसेना के बलिदान करने वाले जवानों के अभिवादन के लिए तैयारियां गतिमान थीं।

हिंदू व मुसलमानों के आपस में बंटे होने के बावजूद दोनों ने अंग्रेजों को कड़ी चुनौती दी। इसका मतलब यह है कि जब किसी तीसरे पक्ष का मामला आता है, तो उसे बाहर निकाल फेंकने के लिए दोनों हाथ मिला लेते थे। न्यूनाधिक रूप से यह वही है जो पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना ने 1945 में लाहौर के विधि महाविद्यालय में कहा था। मैं उस वक्त एक छात्र था। मेरे इस सवाल पर कि अगर कोई तीसरा पक्ष भारत पर हमला कर देता है तो पाकिस्तान का क्या रुख होगा, उन्होंने सीधे-सीधे कहा था कि उस स्थिति में दुश्मन को हराने के लिए पाकिस्तान के जवान भारतीय जवानों से हाथ मिला लेंगे। यह एक अलग बात है कि वर्ष 1962 में जब चीन ने भारत पर हमला किया तो सैन्य तानाशाह जनरल मुहम्मद अयूब खान ने भारत को किसी तरह की कोई मदद नहीं भेजी। ब्रिटिश हुकूमत से लड़ते हुए जब भगत सिंह फांसी के तख्ते पर चढ़े तो वह केवल 23 वर्ष के थे। उनकी कोई सियासत नहीं थी सिवाय इसके कि वह विदेशी हुकूमत से भारत को आजाद करवाना चाहते थे और इसके लिए वह शहादत देने के लिए भी तैयार थे। मुझे यह जानकर हैरानी हुई कि शदमान चौक के फिर से नामकरण के खिलाफ 14 आवेदन आए थे। यह वही घुमावदार परिपथ था जहां भगत सिंह व उनके दो साथियों राजगुरु व सुखदेव को फांसी देने के लिए मचान बनाया गया था। जिन्ना का नाम विभाजन से जुड़ा है। क्या वह अकेले थे जिन्हें इसके लिए दोषी ठहराया जा सकता है? मैंने जब भारत के अंतिम वायसराय लार्ड माउंटबैटन से लंदन में उनके आवास पर 90 के दशक में बातचीत की तो उन्होंने बताया था कि ब्रिटेन के तत्कालीन  प्रधानमंत्री क्लेमेंट रिचर्ड एटली इस बात के लिए उत्सुक थे कि भारत व पाकिस्तान के पास कुछ साझा होना चाहिए। माउंटबैटन ने इसके लिए प्रयास किया, किंतु जिन्ना ने कहा कि वह भारतीय नेताओं पर भरोसा नहीं करते हैं। उन्होंने उस कैबिनेट मिशन प्लान को स्वीकार कर लिया था जिसमें एक कमजोर केंद्र सरकार की संकल्पना की गई थी। लेकिन भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने कहा कि सब कुछ उस संविधान सभा पर निर्भर करेगा जिसकी बैठकें पहले ही नई दिल्ली में चल रही थी।

दोनों पक्षों के बीच मतभेद समय बीतने के साथ ज्यादा सुस्पष्ट हुए। वर्ष 1940 में जब मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की स्थापना के लिए एक प्रस्ताव अपनाया तो विभाजन अपरिहार्य देखने लगा। दोनों पक्ष उस समय तथ्य का सामना नहीं कर रहे थे जब उन्होंने जनसंख्या की तबदीली का विचार रद कर दिया। लोगों ने स्वयं ऐसा किया। हिंदू व सिख इस ओर आ गए तथा मुसलमान उस ओर चले गए। शेष एक इतिहास है। जिन्ना का पाकिस्तान में वही सम्मान है, जो महात्मा गांधी का भारत में है। यह वह समय है जब हिंदुओं को मान लेना चाहिए कि विभाजन मुसलमानों के लिए मुक्ति था। वह 1947 में था। आज भारत में जो 17 करोड़ मुसलमान हैं, उनका भारत के मामलों में कोई मतलब नहीं है। यह सत्य है कि उनके पास वोट देने का अधिकार है तथा देश उस संविधान द्वारा शासित है जो हर व्यक्ति को एक वोट देने का अधिकार देता है। निर्णय निर्माण में उनकी भूमिका सीमित है। विभाजन से पहले मौलाना अबुल कलाम आजाद ने जो कहा था, वह आज सत्य साबित हो चुका है। उन्होंने मुसलमानों से कहा था कि कम संख्या में होने के कारण वे भारत में असुरक्षित महसूस कर सकते हैं, लेकिन वे इस बात पर गर्व कर सकते हैं कि भारत उनसे उतना ही संबद्ध है, जितना वह हिंदुओं से है। विभाजन के बाद महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू तथा सरदार पटेल भारत का स्वरूप बहुलवादी बनाए रखने में सफल हुए। किंतु आज अल्पसंख्यकों में हिंदुत्व के उभार के कारण असुरक्षा की भावना बढ़ती जा रही है। सभी वर्गों की संतुष्टि के लिए जरूरी है कि भारत को बहुलवादी तथा धर्मनिरपेक्ष स्वरूप के अनुकूल बनाए रखा जाए।

ई-मेल : kuldipnayar09@gmail.com

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