मोदी हराओ मोर्चा!

By: May 24th, 2018 12:05 am

सत्ता विरोधी राजनीतिक मोर्चे बनते रहे हैं। एक दौर था, जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और कांग्रेस के खिलाफ विपक्षी लामबंदी होती थी। राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने, तो बोफोर्स घोटाला ऐसा उभरा कि उन्हीं की कैबिनेट में वित्त मंत्री रहे वीपी सिंह ने उनके खिलाफ मोर्चा खोला और विपक्षी दल आकर जुड़ते रहे। अंततः वीपी सिंह प्रधानमंत्री जरूर बने, लेकिन 11 महीने में ही गठबंधन बिखर गया और उनकी सरकार ढह गई। इसी गठबंधन में से चंद्रशेखर-देवीलाल ने 40 सांसद तोड़े और कांग्रेस के बाहरी समर्थन से चंद्रशेखर का प्रधानमंत्री बनने का सपना तो साकार हुआ, लेकिन तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष राजीव गांधी ने 4 महीने में ही समर्थन वापस ले लिया, नतीजतन सरकार का पतन हुआ। जैसे बिल्ली के भाग्य से छींका टूटता है। 1996 में जनता दल और देवेगौड़ा के साथ वही हुआ। लोकसभा में भाजपा 161 सांसदों के साथ सबसे बड़ी पार्टी थी। उसके नेता अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री पद की शपथ भी दिलाई गई, लेकिन धर्मनिरपेक्षता के नाम पर कई दलों ने ‘सांप्रदायिक भाजपा’ को समर्थन नहीं दिया। नतीजतन वाजपेयी तो पूर्व प्रधानमंत्री हो गए, लेकिन विपक्ष एक बार फिर लामबंद हुआ और ‘संयुक्त मोर्चा’ का गठन किया गया। सबसे पहले पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाने की पेशकश की गई, लेकिन सीपीएम की केंद्रीय समिति ने उसे खारिज कर दिया। एक साक्षात्कार में ज्योति बसु ने पार्टी के उस फैसले को ‘ऐतिहासिक भूल’ करार दिया था। उसके बाद 46 सांसदों वाले जनता दल के कर्नाटक मुख्यमंत्री एचडी देवेगौड़ा को प्रधानमंत्री बनाने का निर्णय हुआ, जिस पर स्पष्ट असहमति कोई भी नहीं थी। देवेगौड़ा की सरकार और उसके 11 महीने बाद इंद्रकुमार गुजराल की सरकार कांग्रेस के बाहरी समर्थन से ही बनीं और समर्थन वापस ले-लेकर कांग्रेस ने ही दोनों सरकारों का पतन किया। आज कहां है संयुक्त मोर्चा? उसके अलग-अलग अवशेष जद के विभिन्न नामों से राजनीति में सक्रिय हैं। 1998 के उस दौर के बाद एक बार फिर विपक्षी महागठबंधन बनाने की कोशिशें जारी हैं। फर्क इतना है कि तब सभी विपक्षी दल कांग्रेस के खिलाफ होते थे, लेकिन सरकार बनाने को उसी का समर्थन लेते थे। आज एक ही राजनीतिक शख्सियत के खिलाफ विपक्ष लामबंद होने की मंशा व्यक्त कर रहा है-प्रधानमंत्री मोदी। फिलहाल ‘मोदी हराओ मोर्चा’ आकार ग्रहण नहीं कर सका है। कर्नाटक में कांग्रेस-जद (एस) की सरकार को ‘आदर्श उदाहरण’ करार दिया जा रहा है। मुख्यमंत्री कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण समारोह में ‘मोदी हराओ मोर्चा’ के जो कुछ चेहरे उपस्थित हुए थे, उसी से ही किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता। विपक्ष का सबसे सार्थक प्रयोग आपातकाल के बाद जनता पार्टी के रूप में हुआ था। तब नेतृत्व जयप्रकाश नारायण कर रहे थे। कर्नाटक विधानसभा के बाहर भी जयप्रकाश नारायण के चित्र लगाकर एक संकेत दिया गया है कि इस बार भी विपक्षी गठबंधन का प्रयोग 1977 सरीखा ही होगा। तब आपातकाल के बाद चुनाव में जबरदस्त बहुमत भी हासिल हुआ था और पहली बार केंद्र में गैर-कांग्रेस की ऐसी सरकार बनी थी, जिसे अपने बूते बहुमत प्राप्त था, लेकिन वह ऐतिहासिक प्रयोग भी पूरे 3 साल तक नहीं चल सका। राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं का टकराव तब भी हुआ था और आज भी मौजूद है, जो बहुत जल्दी सामने आएगा। अब ‘मोदी हराओ मोर्चा’ के सभी सदस्य-दल प्रधानमंत्री मोदी से नफरत करते हैं और इसीलिए चुनाव में एकजुट होना चाहते हैं, ताकि मोदी को हराकर सत्ता के बाहर किया जा सके। इन दलों का कोई भी साझा कार्यक्रम या विजन नहीं है। विडंबना यह है कि एक तरफ ममता बनर्जी और चंद्रशेखर राव का ‘संघीय मोर्चा’ है, तो कांग्रेस अब भी यूपीए-3 बनाने की इच्छा पाले है। हालांकि उसकी स्थिति कई क्षेत्रीय दलों से भी ‘बौनी’ हो गई है। यानी विरोधाभास और विवाद आज भी विपक्षी एकता के मूल में हैं। दूसरी ओर प्रधानमंत्री मोदी आज भी देश के सबसे लोकप्रिय नेता हैं। कर्नाटक चुनाव के दौरान यह सच सामने आता रहा। अधेड़ और युवा लोगों ने प्रधानमंत्री मोदी को ‘देश का नेता’ माना, जबकि राहुल गांधी के बारे में उन्होंने अभी तक कोई राय नहीं बनाई थी। दो राष्ट्रीय सर्वेक्षण भी किए गए, जिनका औसत आकलन यह था कि 57 से 65 फीसदी लोग 2019 में भी मोदी सरकार के पक्षधर थे। अलबत्ता सर्वेक्षणों में यह भी स्वीकार किया गया कि बेरोजगारी, महंगाई, किसान, दलित, धार्मिक मुद्दे, जीएसटी, नोटबंदी आदि समस्याएं आज भी हैं, लेकिन लोग प्रधानमंत्री की विदेश नीति, दुनिया में भारत की साख, अंतरराष्ट्रीय कारोबार और मुद्रा, स्वच्छ इंडिया, डिजिटल इंडिया, आधारभूत ढांचे आदि की सराहना भी कर रहे हैं, लिहाजा मोदी को एक और कार्यकाल देने के पक्ष में हैं। बहरहाल दोनों ही स्थितियों में हम किसी निष्कर्ष पर नहीं जाना चाहते। फिलहाल ‘मोदी हराओ मोर्चा’ की गतिविधियां महत्त्वपूर्ण होंगी कि आखिर वे साझा कार्यक्रम क्या बनाते हैं और वह प्रधानमंत्री मोदी, भाजपा को हराने में कितना कारगर साबित होता है।

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