राष्ट्रपति की शृंखला में हिमाचल

By: May 24th, 2018 12:05 am

तिलिस्म बांधकर नाचती वीआईपी मानसिकता के घुंघरू अगर इस बार राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के आगमन पर नहीं टूटे, तो शायद ही ऐसा अवसर फिर कभी लौटेगा। देश के प्रथम नागरिक ने राष्ट्र के आदर्शों की जो शृंखला हिमाचल दौरे पर स्थापित की है, उसमें हम भी शरीक हो सकते हैं। पहले नौणी के बागबानी विश्वविद्यालय की मानद उपाधि से खुद को अलहदा करके उन्होंने विज्ञान, विज्ञानी और उच्च अध्ययन की परंपराओं  का सम्मान किया और बाद में अपने ही सम्मान समारोह को वीआईपी परछाई से मुक्त करने की वजह से आम नागरिक की चिंता से रू-ब-रू हुए। वर्तमान दौर के लोकतांत्रिक व्यवहार की ये असामान्य घटनाएं हैं, क्योंकि सत्ता के नाम पर पद बंटते ही इसलिए, ताकि आम जनता को महसूस हो कि उनके सामने रुतबे की शोहरत कितना असर रखती है। हम हिमाचल में देख सकते हैं कि किस तरह सत्ता की सिफारिश पर, बिना किसी योग्यता के लोग शासन पद्धति के हिस्सेदार बन जाते हैं। कितनी बेरहमी से कोई अदना सा राजनीतिक कार्यकर्ता किसी ईमानदार-वरिष्ठ अधिकारी को भयभीत करने की हिमाकत कर सकता है। उद्घाटन समारोहों से बड़े शिलान्यास के पत्थर खड़े किए जाते हैं, तो घोषणाओं से बड़े मंच हो जाते हैं। आश्चर्य यह है कि हैंडपंप की स्थापना का उद्घाटन समारोह भी अपनी कीमत दर्शाता है, तो हर तरफ राजनीतिक सरदार नजर आते हैं। दरअसल वीआईपी संस्कृति अब सियासत का ऐसा जमघट है, जो सत्ता के बाकी प्रतिष्ठानों को भी प्रभावित करता है। इसीलिए रुआब में कई पद और सत्ता के नजदीक सरकारी कार्यसंस्कृति भी जीहुजूरी में जीना सीख जाती है। ऐसे में जो पद्धति बन रही है, उससे हटकर राष्ट्रपति ने हिमाचल के वीआईपी साम्राज्य की बांह मरोड़ी है। सवाल औकात का भी है, जिससे आगे निकलकर ऐसी घोषणाएं हो जाती हैं, जो बूते से बाहर हैं। एक समय था जब शिमला का मालरोड स्वतंत्र भारत की सादगी में आम और खास को एक साथ देखता था, लेकिन अब ऐसी मुलाकात से अलग हिमाचल की राजधानी संभ्रांत क्लबों की रोशनी में शिरकत करती है। आम हिमाचली को शायद ही सामान्य कतार में खड़ा होकर अधिकार मिलता है, जबकि पाने के लिए प्रदेश का नक्शा हर पांच साल बाद बदल जाता है। तमाम बोर्ड-निगमों में पद और वीआईपी पदाधिकार का हिसाब लगाया जाए, तो हर साल आम आदमी के सामने आदर्शों की बोली लगती है। सत्तारूढ़ दल के वीआईपी कार्यकर्ताओं की जमात में ठेकेदारी प्रथा का तिलिस्म भेद पाना मुश्किल है। हर साल ठेकेदारों के नए पंजीकरण में हम वीआईपी होेने की न जाने कितनी सौगातें ढूंढ सकते हैं और जहां विधायक से मंत्री तक की सिफारिश में कुनबा तैयार होता है। यही वीआईपी कुनबा हर विभाग की कार्यप्रणाली से चस्पां है और चाहकर भी स्थानांतरण नीति रूपांतरित नहीं होती। कर्मचारी संगठन और सरकारी कर्मचारी होना हिमाचल में वीआईपी तहजीब का खैरख्वाह है, तो इसीलिए सरकारी फैसलों की कलम हमेशा इसी वर्ग की खुशामद में रहती है। कमोबेश सत्ता की परंपराओं में अब राज्य का कर्जदार होना भी खैरात है और मिल बांट कर सुविधाएं बांट लेना अब हमारी नीयत बन चुकी है। हिमाचली ऐंठ में पलते शासन-प्रशासन से मुलाकात का रुख अगर राष्ट्रपति को पसंद नहीं आया, तो यह समझना होगा कि ऐसे ढोंग से मुक्त कैसे हो सकते हैं। सवाल केवल शिमला को वीआईपी हवाओं से बचाने का नहीं, बल्कि प्रदेश भर से ऐसी मानसिकता को रुखसत करने का वक्त आ चुका है। दूसरी ओर प्रश्न यह भी है कि हमने वीआईपी गतिविधियों के मुताबिक राजधानी की अधोसंरचना क्यों मुकम्मल नहीं की। एक ओर विकास के पहिए दौड़ रहे हैं और प्रति व्यक्ति आय के प्रदर्शन में नागरिक संपन्नता फैल रही है और दूसरी ओर अगर राष्ट्रपति आगमन पर हमारी धमनियां रुक जाएं, तो शिमला को राजधानी क्षेत्र विकास की परिधि में हर तरह से सुसज्जित करना होगा। कुल्लू घाटी में पंजाब के मुख्यमंत्री की यात्रा अगर नौ किलोमीटर का जाम पैदा करती है, तो इस तकलीफ के मायने हमारी अयोग्यता दर्शाते हैं। वीआईपी हलचल कई तरह से प्रदेश का नाम ऊंचा करती है, लेकिन आज भी अगर सेब-सीमेंट की ढुलाई के लिए विशेष गलियारे नहीं बने तो यहां योजनाओं का अकाल दिखाई देता है। शहरी विकास या नियोजन जिस ढर्रे पर हो रहा है, वह अपूर्ण व अगंभीर है। हिमाचल में आयोजित महासम्मेलनों, खेल व सांस्कृतिक समारोहों तथा धार्मिक अनुष्ठानों को देखते हुए यातायात के एक साथ कई समाधान आवश्यक हो जाते हैं, जबकि हर शहर व कस्बे की चारों दिशाओं में बड़े मैदान विकसित करने होंगे। ये मैदान सामुदायिक गतिविधियों, पार्किंग व्यवस्था, व्यापारिक मेलों तथा सांस्कृतिक-खेल समारोहों के अलावा आपदा प्रबंधन में भी वांछित हैं। शिमला के लिए तुरंत प्रभाव से राजधानी क्षेत्र विकास की एक विस्तृत योजना का खाका बनना चाहिए।

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