वर्तमान राजनीतिक संस्कृति और हिंसक विरोध

By: May 15th, 2018 12:10 am

कुलभूषण उपमन्यु

अध्यक्ष, हिमालयन नीति अभियान

फूट ही हिंसक वातावरण बनाने वाला कारक तत्त्व है। इस बात को यदि बहस में डाला जाए, तो झगड़ा ही बढ़ता है। इसलिए एक मात्र उपाय आत्म विश्लेषण द्वारा आत्म संशोधन ही है। प्रजातंत्र की परिपक्वता इसी बात पर निर्भर करती है कि राजनीतिक दल और मतदाता कितना जनहितकारी संयम बरत सकते हैं। तर्क-वितर्क में एक-दूसरे को झूठा साबित कर लेना तो वाकपटुता से संभव हो जाता है, किंतु दीर्घकालीन राष्ट्र हित का मूल्यांकन जब इतिहास करेगा, तो हम देखेंगे कि क्षुद्र स्वार्थों के लिए राष्ट्र हितों की कुर्बानी की गाथा लिखी जाएगी…

राजनीति का मुख्य लक्ष्य एक सभ्य, समृद्ध, प्रगतिशील और सुख-शांति से रहने वाले समाज की रचना करना माना गया है। सभी राजनीतिक विचारधाराएं कमोबेश इस लक्ष्य को मानने का दावा भी करती रहती हैं। सभ्यता के विकास के लिए सुख, शांति, समृद्धि और प्रगतिशीलता की स्थिति का निर्माण करने के लिए कानून व्यवस्था की स्थापना और बाह्य हमलों से रक्षा कार्य को राजनीति का बुनियादी कर्त्तव्य माना गया है। आंतरिक और बाह्य सुरक्षा की स्थिति के निर्माण के बाद ही मानव मन आश्वस्त होकर मानव सभ्यता के विकास के लिए कार्य करने और सतत प्रयासशील बने रहने की फुर्सत पाता है और प्रेरित होता है। इसी भावना से अनुप्राणित होकर मानव समाज कबीलाई व्यवस्थाओं, राणाशाही, राजशाही, विशाल साम्राज्यों, एक दलीय तथाकथित प्रजातंत्रों और बहुदलीय प्रजातंत्रों की व्यवस्था तक की यात्रा करते हुए आगे बढ़ता जा रहा है। अभी तक बहुदलीय प्रजातंत्र से बेहतर शासन व्यवस्था दृष्टिगोचर नहीं हो रही है। इसलिए जमीनी स्तर तक प्रजातंत्र के विस्तार की दिशा में समाज बढ़ रहा है। भारतवर्ष ने अपनी आजादी के समय संसदीय प्रजातंत्र प्रणाली का वरण किया। अलग विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की व्यवस्था की गई। उनमें से कोई तानाशाही प्रवृत्ति न अपना ले, इसलिए शक्ति संतुलन की व्यवस्था की गई। इसके अंतर्गत कानून निर्माता और कार्यपालिका का संचालन करने वाली व्यवस्था का हर पांच वर्ष बाद चुनाव होता है और इन दोनों अंगों की निगरानी स्वतंत्र न्यायपालिका करती है, ताकि विधायिका और कार्यपालिका संविधान का अतिक्रमण न करें। प्रजातंत्र में कानून का शासन होता है और कानून से ऊपर कोई नहीं होता है। सारी व्यवस्था ठहराव का शिकार होकर काल बाह्य न हो जाए, इसलिए संविधान में संशोधन करने की व्यवस्था की गई है।

विभिन्न विचारधाराओं में विश्वास करने वाले राजनीतिक दल हर पांच वर्ष में चुनाव में उतर कर जनमत प्राप्त करने का अवसर पाते हैं और जनता भी अपनी रुचि के अनुसार राजनीतिक दल को चुनने का अवसर पाती है। शांतिपूर्ण तरीके से सत्ता का हस्तांतरण होता रहता है, जिससे आंतरिक शांति और कानून व्यवस्था बने रहने में मदद मिलती है। राजनीतिक दलों में यह होड़ रहती है कि वे अधिक से अधिक वोट प्राप्त करने के लिए जनहित के कार्यों पर अधिक से अधिक ध्यान दें। यह व्यवस्था धीरे-धीरे किंतु सुनिश्चित तौर पर कार्य करती है। कहा जा सकता है कि यह आदर्श राजनीतिक व्यवस्था नहीं है, किंतु अभी तक इससे बेहतर भी कुछ सामने आया नहीं है। अन्य सभी प्रणालियों में शासक प्रजा पर नियंत्रण रखता है। किंतु प्रजातंत्र ने स्थिति को उलट दिया है। इसमें प्रजा भी शासक पर नियंत्रण करती है। इस कारण मनमानी और अन्याय की संभावना कम होती जाती है। जनता की क्रियाशीलता के अधिकतम उपयोग के कारण शासन की पहल के अलावा भी बहुत कुछ होता रहता है। यह आदर्श स्थिति है, इसके लिए राजनीतिक दलों और प्रजा दोनों को ही अपनी जिम्मेदारियों को सजगता से निभाने का प्रयास करते रहना होता है। तात्कालिक स्वार्थों से ऊपर उठ कर भी सोचना होता है। सरकारों की सोच होती है कि उनकी बात ज्यादा से ज्यादा मानी जाए और प्रजा की सोच होती है कि उसे अधिक से अधिक स्वतंत्रता प्राप्त हो। सरकार अपनी बात पर तर्कहीन आग्रह करेगी, तो तानाशाह बन जाएगी और प्रजा अत्यधिक स्वतंत्रता का दुराग्रह करेगी, तो स्वछंद हो जाएगी। इसलिए न तो सरकार को तानाशाह बनने की छूट दी जा सकती है और न ही प्रजा को स्वछंद बनने की। तानाशाही प्रजा की स्वतंत्र रचनात्मकता को नष्ट कर देती है। इसलिए दूरगामी तौर पर प्रतिगामी ही साबित होती है और मानवीय विकास को अवरुद्ध करती है। इसी तरह स्वछंदता आंतरिक और बाह्य सुख-शांति को नष्ट करने वाली हो जाती है और मानव विकास को अवरुद्ध करती है। इसलिए दोनों पर कोई वैचारिक अंकुश लगाया जाना चाहिए, ताकि कानून की सीमा का आदर करना दोनों पक्ष सीख सकें। वैचारिक दृष्टि से ठीक और गलत में भेद करने के लिए कोई तो मापदंड होना चाहिए। गांधी जी ने इसके बारे में कहा था कि ‘ऐसी दुविधा की स्थिति में हमें यह देखने का प्रयास करना चाहिए कि मेरे इस काम का सबसे अंतिम आदमी पर क्या असर होगा’। यदि अच्छा असर होने की संभावना हो तो काम ठीक है, वरन गलत है। स्वामी विवेकानंद ने भी एक मापदंड दिया, उन्होंने कहा कि ‘जिस काम से समाज जुड़ने की ओर बढ़े, तो समझो कि काम ठीक है और जिससे समाज में भेद पैदा हो, तो समझ लो कि यह कार्य गलत है’। यह मापदंड अध्यात्मिक और सामाजिक दोनों ही दृष्टियों से ठीक साबित होता है। संविधान निर्माता बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर ने इस बात को समझा था कि समाज में कई टकराव बने रहते हैं और सरकारों की सोच की भी सीमाएं रहना स्वाभाविक है, जिससे सरकारों के साथ भी टकराव की स्थितियां आ सकती हैं। इसलिए संवैधानिक उपचार का अधिकार मौलिक अधिकार बनाया गया, ताकि कम से कम किसी के भी मौलिक अधिकारों के उल्लंघन की किसी को भी इजाजत न हो, फिर चाहे सरकार ही इस उल्लंघन की दोषी क्यों न हो। उन्होंने तो यहां तक कहा कि अहिंसक सत्याग्रह की आवश्यकता भी प्रजातंत्र में नहीं पड़नी चाहिए। हिंसक संघर्ष की तो प्रजातंत्र में कोई जगह ही नहीं है, किंतु दुर्भाग्य से प्रजा हर छोटी-मोटी बात पर संवैधानिक या कानूनी उपचार के बजाय आंदोलन की राह पकड़ती है और आंदोलन ज्यादातर हिंसक होने की प्रवृत्ति लगातार बढ़ती ही जा रही है। पिछले कुछ वर्षों में हिंसक आंदोलन आम बात हो गई है। यहां तक कि तथाकथित धार्मिक संगठन भी अपनी बात हिंसा से कहने लगे हैं। कोई धर्म हिंसा नहीं सिखाता है और यदि सिखाए तो वह धर्म के आसन से पतन की ओर जाने का मार्ग बन जाता है। जोड़ने की राजनीति करने के बजाय फूट डालो और राज करो की अंग्रेजी नीति अभी तक अधिकांश राजनीतिक दलों का हथकंडा बनी हुई है। जाति, धर्म, संप्रदाय, क्षेत्रवाद, भाषा के नाम पर भेदवादी राजनीति चल रही है। कई बार ऐसा अपने छोटे-छोटे स्वार्थों के लिए किया जाता है या अपनी कार्यक्षमता की कमी को छुपाने के लिए भी किया जाता है। सबसे ज्यादा फूट डालने का कार्य तो वोट बैंक राजनीति के चलते ही हो रहा है। हर दल इस मामले में झूठ बोलता है किंतु अंदर से कुछ न कुछ फूट डालो और राज करो की अंग्रेजी शिक्षा पर आज भी चलता ही है। कुछ दल तो दूसरों पर जितने जोर से सांप्रदायिक होने का लेबल चिपकाते रहते हैं, खुद उतना ही फूट तंत्र का लाभ उठाने से नहीं चूकते हैं। फूट ही हिंसक वातावरण बनाने वाला कारक तत्त्व है। इस बात को यदि बहस में डाला जाए, तो झगड़ा ही बढ़ता है। इसलिए एक मात्र उपाय आत्म विश्लेषण द्वारा आत्म संशोधन ही है। प्रजातंत्र की परिपक्वता इसी बात पर निर्भर करती है कि राजनीतिक दल और मतदाता कितना जनहितकारी संयम बरत सकते हैं। तर्क-वितर्क में एक-दूसरे को झूठा साबित कर लेना तो वाकपटुता से संभव हो जाता है, किंतु दीर्घकालीन राष्ट्र हित का मूल्यांकन जब इतिहास करेगा, तो हम देखेंगे कि क्षुद्र स्वार्थों के लिए राष्ट्र हितों की कुर्बानी की गाथा लिखी जाएगी और उसके गुनहगार ऐतिहासिक न्याय से बच नहीं पाएंगे।

अपने सपनों के जीवनसंगी को ढूँढिये भारत  मैट्रिमोनी पर – निःशुल्क  रजिस्ट्रेशन!


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App