विष्णु पुराण
अंगुष्ठाददक्षः पूर्व जायो मया श्रुतः।
कथ प्राचेतसो भयः समुत्पन्नो महामुने।।
एष मे संशये ब्रह्मन्सुमहान्हृदि वर्त्तते।
ददयौहित्रश्च गोमस्य पुनः श्वशूरतां गतः।।
उत्पत्तिश्च निरधश्च नित्यो भतेष सर्वदा।
ऋषयोऽत्र न मुह्मन्सि से चान्ये दिव्यचक्षुषः।।
युगे युगे भवन्त्येते दक्षाद्या मुनिसत्तमः।
पुनश्चैव निरुद्धयात्ते विद्वस्तित्र न मुपह्यति।।
कानिष्ठयं ज्येष्ठयंमप्येषां पूर्वे नाभूद्द्विजोत्तम।
तप एव गरीयोऽभूत्प्रभावश्चैव कारणम्।।
देवानां दानवानां गन्धर्वोंरगरक्षसाम्।
उत्पत्ति विस्तरेणेह मम ब्रह्मन्प्रकोर्त्तय।।
श्री मैत्रेयजी ने कहा, हे महामुने! दक्ष की उत्पत्ति तो ब्रह्माजी के दाएं अंगूठे से सुनी जाती हैं, फिर उनकी उत्पत्ति प्रचेताओं से किस प्रकार हुई। हे ब्राह्मण! वह चंद्रमा के देवता होकर उनके श्वसुर कैसे हो गए यह शंका मेरे मन में उठी हुई है। श्री पराशरजी ने कहा, हे मैत्रेय! जो प्राणियों के जन्म और मरण निरंतर होते रहते हैं। इसलिए इस विषय में द्रव्य द्रष्टा ज्ञानियों को मोह नहीं होता। हे मुनिवर! यह दक्ष आदि युग में उत्पन्न होकर लीन हो जाता है। इसमें संदेह का कोई कारण नहीं है। पूर्वकाल में इनमें किसी प्रकार छोटे-बड़े का भेद नहीं था। उसे तो तपस्या और प्रभाव से मनुष्य वरीयता प्राप्त होती थी। श्री मैत्रेयजी ने कहा , हे ब्राह्मण! अब आप देवता, दानव, गंधर्व, नाग, राक्षस आदि की उत्पत्ति का वृत्तांत मुझे विस्तार पूर्वक बताइए।
प्रजा सृजेति व्यदिष्टः पूर्व दक्षः स्वयम्भुवा।
यथा समज भूतानि तथा शृणु महामुने।।
मानसान्येव भूतानि पूर्व दक्षऽसृजत्तदा।
देवानृषोन्सगंधर्वानसुरान्पन्नगास्तथा।।
यदारस सृजामानस्य न व्यवधंत ताः प्रजाः।
ततः सञ्चिन्त्य स पुनः सृष्टि हेतोः प्रजापतिः।।
मैथुनेनैव धर्णेव सिसृक्षु विविधाः प्रजाः।
अ सन्कीमावहत्क यां बीरणस्य प्रजापतेः।
सुत्तां सुतपसायुक्तां महती लोकधारिणीम्।।
अथ पुत्रसहस्राणि वैरुण्यां पंच वीर्यवान।
असिक्न्यां जरयामास सगहेतोः प्रजापतिः।।
तांदृष्टवा नारदो विप्र सविवद्धं प्रषूंप्रजाः।
सङ्गम्य प्रियसावादो देवर्षिरिदमब्रवीत।।
हे हयश्वा महावीर्याः प्रजा यूयं कारष्यथ।
ईदशो दृश्यते यत्नो भवता श्रूयतामिदम।।
बालिशा गत यूयं वै नास्या जानीत वै भुवः। अंतरुर्ध्वमधश्चैव कथा सृक्ष्यथ वै प्रजाः।। ऊर्ध्व तिर्यगवश्चैव यदाप्रतिहता गतिः। तदा कस्माद्भुवो नान्त सर्वे द्रक्ष्यथ वालिशः।। ते तु तद्वचन श्रुत्वा प्रयाताः सर्वतो दिशम। अद्यापि नो निवर्तन्ते समुद्रेभ्य इवापगाः।।
श्री पराशर जी ने कहा, हे महामुने! स्वयंभू भगवान ब्रह्माजी द्वारा प्रजा उत्पन्न करने की आज्ञा प्राप्त कर दक्षने पहले जिस प्रकार प्राणियों को रचा, उसे सुनो। उस समय क्रम से ऋषि, गंधर्व असु, सर्प आदि मामसी सृष्टि की दक्ष ने रचना की। परंतु जब इस प्रकार प्रजा की वृद्धि नहीं हुई, तो उन्होंने मैथुनी सृष्टि के विचार से बीरण प्रजातिकी अत्यंत तपस्विनी कन्या अक्सिनी पाणिग्रहण किया। इसके बाद उन्होंने अपनी भार्या अक्सिनी के गर्भ से पांच हजार पुत्र उत्पन्न किए। उस सबको प्रजोत्पत्ति की इच्छा वाला देखकर नारद जी ने उनके पास जाकर इस प्रकार कहा, हे हर्यश्वगण! मुझे लगता है कि आप प्रजा उत्पन्न करने के इच्छुक हैं, इसलिए बात सुनो। तुम अभी पृथिवी का मध्य, ऊर्ध्व और तल भाग को नहीं जानते, तो प्रजोत्पति किस प्रकार करोगे। जब तुम उस ब्रह्मांड में ऊपर- नीचे इधर, उधर सर्वत्र अबोध गति वाले हो, तुम्हें पथ्वी का अंत क्यों नहीं दिखाई देता। नारदजी की बात सुनकर वे सब विभिन्न दिशाओं को चले गए तथा जैसे समुद्र मिली हुई नदियां का पुनःवर्तन नहीं होता।
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