शहरी इंडिया न खेती, न किसानों का

By: May 16th, 2018 12:10 am

देवेंद्र शर्मा

लेखक, कृषि विशेषज्ञ हैं

पब्लिक डिबेट का इतना धु्रवीकरण हो गया है कि बाढ़ और सूखे समेत हर मुद्दे को राजनीतिक रुझान के नजरिए से देखा जाने लगा है। अब तो बाजार की अर्थव्यवस्था भी धर्म का अंग बन गई है। जो इस पर विश्वास रखते हैं, वे राष्ट्रीयकृत बैंकों के कारपोरेट डिफाल्ट्स का भी समर्थन करने के लिए तैयार हैं। यहां तक कि आर्थिक सलाहकार ने भी कह दिया कि कारपोरेट ऋण की माफी आर्थिक विकास का हिस्सा है, जबकि किसानों की ऋण माफी से ऋण अनुशासनहीनता बढ़ती है और राष्ट्रीय बैलेंस शीट खराब होती है…

हम सब जानते हैं कि हम ऐसे देश में रहते हैं जो इंडिया और भारत में बंटा हुआ है। इंडिया मेट्रोपोलिस शहरों में रहता है, जिसमें छह लेन के राजमार्ग हैं, गगनचुंबी इमारतें हैं, महंगी कारें हैं और जाने क्या-क्या है, जबकि भारत 6.40 लाख गांवों में रहता है जहां धूल भरी सड़कें हैं, जहां ट्रैक्टर और बैलगाडि़यों के साथ कई हजार गरीब लोग हैं जो अधिकांशतः किसान हैं, दिखते हैं। आप पूछेंगे कि मैं इंडिया और भारत की बात क्यों कर रहा हूं। आखिरकार हम सभी इंडिया और भारत के बीच की गहरी खाई से भलीभांति परिचित हैं। मैंने यह विषय इसलिए उठाया क्योंकि मुझे लगता है कि शहरी इंडिया और ग्रामीण भारत के बीच बहुत दूरी है। दोनों एक-दूसरे को नहीं समझते हैं और यह खाई बढ़ती ही जा रही है। शहरों में रहने वाले लोग ग्रामीण परिवेश से बहुत दूर होते चले गए हैं। उन्हें गांव की जीवनशैली का जरा भी आभास नहीं है। उन्हें लगता है कि ग्रामीण भारत एक तरह से अलग ही देश है-अफ्रीका जितना दूर। यहां तक कि अब बालीवुड भी भारत की बात नहीं करता है। कभी-कभी तो मुझे घिन आने लगती है। जब भी मैं किसानों द्वारा आत्महत्याओं के मामलों में इजाफे के बारे में ट्वीट करता हूं, मुझे चौंकाने वाले ही नहीं, बल्कि भयावह उत्तर मिलते हैं। कुछ लोग लिखते हैं कि इन लोगों को तो यूं भी मर ही जाना चाहिए, क्योंकि ये देश पर भार हैं, कुछ कहते हैं कि किसान पैरासाइट हैं, जो देश का खून चूस रहे हैं। कई कहते हैं कि किसान सरकार की खैरात पर जिंदा हैं और उन्हें उद्यमिता न अपनाने की कीमत तो चुकानी ही होगी।

संवेदना की ये कमी इतनी ज्यादा है कि सोशल मीडिया पर मुझसे बात करने वाले कई लोग कहते हैं कि मुझे किसानों के बारे में बात करनी ही बंद कर देनी चाहिए और आर्थिक उन्नति कर रही शहरी जनसंख्या पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए। जब मैं उत्तर-पूर्वी क्षेत्र के बाढ़ प्रभावित किसानों की बात करता हूं या मध्य और दक्षिण भारत में सूखे से जूझ रहे किसानों का मुद्दा उठाता हूं तो उन लोगों को कतई दुख नहीं पहुंचता है। जब कीमतें गिरती हैं, जब किसान सड़कों पर टमाटर फेंक देते हैं, जब किसान कीमतें गिरने के कारण हृदयघात से मर जाते हैं या आत्महत्या कर लेते हैं तो मुझे कहा जाता है कि ग्रामीण भारत में तो ये सामान्य घटनाएं हैं, मुझे इनके बारे में इतना लिखने की आवश्यकता नहीं है। जब मैं इस प्रकार की बातों को सुनता हूं तो मुझे ये चिंता सताती है कि शहरी इंडिया और किसानों के बीच इतनी दूरी कैसे हो गई? किसानों के नेताओं ने क्यों इस दूरी को इतना बढ़ने दिया, क्यों नहीं ऐसा कुछ किया कि शहर के लोग गांवों के मुद्दों से जुड़े रहे। मेरे पास इसका उत्तर नहीं है, पर मुझे शिद्दत से लगता है कि शहरी लोगों से दूरी बढ़ने के लिए कहीं न कहीं किसान नेताओं को भी अपनी जिम्मेदारी स्वीकारनी होगी। क्यों किसानों ने अपने संघर्षों, अपनी तकलीफों को किसान समुदायों तक ही सीमित रखा, क्यों नहीं उन लोगों ने समाज के अन्य वर्गों तक अपनी बात पहुंचाने का प्रयत्न किया? स्कूलों और कालेजों की बात करें तो उन छात्रों के मन-मस्तिष्क में उन्हें दी जा रही शिक्षा में किसानों की कोई खास भूमिका नहीं है।

मात्र पाठ्यक्रम की पुस्तकों से उन्हें किसानों के बारे में टूटी-फूटी जानकारी मिलती है। क्यों नहीं छात्रों और किसानों के बीच सीधे बातचीत के सत्र रखवाए जाते हैं। वार्षिक महोत्सवों अथवा अन्य पाठ्येतर कार्यक्रमों में बिरले ही मैंने किसानों और छात्रों में बीच कोई विचार-विमर्श होते देखा है। युवाओं के लिए किए गए कार्यक्रमों में भी शहरी युवाओं पर ध्यान केंद्रित रहता है, ग्रामीण युवक तो जैसे महत्त्वहीन हैं। हर बात शहरी भारत के बारे में होती है जैसे कि ग्रामीण भारत का कोई वजूद ही नहीं है। एक दिन मैं नई दिल्ली में एक निजी विश्वविद्यालय में व्याख्यान दे रहा था। मैंने पूछा कि आपमें से कितने लोग कभी गांव गए हैं। 60 लोगों से अधिक की क्लास में मात्र तीन हाथ ऊपर उठे। वे तीनों भी किसी शादी में गांव या तहसील मुख्यालय गए थे और एक अपनी मां के साथ अपने नाना-नानी से मिलने गांव गई थी। जब मैंने उनसे कहा कि उन्हें गांव तक पहुंचने के लिए नोएडा से मात्र 40 किलोमीटर बाहर जाना पड़ेगा तो उन्हें यह मजाक के रूप में भी अच्छा नहीं लगा। इन युवाओं के लिए उनका जीवन शहरों में सिमटा हुआ अच्छा था। वे शहरों में ही खुश थे। यही आज के शिक्षित युवा हैं जो किसी दिन नौकरशाही चलाएंगे अथवा किसी अंतरराष्ट्रीय कंपनी या किसी निर्णायक मंडल में अवस्थित होंगे। उन्हें 70 प्रतिशत आबादी युक्त ग्रामीण भारत के बारे में कुछ पता नहीं है। उन्हें क्यों दोष दें। आज के निर्णयकर्ता, जिनमें जाने-माने अर्थशास्त्री हैं जो आए दिन टीवी चर्चाओं में हाजिर होत हैं अथवा अंग्रेजी के अखबारों में नियमित कालम लिखते हैं, उनका भी गांवों से कोई सीधा नाता नहीं है। एक अर्थशास्त्री जो अब प्रधानमंत्री की परामर्शदात्री समिति के सदस्य हैं, उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस में एक आर्टिकल में किसानों के बारे में अपने तर्कों के समर्थन में यह कहकर मुझे भौंचक्का कर दिया कि उनकी जानकारी इसलिए पुख्ता है, क्योंकि उनकी पत्नी मशरूम की खेती कर रही है, अंशकालिक किसान है। खेती के बारे में उनकी जानकारी केवल वहीं तक सीमित थी, जितनी उनकी पत्नी ने उन्हें दी थी जो खुद शहरी समृद्ध वर्ग से ताल्लुक रखती थी और शौकिया तौर पर मशरूम की खेती करती थी। बात यहीं खत्म नहीं होती है। जब भी मैं कृषि संकट और किसानों द्वारा आत्महत्या में बढ़ोतरी की बात करता हूं, ट्रोल मुझसे पूछते हैं कि क्या कांग्रेस के समय पर आत्महत्याएं नहीं हो रही थीं? जब मैं किसानों पर सूखे की मार की बात करता हूं तो मुझसे पूछा जाता है कि क्या बारिश न आने के लिए नरेंद्र मोदी जिम्मेदार हैं?

पब्लिक डिबेट का इतना धु्रवीकरण हो गया है कि बाढ़ और सूखे समेत हर मुद्दे को राजनीतिक रुझान के नजरिए से देखा जाने लगा है। अब तो बाजार की अर्थव्यवस्था भी धर्म का अंग बन गई है। जो इस पर विश्वास रखते हैं, वे राष्ट्रीयकृत बैंकों के कारपोरेट डिफाल्ट्स का भी समर्थन करने के लिए तैयार हैं। यहां तक कि आर्थिक सलाहकार ने भी कह दिया कि कारपोरेट ऋण की माफी आर्थिक विकास का हिस्सा है, जबकि किसानों की ऋण माफी से ऋण अनुशासनहीनता बढ़ती है और राष्ट्रीय बैलेंस शीट खराब होती है। प्रतिवर्ष कई सौ करोड़ के बैंक डिफाल्ट्स के बारे में यदि आप तथ्यपरक बहस करो तो वे आपको सीधे-सीधे कम्युनिस्ट भी कह सकते हैं और नहीं तो सोशलिस्ट का तमगा तो दे ही डालेंगे। इतनी चतुराई से इस प्रकार की बातें लोगों के मन में बैठाई गई हैं। क्या ये खाई कभी दूर हो पाएगी?

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