श्रीयंत्र की उपासना संपूर्ण की उपासना

By: May 12th, 2018 12:05 am

पांच शिव त्रिकोण और चार शक्ति त्रिकोण अर्थात नौ त्रिकोण और बिंदु, एक से नौ तक की संख्या और बिंदु अर्थात शून्य, नौ और फिर शून्य, इस नौ और शून्य में संपूर्णता है। इसलिए कहा जाता है कि श्रीयंत्र की उपासना संपूर्ण की उपासना है। स्वर और व्यंजन 50 वर्ण हैं और संपूर्ण वैखरी वाणी (संपूर्ण भाषाएं) इन पचास वर्णों का ही विकास है…

-गतांक से आगे…

मूल रूप अंतर में विद्यमान है तथा आंतरिक है, वही बिंदु है। श्रीयंत्र में आविर्भाव से तिरोभाव और तिरोभाव से आविर्भाव एवं सृष्टि-स्थिति और प्रलय तीनों दशाओं की व्याख्या है।श्रीयंत्र की रचना अत्यंत जटिल है। इसमें त्रिकोण से चतुर्दशार पर्यंत जो पांच अवयव हैं, वे परस्पर इस तरह अनुस्यूत हैं कि इसमें कई अवांतर कोण और रेखाएं बन जाती हैं। चतुर्दशार के जो कोण हैं, उनकी भी नोकें षोडशदल से और षोडशदल की प्रथम वृत्त से मिलती हैं। रचना के इस स्वरूप के कारण कई कोष्ठ और कोण बन जाते हैं, जिनको स्पंदीचक्र कहा जाता है। पांच शिव त्रिकोण और चार शक्तित्रिकोणों के मिलने से तैंतालीस कोण बन जाते हैं। 28 मर्म स्थान (तीन रेखाओं के मिलने के स्थान) तथा चौबीस संधियां (दो रेखाओं के मिलने के स्थान) हैं। पांच शिव त्रिकोण और चार शक्ति त्रिकोण अर्थात नौ त्रिकोण और बिंदु, एक से नौ तक की संख्या और बिंदु अर्थात शून्य, नौ और फिर शून्य, इस नौ और शून्य में संपूर्णता है। इसलिए कहा जाता है कि श्रीयंत्र की उपासना संपूर्ण की उपासना है। स्वर और व्यंजन 50 वर्ण हैं और संपूर्ण वैखरी वाणी (संपूर्ण भाषाएं) इन पचास वर्णों का ही विकास है।

आप सब कुछ कह दें, वह सब कुछ मात्र वैखरी ही होगा, किंतु श्रीविद्या तो फिर वैखरी के आगे मध्यमा, पश्यंती और फिर परा है। जिस प्रकार बिंदु से ही समस्त रेखाएं और कोण बनते हैं, उसी प्रकार मूल तत्त्व से इस ब्रह्मांड की सृष्टि होती है। श्रीयंत्र भगवती श्रीविद्या (त्रिपुरसुंदरी) का उपासना-स्थान है, दिव्यधाम है, दिव्यरथ है और नंदनवन तथा रासस्थान एवं मणिद्वीप है। इस यंत्र में एक सौ तिरेपन देवताओं का अधिष्ठान है। बिंदु के चारों ओर षडंग युवतियां, महात्र्यस्त्र रेखाओं में षोडशनित्या, पृष्ठभाग में दिव्य सिद्ध और इसी के साथ त्रैलोक्यमोहन सर्वाशापरिपूरक, सर्वसंक्षोभण, सर्वसौभाग्यदायक, सर्वरक्षाकर, सर्वरोग-हर, सर्वसिद्धप्रद तथा सर्वानंदमय चक्रों में क्रमशः 28 प्रकट, सोलह गुप्त, आठ गुप्तचर, चौदह संप्रदाय, दस कुलकौल, दस निगर्भ, आठ रहस्य, आठ अति रहस्य तथा एक परापर रहस्ययोगिनी है। नौ आवरणों के नौ चक्रेश्वर हैं। श्रीयंत्र सोम-सूर्यानलात्मक है और गणना से बारह आदित्य, बारह सूर्यकला, बारह ऋषि, तीन वेद और स्वर-ये तैंतालीस सौरकला हैं। चंद्रगणना से सोलह चंद्रकला, सत्ताईस नक्षत्र का योग अर्थात तैंतालीस सोमकला हैं। त्रिकोण अग्नि का प्रतीक, चतुर्दशार के चौदह भुवन, बहिर्दशार की दस अग्नि विभूति, अंतर्दशार अग्नि की दस कला अष्टकोण में आठ मूर्ति हैं। इस प्रकार अग्नि-कला भी तैंतालीस हैं। भावनोपनिषद् में श्रीयंत्र का प्रतिपादन निम्न प्रकार से किया गया है ः (यहां संस्कृत में जो कुछ कहा गया है, उसका हम हिंदी अनुवाद ही पेश करेंगे।) अर्थात समस्त क्रियाओं की कारणभूता शक्ति ही गुरु है। शरीर में जो नवरंध्र हैं, वे नौ गुरु हैं। मुख्यतः एक मुख और दो कान दिव्यौघ गुरु, दो नाक छिद्र और उपस्थ सिद्धौघ, नेत्र और पायु ये तीन मानवौघ गुरु हैं।             -क्रमशः

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