श्री विश्वकर्मा पुराण

By: May 19th, 2018 12:05 am

उस उपदेश को तू निरंतर रटता  हुआ प्रभु की तन्मयता का अनुभव करेगा, तब थोड़े समय में ही तुझको उनके स्वरूप का ज्ञान प्राप्त होगा और उन कृपालु भगवान के तू दर्शन कर सकेगा। प्रभु के आकार स्वरूप के दर्शन पाकर उनके स्वरूप को भी प्राप्त कर सकेगा। इस प्रकार से उस राजा को उपदेश देकर नारद जी वहां से अंतर्ध्यान हो गए, नारद जी के चले जाने के बाद चित्रकेतु अत्यंत भावना पूर्वक महाविद्या का स्मरण करने लगा…

मनुष्य पशु और पक्षी वगैरह समस्त चैतन्य सृष्टि वास्तव में देखो तो जड़मत ही है और कृपालु परमात्मा चैतन्य का अंश मात्र। उसमें प्रवेश होते ही ये सब अपने को चैतन्य रूप दिखता है और इस प्रकार के इस चैतन्य के ही आश्रय से ये देह सब इंद्रियों को व्यापार रूप सब कार्य करने के लिए शक्तिशाली बनाती है। जिस प्रकार से किसी भी वस्तु को जलाने के लिए तथा उसका रूपांतर करने के लिए उस वस्तु के ऊपर जरूरी प्रतिक्रयाएं करना आवश्यक होता है। उसी प्रकार से यह देह अथवा उसकी इंद्रियों को उसका काम करने के लिए शक्ति देने वाले ऐसे प्रभु ने चैतन्य तत्त्व को खास रखा है। इस आवश्यकता को पूर्ण करने वाले परम चैतन्य स्वरूप हे प्रभु मैं आपको नमस्कार करता हूं। सब महान पुरुषों से भी महान और अनेक विभूतियों का सर्जन करने वाले, सब विभूतियों के अधिपति के समान जिनकी सब देवता भी वंदना करते हैं। नारदजी बोले, हे चित्रकेतु राजा इन परम कृपालु परमात्मा ही महाविद्या का मैंने तुमको उपेदश दिया है। उस उपदेश को तू निरंतर रटता हुआ प्रभु की तन्मयता का अनुभव करेगा, तब थोड़े समय में ही तुझको उनके स्वरूप का ज्ञान प्राप्त होगा और उन कृपालु भगवान के तू दर्शन कर सकेगा। प्रभु के आकार स्वरूप के दर्शन पाकर उनके स्वरूप को भी प्राप्त कर सकेगा। इस प्रकार से उस राजा को उपदेश देकर नारद जी वहां से अंतर्ध्यान हो गए, नारद जी के चले जाने के बाद चित्रकेतु अत्यंत भावना पूर्वक महाविद्या का स्मरण करने लगा। इस महाविद्या के प्रभाव से भगवान ने उसको विद्याधर की पदवी दी तथा सब विद्याधर गंधर्वों का अधिपति बनाया तथा विराट भगवान ने उसको अपने प्रत्यक्ष दर्शन दिए। प्रभु ने कहा, हे चित्रकेतु! तू जो इस प्रकार से मुझ में मग्न होकर स्मरण करेगा, तो महान सिद्ध की पदवी को प्राप्त करेगा तथा शीघ्र ही मेरे पद को प्राप्त करेगा। इतना कह वह प्रभु वहां से अंतर्ध्यान हो गए। प्रभु की कृपा से विद्याधर की पदवी को पाया हुआ वह चित्रकेतु आकाश में अनेकों गंधर्वों की स्त्रियों तथा अप्सराआंे के साथ घूमने लगा, प्रभु के गुणगान करने में प्रीति वाला अति अनादि में मग्न रहकर यहां-वहां घूमने लगा। एक समय से चित्रकेतु आकाश मार्ग से घूमता हुआ भगवान शंकर के धाम कैलाश में आ पहुंचा। उस चित्रकेतु ने वहां पर शंकर भगवान माता पार्वती को विहार करते देखा, तो उसको सहन न हुआ और वह भगवान शंकर को उपदेश देने लगा। उसके उपदेश को सुन शंकर तो मात्र हंसे ही परंतु पार्वती से वह सहन न हो सका इससे उन्होंने चित्रकेतु को श्राप दिया और कहा हे दुष्ट! तुझको ऐसा अभिमान हुआ कि तू ही सबसे बड़ा है, तेरे इस अभिमान से मैं तुझे श्राप देती हूं कि तू असुरों की योनि में जन्म धारण करेगा। पार्वती का श्राप सुनते ही वह विद्याधर कुछ भी बोले बिना शंकर तथा पार्वती को प्रणाम करके वहां से चला गया। सूतजी बोले, हे ऋषियो! पार्वती के श्राप को धारण कर वह चित्रकेतु कैलाश से चला गया तथा अपने को मिले हुए श्राप को भोगने के योग्य समय की राह देखता हुआ हिमालय की एक गुफा में निरंतर प्रभु का स्मरण करने लगा तथा प्रभु से प्रार्थना करने लगा कि माता पार्वती का दिया हुआ श्राप भोगने के लिए मुझे आपका बल प्राप्त हो।

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