स्पष्ट है कर्नाटक का फैसला

By: May 21st, 2018 12:10 am

कुलदीप नैयर

लेखक, वरिष्ठ पत्रकार हैं

चुनाव पूर्व का गठबंधन चुनाव बाद के गठबंधन से ज्यादा मान्य होता है। अब कर्नाटक का मामला देखें तो चुनाव बाद का गठबंधन भाजपा की ताजपोशी के आड़े आ गया है। इसके बावजूद इस गठबंधन को बेदखल नहीं किया जा सकता, क्योंकि उसके पास स्पष्ट बहुमत है। वर्तमान स्थितियों में होना यह चाहिए कि विधानसभा का अधिवेशन बुलाया जाए, प्रोटेम स्पीकर नियुक्त किया जाए, सभी सदस्यों को शपथ दिलाई जाए तथा सत्ता के दावेदार दोनों पक्षों को अपना-अपना बहुमत साबित करने को कहा जाए। इसमें जो भी पक्ष बहुमत साबित कर लेता है, उस पक्ष का मुख्यमंत्री बनाया जाना चाहिए…

कर्नाटक में जो विधानसभा चुनाव हुए हैं, उनमें लोगों ने कांग्रेस को सीधे निरस्त कर दिया है, इसके बावजूद तकनीकी रूप से वह पहले ही दिन जीत गई थी। 222 सीटों के लिए चुनाव हुए, जिनमें से चुनाव प्रक्रिया के दौरान कांग्रेस फिर भी 78 सीटें जीतने में कामयाब रही। कांग्रेस ने तुरंत फैसला करते हुए मात्र 38 सीटें जीतने वाले जनता दल (सेक्युलर) को बाहर से समर्थन देते हुए सरकार निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया। अंततोगत्वा कांग्रेस ने अपनी हार का प्रतिकार किया। इसके साथ ही पार्टी ने विधानसभा चुनाव में एकल सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी भाजपा, जिसने 104 सीटों पर जीत हासिल की, का पासा पलट कर रख दिया। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इतनी सीटें जीतने के बावजूद भाजपा सरकार के निर्माण में विफल रही। इस सौदेबाजी में यह एचडी देवेगौड़ा के नेतृत्व वाला जद (एस) है जिसे अनपेक्षित रूप से अप्रत्याशित लाभ मिला है। हालांकि लोकप्रिय फैसले के कारण भाजपा की सफलता से कोई इनकार नहीं कर सकता है। स्पष्ट रूप से यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तथा भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के कारण हो पाया। ये दोनों राज्य में भाजपा के दोनों गुटों यथा बीएस येदियुरप्पा गुट व बी श्रीरामुलू गुट को एकसाथ लाने में कामयाब रहे। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को भी संतोष महसूस करना चाहिए कि उम्मीदवारों के चयन में उसका मान रखा गया। यह पहली बार है कि उत्तर भारत की पार्टी मानी जाने वाली भाजपा ने विंध्यांचल को पार करते हुए दक्षिण में अपना जनाधार साबित किया है। इन चुनावों का प्रभाव आंध्र प्रदेश पर भी पड़ सकता है। जब भी वहां चुनाव होंगे, राज्य को विशेष दर्जा न मिलने के बाद चंद्रबाबू नायडू ने भाजपा से जो नाता तोड़ लिया है, उस स्थिति में ऐसी संभावना बनती है।

केरल को परंपरागत रूप से कम्युनिस्टों का गढ़ माना जाता है, जबकि तमिलनाडू में फिलहाल डीएमके व एआईडीएमके का प्रभाव दिखने को मिलता है। इन राज्यों में भाजपा को अपनी राह बनना मुश्किल होगा, हालांकि आगामी चुनाव को देखते हुए पार्टी ने वहां अपने प्रयास शुरू कर दिए हैं। जहां तक तेलंगाना का सवाल है, वहां मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव अपनी मजबूत स्थिति बनाए हुए हैं। इसके बावजूद अगर संपूर्ण परिदृश्य को देखें तो स्तिथियां पंथनिरपेक्ष दलों के विश्वास के अनुकूल नहीं हैं। अन्य दलों की अपेक्षा कांग्रेस इस बात को अच्छी तरह समझती है। यही कारण है कि पार्टी हाइकमान ने सरकार के निर्माण के लिए  एचडी कुमारस्वामी को पार्टी का समर्थन देने के लिए अपने दो बुजुर्ग नेताओं यथा गुलाम नबी आजाद तथा अशोक गहलोत को बंगलूर भेजा। इस प्रक्रिया में कांग्रेस, भाजपा को सत्ता से बाहर रखने में कामयाब रही। पार्टी के इस रुख की राह में जो एकमात्र रोड़ा साबित हो सकते थे, वह थे पूर्व मुख्यमंत्री तथा कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सिद्धारमैया।

इस बाधा को पार करने के लिए कांग्रेस ने पहले ही उन्हें मना लिया। जिस तरह भाजपा ने गोवा, मणिपुर व मेघालय में क्षेत्रीय दलों से गठजोड़ करते हुए तुरत-फुरत सरकारें बना लीं, उसी तरह कर्नाटक में कांग्रेस ने इस बार तेजी दिखाई। इन दोनों मिसालों में साम्य देखा जा रहा है। कर्नाटक में कांग्रेस ने जिस तरह सरकार बना ली, उसकी कल्पना शायद भाजपा ने नहीं की थी। इस आलेख को लिखने के समय तक गेंद अब राज्यपाल के पाले में थी। सब कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि वह क्या फैसला लेते हैं। परंपरा के अनुसार उन्हें एकल सबसे बड़ी पार्टी यानी भाजपा को सरकार बनाने के लिए बुलाना होगा तथा उसे अपना बहुमत साबित करने को कहना होगा। लेकिन हाल का अनुभव कुछ और ही बयां करता है। गोवा व मणिपुर में कांगे्रेस भी एकल सबसे बड़े दल के रूप में उभरी थी। हालांकि इन दोनों राज्यों में कांग्रेस को सरकार बनाने के लिए नहीं बुलाया गया। यह बात बिना किसी संदेह के स्पष्ट है कि कांग्रेस तथा जद (एस) के पास स्पष्ट बहुमत है। लेकिन यह कहना जरूरी होगा कि यह चुनाव बाद का गठबंधन है जिसकी शुचिता कम होती है। सामान्य रूप से यह विश्वास किया जाता है कि चुनाव पूर्व गठबंधन में नैतिकता होती है, जनता का समर्थन भी इसे होता है तथा सरकार निर्माण के लिए यह एक समुचित आधार भी होता है। इस तरह चुनाव पूर्व का गठबंधन चुनाव बाद के गठबंधन से ज्यादा मान्य होता है। अब कर्नाटक का मामला देखें तो चुनाव बाद का गठबंधन भाजपा की ताजपोशी के आड़े आ गया है। इसके बावजूद इस गठबंधन को बेदखल नहीं किया जा सकता, क्योंकि उसके पास स्पष्ट बहुमत है। एसआर बोम्मई मामले में कोर्ट ने साफ कहा था कि किसी दल की ताकत का फैसला राजभवन के बजाय विधानसभा में होना चाहिए। वर्तमान स्थितियों में होना यह चाहिए कि विधानसभा का अधिवेशन बुलाया जाए, प्रोटेम स्पीकर नियुक्त किया जाए, सभी सदस्यों को शपथ दिलाई जाए तथा सत्ता के दावेदार दोनों पक्षों को अपना-अपना बहुमत साबित करने को कहा जाए। इसमें जो भी पक्ष बहुमत साबित कर लेता है, उस पक्ष का मुख्यमंत्री बनाया जाना चाहिए। कांग्रेस के सामने स्थिति और भी संदेह से परे तथा आदर्श वाली तब होती अगर उसने चुनाव से पहले ही जद (एस) से गठबंधन कर लिया होता। अब जो स्थिति है, उसकी परिकल्पना न तो सिद्धारमैया, न ही कांग्रेस ने की होगी। पिछले तीन दशकों का कर्नाटक का इतिहास देखें, तो यहां एक बार सत्ता में आया दल लगातार दूसरी बार सत्ता में नहीं आया। निवर्तमान मुख्यमंत्री को सत्ता विरोधी सहज लहर का खामियाजा भी भुगतना पड़ा है। उनके शासन के पहले चार वर्षों का कुशासन जनता ने याद रखा। वे दो सीटों से चुनाव में उतरे, परंतु बड़ी मुश्किल से एक सीट ही बचा पाए। इस चुनाव का एक परिणाम यह भी रहा है कि कांग्रेस के शासन से एक और राज्य बाहर हो गया है। जबसे राहुल गांधी कांग्रेस के अध्यक्ष बने हैं, तब से लेकर पार्टी अपने प्रभुत्व वाले राज्यों को एक-एक करके खो रही है।

कांग्रेस के पास अब कोई दूसरा विकल्प नहीं है सिवाय इसके कि वह इस उच्च पद पर कोई नया चेहरा सामने लेकर आए। परंतु उनकी जगह कौन ले सकता है, इसका जवाब फिलहाल नहीं है तथा यह एक प्रश्न ही बना हुआ है। बेहतर यह होगा कि सोनिया गांधी स्वयं इस पद को दोबारा ग्रहण कर लें। उनका इटालियन होना अब मुद्दा नहीं रह गया है। अगर विकल्प को गांधी वंश तक ही सीमित रखना है, तो एक अन्य विकल्प प्रियंका वाड्रा हो सकती हैं। हालांकि पार्टी में कई अन्य चेहरे भी हैं जो इस पद के योग्य हैं, किंतु पार्टी गांधी-नेहरू वंश से इतनी हद तक जुड़ी है कि उसके बाहर का नेतृत्व पार्टी में स्वीकार्य ही नहीं होता। त्रासदी यह है कि भारत की जनता वंशवाद की अवधारणा से बाहर निकल चुकी है, किंतु कांग्रेस ने अभी तक अपनी सोच में बदलाव नहीं किया है। कर्नाटक चुनाव के जो नतीजे सामने आए हैं, उनका भारत की भावी राजनीति पर भी निश्चित रूप से असर होगा। हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश के सबसे लोकप्रिय राजनेता के रूप में उभरे हैं, किंतु उनके सहारे ही 2019 के आम चुनाव में भाजपा की संभावनाएं सुदृढ़ नहीं होती हैं।

ई-मेल : kuldipnayar09@gmail.com

अपना सही जीवनसंगी चुनिए| केवल भारत मैट्रिमोनी पर-  निःशुल्क  रजिस्ट्रेशन!


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App