हिमाचली पुरुषार्थ :  जनजातीय जिला किन्नौर के पहले पत्रकार बने भानु

By: May 30th, 2018 12:07 am

मोरार जी देसाई ने जब इंदिरा जी को जेल में ठूंसा तो उनका मन बहुत  विचलित हुआ। इंदिरा गांधी को जेल भेजे जाने के बाद क्षुब्ध होकर ही उन्होंने संपादक के नाम वह लंबा पत्र लिखा था। न इंदिरा जी एमर्जेंसी लगाती, न मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बन पाते, न इंदिरा गांधी को जेल भेजा जाता, न संपादक के नाम पत्र लिखते और न आज वह पत्रकार होते…

लंबे समय से असल पत्रकारिता को कायम रखकर लोकतंत्र का अलख जगाए रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार कृष्ण भानु प्रदेश में किसी पहचान के मोहताज नहीं हैं। आज भी उनकी लेखनी में वो धार वैसी ही कायम है जैसी पहले थी। वह शिमला प्रेस क्लब के कई साल तक प्रधान रहे, जिसके चलते पत्रकारों के साथ उनका अलग लगाव था। उन्होंने आठवीं तक मंडी जिला के गागल हाई स्कूल में पढ़ाई की। वहां दसवीं तक वर्दी के तौर पर सलेटी रंग का कमीज पायजामा चलता था। जबकि मंडी के विजय हाई स्कूल में वर्दी खाकी पेंट और सफेद कमीज होती थी। इसी कारण आठवीं पास करते ही घर में अल्टीमेटम दे दिया। नौवीं में मंडी स्कूल में डालो वर्ना नहीं पढूंगा। परिवार में सबसे छोटे थे, सब प्यार करते थे, इसलिए हार गए और शहर के स्कूल में भेज दिए गए। उनका पत्रकारीय जीवन अद्भुत रहा।  उनके पत्रकारिय जीवन में संघर्ष तो था ही साथ में रोमांच भी कम न था क्योंकि उन्होंने हमेशा अपनी शर्तों पर काम किया। नतीजतन कई बार अखबार भी बदलने पड़े। कुंठित होकर कहीं काम नहीं किया। बार-बार अखबार बदलने से माली हालत जर्जर बनी रही। फिर भी भानु जी ने समझौतावादी रुख कभी अख्तियार नहीं किया। कई बार, बार-बार टूटते रहे पर झुके नहीं। राष्ट्रीय सहारा के अतिरिक्त कोई अन्य अखबार तीन-चार साल से अधिक समय तक उन्हें अपने साथ न बांधे रख सका। वह न तो सम्पादकों की शर्तों पर नाचे न ही मालिकों के तबले पर कत्थक कर सके। राष्ट्रीय सहारा में कहने- लिखने की पूरी आजादी थी, इसलिए लगभग 12 वर्ष उसमें लगा दिए। यहीं शेष उम्र भी कट जाती लेकिन एक भावनात्मक घटना- दुर्घटना के कारण मई 2003 में शिमला आना पड़ा। राष्ट्रीय सहारा में शिमला में पद न होने के कारण दैनिक भास्कर ज्वाइन किया। 24 साल की उम्र में पत्रकारिता करने शिमला पहुंचे। अपने पत्रकार बनने का श्रेय वह पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी और स्व. मोरारजी देसाई को देते हैं। वह स्व. इंदिरा गांधी के हृदय से कायल थे। एमर्जेंसी खत्म होने के बाद चुनाव हुए तो जनता पार्टी की सरकार बनी और प्रधानमंत्री हुए मोरारजी देसाई जी। मोरार जी देसाई ने जब इंदिरा जी को जेल में ठूंसा तो उनका मन बहुत  विचलित हुआ। इंदिरा गांधी को जेल भेजे जाने के बाद क्षुब्ध होकर ही उन्होंने संपादक के नाम वह लंबा पत्र लिखा था। न इंदिरा जी एमर्जेंसी लगाती, न मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बन पाते, न इंदिरा गांधी को जेल भेजा जाता, न संपादक के नाम पत्र लिखते और न आज वह पत्रकार होते। इधर, उनके सगे भाइयों ने उन्हें नाकारा मान लिया था। कुछ करता नहीं, बस कुछ-कुछ लिखता रहता है, आखिर इसका होगा क्या। भाइयों ने मिलजुल कर गांव की सड़क के किनारे एक कमरे की किराने की दुकान खड़ी कर उन्हें लाला बना दिया। पर वह सात महीने दुकान में बैठने के बाद झूठ बोलकर 500 रुपए की नौकरी के लिए शिमला पहुंच गए। वर्ष 1978 की रक्षा बंधन की सुबह चार-साढ़े चार बजे उनके पिता की मृत्यु हो गई। उनके घर का यह सूर्य सुबह-सुबह ही अस्त हो गया था। बापू के निधन के एक महीने बाद ही भानु जी को बिजली बोर्ड में नौकरी मिल गई। सुंगरा (किन्नौर) में नौकरी ज्वाइन भी कर ली, लेकिन दिल पत्रकारिता में ही अटका रहा। गांव में थे तो बल्ह घाटी डेटलाइन से खबरें भेजा करते थे। इधर नौकरी भी करते रहे और सुंगरा डेटलाइन से किन्नौर की खबरें भी भेजने लगे। सब खबरें छप जाती थीं। इस तरह जनजातीय जिला किन्नौर में वह पहले पत्रकार हुए। 1979 में वीर प्रताप में प्रशिक्षु उप संपादक के लिए सूचना पढ़ी तो आवेदन भेज दिया। इंटरव्यू के लिए जालंधर बुलाया गया तो चल दिए। डेस्क पर इंटरव्यू लेने वाले हिमाचली थे। एक विश्व नाथ आचार्य जी और दूसरे जानकी नाथ शर्मा शांतल। स्वर्गीय शांतल जी आकाशवाणी शिमला के समाचार संपादक शिशु शर्मा  शांतल के पिता थे। निहायत शांत स्वभाव।  हिमाचल से इंटरव्यू के लिए वह इकलौते थे, इसलिए चुने गए।  चयन के बाद शर्त यह रखी गई कि ट्रेनिंग के छह महीने के दौरान धेला भी नहीं दिया जाएगा। उनके ऊपर पत्रकारिता का जुनून सवार था। किन्नौर की साल भर पुरानी सरकारी नौकरी को लात मार दी और जालन्धर पहुंच गए। वीर प्रताप के डेस्क पर ट्रेनिंग शुरू हुई तो अच्छा लगने लगा। साथ के सहयोगियों ने उन्हें बताया कि जालंधर में सिर्फ पत्रकारिता के सहारे गुजारा नहीं हो सकता। जैसे स्कूल के समय जिद की, उसी तरह इसके बाद एक और  जिद कर ली कि इस तरह तो जालंधर छोड़कर नहीं जाने वाले। छह महीने की ट्रेनिंग तो पूरी करेंगे ही, उसके बाद सोचेंगे कि क्या करना है। इसके बाद जीवन में कुछ ऐसी घटना घटी की वापस मंडी जाने की सोची। सोचा, यहां से चुपचाप भाग निकलेंगे। अगली सुबह वीर प्रताप के मालिक चंद्र मोहन जी से मिले। कहा, वापिस जाना चाहता हूं। वे सब जानते थे। वह मुस्कराए फिर बोले,बेहतर है। जाओ और मंडी जाकर वीर प्रताप संभालो। तुम डेस्क के लिए नहीं बने हो। वह चुपचाप खड़े रहे। कुछ पूछना चाहते थे, लेकिन हिम्मत नहीं जुटा पा रहा थे। चंद्र मोहन जी मन की बात ताड़ गए। बोले, जाओ। दिल से काम करना। तनख्वाह भी देंगे। ज्यादा तो नहीं दे पाएंगे पर देंगे जरूर। इस तरह वह वापिस मंडी लौट आए। पहले शौकिया पत्रकारिता करते थे, फिर सक्रिय पत्रकार बन गए।

 -शकील कुरैशी, शिमला

जब रू-ब-रू हुए…

आज की पत्रकारिता में बाजारवाद का दबाव…

जीवन में जो पत्रकारिता ने आकर लिखा, क्या कृष्ण भानु का यही अस्तित्व देखा जाएगा या तस्वीर में कुछ और रंग भी रहे?

जीवन में रंग तो बेहिसाब रहे। पत्रकारिता के अलावा भी जीवन में कई रंग घुलते मिटते रहे। जीवन अद्भुत रहा, अब भी है। रंग आते-जाते रहे, चढ़ते रहे, उतरते रहे। यह सिलसिला अंतहीन प्रतीत होता है। फिर सोचता हूं कि वह जीवन ही क्या जिसमें रंग ही न हों। बालपन में कौन पत्रकार बनने के सपने ले सकता है, वह भी उस युग में। इसलिए यह कैसे कह दूं कि बचपन से ही पत्रकारिता का शौक था।  हां, मोहम्मद रफी की तरह उच्च कोटि का गायक बनने के सपने जरूर पालने लगा था।

वीर प्रताप से सोशल मीडिया तक के सफर में अभिव्यक्ति की मूल आत्मा किस माध्यम से जुड़ती है?

वीर प्रताप, पंजाब केसरी (दिल्ली), हिमाचल टाइम्स देहरादून, राष्ट्रीय सहारा, अजित समाचार, दैनिक भास्कर और अमर उजाला में नौकरी की और जमकर लिखा। इलेक्ट्रॉनिक चैनल में भी बड़े पद पर रहते खूब हाथ आजमाए। अब सोशल मीडिया में भी सक्रिय हूं। सोशल मीडिया में लिखने का अपना ही आनंद है। खुद ही रिपोर्टर, खुद ही संपादक और खुद ही मालिक, कोई रोकने टोकने वाला नहीं। जो मन में आए लिख डालो और तुरंत ही पाठकों, मित्रों की प्रतिक्रियाओं का भी आनंद ले लो। किन्तु यह आनंद अखबार में छपने के आनंद की बराबरी नहीं करता।

कई संपादक देखे होंगे, तो आज के धरातल पर यह संस्था कमजोर क्यों हो गई?

यदि संपादक खत्म हो जाएगा तो अच्छा और सच्चा पत्रकार होने की उम्मीद कौन करे, कैसे करे। जैसे-जैसे सम्पादकों का स्तर गिरता गया वैसे वैसे पत्रकारों का स्तर भी गिर गया। यहां पत्रकारों का मतलब संवाददाताओं से लें। आज बाजारवाद से पत्रकारिता और पत्रकार दोनों बुरी तरह प्रभावित हैं। अच्छा लिखने वाले पत्रकारों की जगह रंगरूट पत्रकारों ने ले ली है। रंगरूटों को खबर लिखना आती है या नहीं, इस ओर किसी का ध्यान नहीं। ध्यान है तो केवल इस बात पर कि उनकी विज्ञापनों पर कितनी पकड़ है। विज्ञापन अखबारों की निष्पक्षता पर भारी पड़ गया है।

आपने शुरुआती पत्रकारिता के दौर में जो पाठक देखा, उससे भिन्न आज की परिस्थिति में क्या पाठक भी  मार्केटिंग के बाजार का लाभार्थी बन चुका है या कोई है जो समीक्षा कर रहा है?

आज न मैनेजमेंट को पाठक चाहिए न संपादक को। उन्हें तो ग्राहक चाहिए ऐसा ग्राहक जो अखबार पढ़े न पढ़े, बस खरीद ले फिर चाहे लिफाफे बना दे। पाठक क्या चाहता है कोई नहीं पूछता। पाठकों की राय की संपादकों ने निर्मम हत्या कर दी है। किसी समय पाठकों की राय को संपादक के नाम पत्र स्तंभ के जरिये संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित किया जाता था। आधे संपादकीय पन्ने पर पाठकों के पत्र छापे जाते थे। अब सब खत्म हो गया या खत्म कर दिया गया है। गंभीर पाठक आज भी मौजूद है और वह समय- समय पर समीक्षा करता रहता है। जो कसौटी पर खरा नहीं उतरता उस अखबार को छोड़कर दूसरा पकड़ लेता है। पर यह बदलाव का सिलसिला थमने का नाम ही नहीं ले रहा, क्योंकि बाजारवाद सब पर कब्जा जमाए बैठ गया है।

भाषायी दृष्टि से मीडिया के वर्तमान स्वरूप में पत्रकार की योग्यता का मूल्यांकन कैसे करेंगे?

भाषायी दृष्टि से भी मीडिया में भारी गिरावट आई है। एक समय बच्चों को अखबार पढ़ने की इसलिए  हिदायत दी जाती थी, ताकि उनकी भाषा में सुधार हो सके। पर आज मीडिया स्वयं भाषा संकट के दौर से गुजर रहा है। हिंदी शब्दकोश और व्याकरण पीछे छूटता जा रहा है। शब्द चयन और शैली की ओर ध्यान देने का किसी के पास समय ही नहीं है। कथ्य या मंतव्य की दृष्टि से देखा जाए तो मीडिया हिंदी भाषा के साथ न्याय नहीं कर रहा है।

कभी मीडिया में साहित्यिक सोच – विचार के उद्गम दिखाई देते थे, तो आज के दौर में पत्रकारिता की विधा बची कहां है?

आज की पत्रकारिता में साहित्य विलुप्त हो गया है। एक समय दोनों को एक दूसरे का पर्याय माना जाता था। इतिहास खंगालकर देख लीजिए, अधिकांश पत्रकार साहित्यकार और साहित्यकार पत्रकार थे। पत्रकारिता और साहित्य दोनों समाज में हो रही घटनाओं का आईना है। दोनों का चोली- दामन का साथ है। अब पत्रकारिता और साहित्य अलग हो गए हैं। यही वजह है कि भाषा खंडित और क्रूर होती जा रही है। साहित्य के अलग हो जाने से पत्रकारिता की संवेदनशीलता नष्ट भ्रष्ट हो गई है।

क्या राजनीतिक चाटुकारिता में  हिमाचली मीडिया का एक भाग डूब चुका है या कहीं वास्तव में संघर्षशील पत्रकार बचे हैं?

राजनीतिक चाटुकारिता के चलते हालांकि पत्रकारिता हल्की हुई है, किंतु अभी भी घुप अंधेरा नहीं हुआ है। अंधकूप में रोशनी की कुछ किरणें अभी बाकी हैं। रंगरूटों की भारी भीड़ के बीच संघर्षशील पत्रकार भी नजर आते हैं जो विपरीत परिस्थितियों में भी पत्रकारिता की अलख जगाए हुए हैं। राजनीतिक चाटुकारिता बढ़ी है, लेकिन इसमें भी प्रबंधन का अहम योगदान रहता है।  बहुत पत्रकार अभी ऐसे भी हैं जिन्होंने जमीर नहीं बेचा है। प्रदेश की पत्रकारिता ऐसे पत्रकारों की ओर उम्मीद भरी निगाहों से देखती है। समय जरूर बदलेगा।

इस दौरान शिमला में राजधानी के पत्रकारिता स्तर को किस मुकाम पर देखते हैं?

जहां तक राजधानी शिमला में पत्रकारिता का प्रश्न है, यहां स्थिति बहुत खराब नहीं है। दैनिक अखबारों के ज्यादातर पत्रकार आज भी तेवर रखते हैंए उनमें पत्रकारिता की ऐंठ बरकरार है।

पत्रकारिता की सबसे बड़ी सीख और जिससे अलग होकर कोई पत्रकार अपना वजूद नहीं बचा सकता?

पत्रकारों को यही सीख है कि जिस उद्देश्य को लेकर पत्रकारिता करने आये हैं, उसे अपने भीतर जीवित रखें। स्थितियां भले ही कैसी भी होंए अपने भीतर के पत्रकार को मरने न दें। यदि कभी लगे कि पत्रकारिता दम तोड़ने लगी है तो चुपचाप बाहर निकल लें, पत्रकारिता को रुसवा न करें।

अब तक के जीवन की शर्तें क्या रहीं। कब लगता है कि जमाना बदल गया। न मीडिया, न राजनीति और न ही नौकरशाही से समाज को कुछ हासिल  हो रहा?

यह गर्व हमेशा रहेगा कि बतौर पत्रकार विगत 36 वर्षों में अपनी शर्तों पर काम किया। कुल 36 में से पिछले 25 साल अलग-अलग अखबारों में स्टेट हैड या चीफ  ऑफ  ब्यूरो ही रहा। एक न्यूज चैनल में बतौर प्रधान संपादक भी काम किया। कभी कोई समझौता नहीं, अपनी मर्जी, अपने ढंग से पत्रकारिता की।

आपकी चंद पंक्तियां, ताकि पता चले कि पत्रकार के एक पहलू में  साहित्य बसा है?

साहित्यिक दुनिया में संवेदनाओं की भीड़ रहती है। एक यात्रा का अंत हो रहा है और दूसरी यात्रा संवेदनाओं से भरी पड़ी है। अब संवेदनाओं की भीड़ में गुम हो जाना है। यानी अब रोने, सिसकने,सुबकने और आंसू बहाने की रुत आ गई है।

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