हिमाचली विभाग खुद से पूछें

By: May 17th, 2018 12:10 am

हिमाचल के कितने प्रश्न हल हो गए, इसका जवाब नए सवालों को जन्म दे रहा है। बेशक प्रगति की दहाड़ में पर्वत ने पूरे देश को बहुत कुछ बताया है और खुद को साबित करने की परीक्षा में हिमाचल के नाम अग्रणी पर्वतीय प्रदेश का मजबूत तमगा है, फिर भी राज्य को स्वयं से पूछना होगा। प्रगति का मूल्यांकन संक्षिप्त संदर्भों में उज्ज्वल प्रतीत होता है, लेकिन विस्तारित और स्थायी लक्ष्यों की गणना में ही खामियां नजर आती हैं। ऐसे में अगर हिमाचल का हर विभाग खुद से पूछे तो कई अनुत्तरित प्रश्न सामने होंगे। शिक्षा के सरकारी आवरण में हम एक हद तक हिमाचली बच्चों की क्षमता का मूल्यांकन कर सकते हैं, लेकिन मानव संसाधन विकास का जिम्मेदार होने के नाते सर्वेक्षणों की विशाल जमीन तैयार करनी होगी। कितने हिमाचली बच्चे हर साल प्रवेश व प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं में आगे निकल रहे हैं, इसका भी तो कोई हिसाब हो। शिक्षा के विभाग होने का अर्थ जब तक मानव संसाधन विकास में परिलक्षित नहीं होगा, सरकारी कालेजों से प्राप्त डिग्रियों से योग्यता का प्रमाण नहीं मिलेगा। हिमाचल से बाहर गए बच्चे प्रतिवर्ष विभिन्न प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों या विश्वविद्यालयों के परीक्षा परिणामों में टॉपर बन रहे हैं, तो ऐसी सफलताओं को प्रदेश कैसे दर्ज कर रहा है। क्या हम सालाना समारोह करके हिमाचल की शैक्षणिक प्रतिभा को पूर्ण सम्मान नहीं दे सकते। हिमाचली प्रतिभा से पिछले सालों में पंजाब, पंजाबी, गुरुनानक देव, कुरुक्षेत्र व रोहतक जैसे विश्वविद्यालय चमके हैं, तो क्या प्रदेश विश्वविद्यालय ने इस स्थिति का अवलोकन या आत्म निरीक्षण किया। हर साल हमारी खेल क्षमता का दोहन करके गुरुनानक देव विश्वविद्यालय ट्रॉफियां सजाता है, तो शिमला में विश्वविद्यालय की तंग गलियों को यह खबर क्यों नहीं बेचैन करती है। बेशक चिकित्सा विभाग के शिखर पर विराजित इच्छाएं मेडिकल यूनिवर्सिटी की नींव खोद रही हैं या चंबा से सिरमौर तक मेडिकल कालेजों की कतार खड़ी है, लेकिन कोई यह पता करे कि तमाम रिजनल व क्षेत्रीय अस्पताल कैसे डिस्पेंसरी बन गए। स्वास्थ्य विभाग खुद से पूछे कि प्रदेश से बाहर निकल कर ही क्यों मरीजों का भरोसा यकीन में बदलता है। आश्चर्य तो यह कि अपने पेयजल को अमृत मानने वाले आईपीएच विभाग ने कभी यह नहीं सोचा कि उसकी पाइपों से क्यों डायरिया, पीलिया या आंत्रशोथ बार-बार नागरिक समाज को  तंग करता है। आश्चर्य है कि तमाम नगर निकाय अपने शहरीकरण की रफ्तार में कसाई बने हैं, लेकिन व्यवस्था यह है कि पार्षदों ने लगातार संपत्तियां हथिया लीं। शहरी विकास मंत्रालय (अगर है तो) यह बताए कि पूरे हिमाचल में शहरी संपत्तियों पर किस-किस हस्ती का कब्जा है। विडंबना तो यह है कि ये कार्य भी अदालतों की सख्ती का इंतजार कर रहे हैं। प्रश्न फोरलेन के किनारे हुए अतिक्रमण पर अदालत पूछ रही हैं, तो विभाग खुद से अपने निकम्मेपन का हिसाब तो पूछे। आज अवैध होटलों के भीतर पर्यटन रो रहा है या पर्यटक स्थलों की सूरत में लाचार हिमाचल दिखाई दे रहा था, तो इस स्थिति के लिए कब तक अदालतें ही प्रश्न करेंगी। पीडब्ल्यूडी महकमा राज्य के अरबों के बजट का हकदार है, तो स्वयं से पूछे कि हिमाचली वास्तुकला के प्रयोग में उसका अनुसंधान कहां है। कुछ इसी तरह आईपीएच और विद्युत महकमे, अपने दायित्व के हिसाब से देखें कि बदलते परिदृश्य के अनुरूप क्यों नहीं आम नागरिकों की मांग का प्रतिपादन ठीक से हो रहा है। प्रदेश का कलाकार अपने स्तर पर अभिव्यक्ति का तरह-तरह से मंचन कर रहा है, लेकिन कला, संस्कृति एवं भाषा विभाग व अकादमी ने यह तय नहीं किया कि इस दिशा में इन्हें क्या करना है। यू ट्यूब पर हिमाचली वीडियो के मार्फत हो रही ब्रांडिंग के बावजूद, अगर संस्कृति का जिम्मा संभाले विभाग अपने योगदान को चित्रित न करे तो प्रदेश का यह मेहनताना व्यर्थ ही जाएगा। निजी तौर पर लोगों ने हिमाचली बोलियों में फिल्में बनाईं, गीत-संगीत को संरक्षण और सारे प्रदेश को जोड़ती बोलियों के प्रति राज्य स्तरीय स्वीकृति दिलाई, तो कला, भाषा एवं संस्कृति विभाग को भी एक बार खुद से पूछना पड़ेगा कि फर्ज के अपने दर्पण में वह है कहां?

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