अंबेडकर ने समझाया रिलीजन और धर्म का अंतर

By: Jun 9th, 2018 12:10 am

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

लेखक, वरिष्ठ स्तंभकार हैं

उन्होंने मजहब या रिलीजन शब्द की परिधि निश्चित करते हुए लिखा कि मजहब का अर्थ है-‘ईश्वर में विश्वास, आत्मा में विश्वास, ईश्वर की पूजा, आत्मा का सुधार, प्रार्थना इत्यादि करके ईश्वर को प्रसन्न रखना।’ इसके आगे अंबेडकर रिलीजन और धर्म के अंतर को स्पष्ट करते हैं। अंबेडकर के अनुसार मजहब या रिलीजन व्यक्तिगत चीज है और आदमी को इसे अपने तक ही सीमित रखना चाहिए। इसे सार्वजनिक जीवन में बिलकुल दखल नहीं देना चाहिए। इसके सर्वथा विरुद्ध धर्म एक सामाजिक वस्तु है, जो प्रधान रूप से  सामाजिक है…

‘यतो धर्मस्ततो जयः’ अर्थात जहां धर्म है, वहां जीत है। यह वाक्य उच्चतम न्यायालय की व्यासपीठ के पीछे लिखा हुआ है। धर्म शब्द की मूल धातु ‘धृ’ है जिसका अर्थ है-धारण करना। भारतीय वांगमय में धर्म शब्द का उल्लेख बार-बार आता है। सामाजिक जीवन में धर्म की महत्ता भी सर्वाधिक है। वास्तव में सामाजिक जीवन का आधार ही धर्म माना गया है। यूरोपीय जातियों के भारत में आ जाने के बाद इस शब्द का उन्हें अपनी भाषा में अनुवाद करना था। कोई ऐसा शब्द चाहिए था, जो धर्म की अवधारणा और अर्थ के समकक्ष हो। उनकी भाषा में एक शब्द रिलीजन था। उन्होंने धर्म का अनुवाद रिलीजन कर दिया और धीरे-धीरे भारत में धर्म को रिलीजन का पर्यायवाची ही मान लिया गया, लेकिन यह सत्य नहीं था। भारतीय भाषाओं के शब्द मजहब, पंथ, मत या संप्रदाय, रिलीजन के समकक्ष माने जा सकते हैं। धर्म का अर्थ और क्षेत्र रिलीजन से कहीं व्यापक और अलग है। भीमराव रामजी अंबेडकर ने इन दोनों शब्दों के अंतर और अवधारणा को स्पष्ट किया। उन्होंने मजहब या रिलीजन शब्द की परिधि निश्चित करते हुए लिखा कि मजहब का अर्थ है-‘ईश्वर में विश्वास, आत्मा में विश्वास, ईश्वर की पूजा, आत्मा का सुधार, प्रार्थना इत्यादि करके ईश्वर को प्रसन्न रखना।’ इसके आगे अंबेडकर रिलीजन और धर्म के अंतर को स्पष्ट करते हैं। अंबेडकर के अनुसार मजहब या रिलीजन व्यक्तिगत चीज है और आदमी को इसे अपने तक ही सीमित रखना चाहिए। इसे सार्वजनिक जीवन में बिलकुल दखल नहीं देना चाहिए। इसके सर्वथा विरुद्ध धर्म एक सामाजिक वस्तु है। वह प्रधान रूप से और आवश्यक रूप से सामाजिक है।

धर्म का पालन समाज में रहकर ही किया जा सकता है। दरअसल धर्म की जरूरत भी समाज में ही सर्वाधिक होती है। किसी टापू में कोई व्यक्ति अकेला रह रहा है, तो उसको धर्म की जरूरत नहीं है, क्योंकि वहां दूसरा कोई व्यक्ति है ही नहीं। वह व्यक्ति वहां अपने धर्म का पालन कर रहा है, इसका अब कोई अर्थ नहीं है, क्योंकि धर्म पर चलने या उसका पालन करने के लिए कम से कम दो व्यक्ति तो चाहिए, लेकिन मजहब, मत, संप्रदाय, पंथ या रिलीजन की स्थिति इसके बिलकुल उलट है। अपने मजहब का पालन तो कोई व्यक्ति टापू में बैठकर अकेले भी कर सकता है। वह वहां बैठकर अपने ईश्वर की पूजा कर सकता है। इसलिए कहा जाता है मजहब व्यक्तिगत है और धर्म सामाजिक क्रिया है।

इसलिए अंबेडकर मानते हैं कि बिना धर्म के समाज का काम चल ही नहीं सकता। मजहब या रिलीजन के बिना समाज का काम चल सकता है, क्योंकि यह हर व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला है। किसी व्यक्ति ने ईश्वर में विश्वास करना है या नहीं या फिर यदि विश्वास करना है, तो उसकी पूजा किस तरीके से करनी है, यह निर्णय भी उसने स्वयं ही करना है। इसमें समाज या राज्य दखलअंदाजी नहीं कर सकता, लेकिन धर्म किसी का व्यक्तिगत मामला नहीं है। यह सामाजिक मामला है, इसलिए इसका पालन तो हर एक को करना ही होगा। अंबेडकर के अनुसार ‘धर्म का मतलब है सदाचरण, जिसका मतलब है जीवन के सभी क्षेत्रों में एक आदमी का दूसरे आदमी के प्रति अच्छा व्यवहार।’ इसका अर्थ है यदि आदमी अकेला ही हो तो उसे किसी धर्म की आवश्यकता नहीं, लेकिन यदि कहीं परस्पर संबंधित दो आदमी भी एकसाथ रहते हों, तो वे चाहें या न चाहें उन्हें धर्म के लिए जगह बनानी ही होगी।

दोनों में से कोई एक भी बचकर नहीं जा सकता। कोई भी समाज हो आखिर उसे एक अनुशासन में तो रहना ही होगा, बिना अनुशासन के समाज में स्वतंत्रता नहीं रह सकती है। अंबेडकर का मानना है कि समाज को तीन विकल्पों में से एक का चुनाव करना ही पड़ेगा। यदि समाज चाहे तो जरूरी नहीं कि वह अनुशासन के लिए धर्म का ही चुनाव करे। वैसे भी यदि धर्म अनुशासन नहीं करता, तो वह धर्म है ही नहीं। इसका अर्थ तो यह हुआ कि समाज अराजकता के पथ पर  ही आगे बढ़ना ठीक समझता है। दूसरे विकल्प  के लिए समाज अनुशासन के लिए पुलिस अर्थात डिक्टेटर को चुन सकता है। तीसरा  विकल्प है कि समाज अनुशासन के लिए धर्म और मजिस्ट्रेट का एक साथ चुनाव कर सकता है। जितने अंश में समाज धर्म का पालन करे, उतने अंश में धर्म और जहां धर्म का पालन न करें वहां मजिस्ट्रेट। न अराजकता में स्वतंत्रता है और  न ही डिक्टेटर राज्य में स्वतंत्रता है। केवल  तीसरी अवस्था में ही स्वतंत्रता जीवित रह  सकती है।

इसलिए जो स्वतंत्रता चाहते हैं उनके लिए धर्म अनिवार्य है। भगवान बुद्ध को उद्धृत करते हुए अंबेडकर कहते हैं ‘प्रज्ञा और करुणा का एक अलौकिक सम्मिश्रण ही तथागत का धर्म है।’ प्रज्ञा का अर्थ है बुद्धि, निर्मल बुद्ध। भगवान बुद्ध ने प्रज्ञा को अपने धर्म के दो स्तंभों में से एक माना है, क्योंकि वह नहीं चाहते थे कि मिथ्या विश्वासों के लिए कहीं कोई गुंजाइश बची रहे। करुणा का अर्थ है दया, प्रेम, मैत्री। इसके बिना न समाज जीवित रह सकता है और न ही समाज की उन्नति हो सकती है। इसलिए भगवान बुद्ध ने करुणा को अपने धर्म का दूसरा स्तंभ बनाया। भगवान बुद्ध के धर्म की यही परिभाषा है। मजहब या रिलीजन से यह कितनी भिन्न है।

ई-मेलःkuldeepagnihotri@gmail.com

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