आतंकियों को दफन कौन करे ?

By: Jun 25th, 2018 12:05 am

कश्मीर में आतंकियों के लिए नई रणनीति तय की गई है। अब सेना या सुरक्षा-बल आतंकियों को वहीं सुपुर्द-ए-खाक (दफन) कर देंगे, जिस जगह मुठभेड़ में उन्हें मारा जाएगा। बेशक यह सुरक्षा बलों का विचार है, लेकिन केंद्र सरकार की अनुमति के बिना इतना कड़ा कदम, इतना बड़ा जोखिम नहीं उठाया जा सकता। विमर्श के दौरान यह घोर उत्तेजक विचार भी सामने आया कि आतंकियों को दफन करने के बजाय उनका दाह-संस्कार किया जाए, ताकि मजहबी तौर पर उनका जीवन ही व्यर्थ माना जाए। वे पाप के भागीदार बनें और ‘72 हूरों के मिलन’ वाला मिथ खंडित किया जा सके। सरकार और सुरक्षा एजेंसियों के इतनी पराकाष्ठा तक जाने की प्रतिक्रिया भी बड़ी हमलावर हो सकती है, लेकिन कश्मीर घाटी में आतंकियों के जनाजों और उनमें उमड़ती भीड़ को रोकने के मद्देनजर यह कार्रवाई उचित मानी जा रही है। मुसलमानों में मौलाना, राजनेताओं और पत्रकारों के एक तबके ने इस फैसले को ‘इनसानियत से परे’ और ‘बर्बर अमानवीय’ करार दिया है। उनकी दलील है कि मरने के बाद जिस्म तो मिट्टी हो जाता है और आत्मा को न तो जलाया जा सकता है और न ही दफन किया जा सकता है। जो अपराध जिस्म के जरिए किए गए हैं, उन्हें माफ कर देना चाहिए, कानून की भाषा भी ऐसा ही कहती है। लिहाजा जैसी परंपरा चली आ रही है, उसी के मुताबिक मुठभेड़ों में मारे जाने वाले आतंकियों की लाशें उनके परिजनों को ही दी जाएं। मानते हैं कि आतंकवाद का कोई मजहब, धर्म नहीं होता, लेकिन आज जो आतंकी है, उसने किसी धर्म और परिवार में तो जन्म लिया होगा! दूसरी ओर, सेना और सुरक्षा बलों तथा ऐसे ही विचारकों का मानना है कि आतंकी बुनियादी सोच और कर्म के आधार पर राक्षस हैं, दरिंदे हैं और दहशतगर्द हैं। वे इनसानी लाशें बिछाते हुए पल भर भी नहीं सोचते। लगभग तीन दशकों के आतंकवाद में करीब 21,000 आतंकी मारे जा चुके हैं और करीब 4500 आतंकियों ने आत्मसमर्पण किया है। मारे गए नागरिकों और मासूमों की संख्या भी इतनी ही होगी। कमोबेश ये इनसान की ही हत्याएं की गईं और यह सिलसिला आज भी जारी है। घाटी में आतंकियों के जनाजे निकालना एक फैशन, एक प्रतीक बन गया है। जनाजों में जो भीड़ शामिल होती है, उनमें आतंकी भी शिरकत करते हैं और आम लोग आतंकियों को ‘राबिनहुड’ की संज्ञा देते हैं। आम धारणा है कि वे आतंकी नहीं हैं, जनता के हुकूक की लड़ाई लड़ रहे हैं। भारत सरकार, सेना और सुरक्षा बल, कमोबेश अब राज्यपाल शासन के तहत कश्मीर को इस धारणा से मुक्ति दिलाना चाहते हैं, लिहाजा विकल्प के तौर पर तय किया जा रहा है कि आतंकी जहां भी मारे जाएं, उसी के आसपास किसी अनजान जगह पर उनके शव को दफन कर दिया जाए। यह काम स्थानीय पुलिस और राज्य सरकार मिलकर करेंगे। सेना तो मुठभेड़ के बाद आतंकियों की लाशें पुलिस को सौंप देगी। घाटी में आतंकियों को ‘पोस्टर ब्वाय’ घोषित करने की जो संस्कृति शुरू हो गई थी, उसे भी नष्ट करने के मद्देनजर आतंकियों के फोटो और पोस्टरों पर पाबंदी चस्पां की जाएगी। सरकार के स्तर पर माना जा रहा है कि आतंकवाद के संदर्भ में इसके सकारात्मक नतीजे मिल सकते हैं। आतंकवाद का खात्मा किया जा सकता है, पत्थरबाजों पर काबू पाया जा सकता है या उन्हें भी कुचला जा सकता है। सेना और सुरक्षा बल अब आतंकवाद से जुड़े किसी भी पहलू पर रहम नहीं खाएंगे। प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा के लिए यही ‘मिशन कश्मीर’ 2019 के चुनावों की प्रस्तावना होगी। यदि राज्यपाल शासन के दौरान आतंकवाद को मृतप्रायः किया जा सका, तो यह एक बड़ा हासिल होगा, जिसे राष्ट्र स्तर पर भाजपा भुना सकेगी। राहुल गांधी की कांग्रेस को या तो अपनी राजनीति स्पष्ट करनी होगी, नहीं तो उसे खामियाजा भुगतना पड़ेगा। कांग्रेस और लश्कर-ए-तैयबा के सुर एक जैसे कैसे मिल सकते हैं, कांग्रेस को देश के सामने साफ करना होगा।


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