आनंद की गंगोत्री

By: Jun 23rd, 2018 12:05 am

श्रीराम शर्मा

कस्तूरी की खोज में हिरन भटकता रहता है। वनों, कंदराओं में वह ढूंढ़ता है, पर कहीं नहीं मिलती, जो भीतर है उसे बाहर खोजने में उसका जीवन खप जाता है। व्यर्थ की इस भागदौड़ से उसे निराशा ही हाथ लगती है। अतृप्ति यथावत बनी रहती है। यह बोध हो सके कि जिसे प्राप्त करने की आकुलता में वह वन एवं कंदरा में विचरता रहता है, वह उसके अपने ही भीतर विद्यमान है, तो उसे तृष्णा की आग में इस तरह न जलना पड़े। उसकी निकटता प्राप्त कर मृग स्वयं परितृप्त हो जाए। मृग ही क्यों? मनुष्य भी तो आनंद की खोज में मृग मरीचिका की तरह जीवन पर्यंत भटकता रहता है। आनंद की प्राप्ति उसकी मूलभूत मांग है। बचपन से लेकर जरावस्था तक वह इस आकांक्षा की पूर्ति में लगा रहता है। पर हिरन की भांति दृष्टि बहिर्मुखी होने के कारण मनुष्य सोचता है कि आनंद के स्रोत बाहर हैं। दृश्य संसार और उससे संबद्ध परिवर्तनशील पदार्थों के आकर्षण में वह स्थायी और शाश्वत आनंद की खोज करता है। इंद्रियों की तुष्टि के लिए विषय रूपी साधन जुटाता है। पर उनका उपभोग अतृप्ति की आग को और भी अधिक भड़काता और बढ़ाता है। बचपन से लेकर वृद्धावस्था की मध्यावधि में शारीरिक एवं मानसिक स्थिति में अनेक तरह के परिवर्तन होते हैं। उन परिवर्तनों के साथ-साथ आनंद प्राप्ति के बाह्य साधन भी बदलते रहते हैं। शैशव अवस्था की मांग अलग प्रकार की होती है और किशोरावस्था की अलग। युवाओं की मनःस्थिति और वृद्धों की मनःस्थिति सर्वथा एक दूसरे से भिन्न प्रकार की होती है। इस कारण आनंद प्राप्ति के बाह्य स्रोत भी क्रमिक रूप से बदलते रहते हैं। नवजात शिशु मां की छाती से चिपकता रहता है। पर थोड़ा बड़ा होते ही दुग्ध पान के प्रति उसकी अभिरुचि समाप्त हो जाती है। जो कभी मां के हृदय से चिपका रहता था, वह अब चित्र-विचित्र खिलौनों में रमण करता है। सहानुभूति के केंद्र बिंदु खिलौने बनते हैं। पर यह स्थिति भी अधिक दिनों तक नहीं रहती। खिलौने जो बचपन में अत्यंत ही आकर्षक मनोरंजक लगते थे, किशोरावस्था में नहीं भाते। घर की सीमा से बाहर वह प्रवेश करता है। मित्रों की टोली में उसका अधिकांश समय व्यतीत होता है। पढ़ने-लिखने की, आगे बढ़ने की प्रतिस्पर्धा चल पड़ती है। बचपन में जो खिलौनों से चिपका रहता था अपना भविष्य बनाने में जी तोड़ परिश्रम करता है। उसकी प्रसन्नता इस बात में सन्निहित रहती है कि कैसे अधिक से अधिक योग्यता संपादित की जाए। संतुष्टि इस आकांक्षा की पूर्ति से भी नहीं होती। एक की आपूर्ति दूसरे तरह की इच्छा को जन्म देती है। वयस्क होते ही अनुकूल साथी जीवन संगिनी की खोज चलती है। धनोपार्जन, संपदा संग्रह तथा लोकयश पाने की आकांक्षा पूर्ति में वह अब सुख आनंद ढूंढ़ने लगता है। तद्नुरूप प्रयासों का ताना-बाना बुनता है। वह सब मिलने के बाद भी संतोष नहीं होता। अतृप्त और अशांत मनःस्थिति पुनः नए तरह के मन बहलाने के साधन ढूंढ़ती है। संपूर्ण जीवन ही इन बाह्य प्रयासों में खप जाता है। जितना मनुष्य आनंद पाने का प्रयत्न करता है, उतना ही वह उससे दूर होता चला जाता है। हर मनुष्य की प्रकृति एक जैसी नहीं होती। परस्पर एक-दूसरे की अभिरुचियां भी भिन्न होती हैं। एक को एक तरह के काम में आनंद आता है, दूसरे को भिन्न प्रकार के काम में।


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