कर्त्तव्य का पुनः स्मरण

By: Jun 5th, 2018 12:05 am

कुलभूषण उपमन्यु

अध्यक्ष, हिमालयन नीति अभियान

पांच जून विश्व पर्यावरण दिवस एक बार फिर द्वार पर है। यह दिवस हमें याद दिलाता है कि पर्यावरणीय संकट में घिरी पृथ्वी के प्रति हमारे अपने भविष्य को सुरक्षित रखने के लिए क्या कर्त्तव्य हैं। हमें क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, इस बात का ध्यान हर समय हमें रखना पड़ेगा। हम कहीं भी कार्यरत हों, चाहे आम नागरिक हों या विभिन्न संगठनों संस्थाओं या सरकार में बैठे हों, किसान, मजदूर, कर्मचारी या गृहिणी हों, आज के दिन हम पिछले वर्ष के मुकाबले अपने आसपास के पर्यावरण में आने वाले अच्छे और बुरे बदलावों को देखें। उनके समाधान में अपनी भूमिका को देखें और सोचें कि हम क्या कर सकते थे जो हमने नहीं किया और हमने क्या किया जिसका अच्छा असर हुआ। आज विद्यालयों में भी पर्यावरण विज्ञान पढ़ाया जाता है, अखबारों, सेमिनारों, सरकारी कार्यक्रमों में पर्यावरण एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा है।

पर्यावरण में आ रही गिरावट का दंश किसी न किसी रूप में हम झेल भी रहे हैं। कहीं जल संकट है तो कहीं वायु प्रदूषण ने जान संकट में डाल रखी है। सिंचाई व्यवस्था ठप है और गर्मी का कहर है, कहीं मिट्टी की उपजाऊ शक्ति घट गई है, तो कहीं नदियां जहरीली हो गई हैं और इस सब का कारण मानव स्वयं है। आसमान से समुद्र तक कुछ न कुछ गड़बड़ ऐसी हो गई है कि जीवन संकट में फंसता जा रहा है। जैव विविधता के रूप में प्रकृति द्वारा दी गई अमूल्य धरोहरें नष्ट हो रही हैं और इसके महत्त्व को समझे बगैर हम जंगलों को जलाने का घृणित कार्य करके अपने ही भविष्य को अंधकारमय बनाने का कार्य कर रहे हैं। अति वृष्टि या अनावृष्टि का प्रकोप झेलना पड़ रहा है। जलवायु परिवर्तन की समस्या मुंह बाए खड़ी है। एक सभ्य समाज के रूप में हमें इन सब बातों को सोचने का अवसर है। आखिर प्रकृति ने तो ये समस्याएं खड़ी नहीं की थीं, इन समस्याओं का कारण भी स्वयं मानव है और इसका समाधान भी हमें ही निकालना होगा।

ये तो हमारी अपनी ही लापरवाहीपूर्ण व्यवहार का ही नतीजा हैं। हमने आसमान को जहरीले धुंए से पाट दिया और धरती को कचरे और जहरीले रसायनों से वर्षा लाने वाले, धुआं चूस कर वायु को शुद्ध करने वाले, वर्षा के जल को अपनी जड़ों में चूस कर संरक्षित करके वर्ष भर जल स्रोत उपलब्ध करवाने वाले वृक्षों और वनों को लगातार नष्ट कर दिया है। आखिर दोष किसे दें? एक समय था जब लोग पढ़े-लिखे नहीं थे, विज्ञान की भाषा नहीं समझते थे, किंतु प्रकृति के प्रति श्रद्धा के संस्कारों से वे लोग अपनी नदी को शुद्ध रख लेते थे। हवा को गंदा करने की तकनीकें उन्हें मालूम नहीं थी, किंतु प्रकृति से मित्रता रखना वे जानते थे। आज सब पढ़ लिख गए हैं वे जानते हैं कि जल प्रदूषित होने से कौन से रोग फैल सकते हैं, किंतु जल को शुद्ध रखने की तमीज वे नहीं जानते। अपनी रोजमर्रा की गंदगी, कारखानों का गंदा पानी नदियों में डालते या बोरवेल द्वारा भू-जल में डालते उन्हें लज्जा नहीं आती। प्रकृति का दोहन उसकी धारण क्षमता से अधिक करते जाने को ही विकास कहने लग गए हैं। जबकि हम जानते हैं कि धारण क्षमता से अधिक बोझ प्रकृति पर डालने से पर्यावरण की अपूरणीय क्षति होती है।

असीमित लाभ कमाने की इच्छा से हमने ‘यूज एंड थ्रो’ जैसी तकनीकों को प्रोत्साहित किया है जिससे प्राकृतिक संसाधनों की बिना जरूरत बर्बादी होती है। यानी लालच के लिए ज्ञान का दुरुपयोग किया जा रहा है और उसे हम विकास कहने लगे हैं। वेस्ट नाट हैव नाट जैसी अवधारणा घड़ कर हम अपने लालच को ढकने की कोशिशों में लगे रहते हैं। जानबूझ कर उल्टे काम करने का नतीजा तो भुगतना  ही पड़ेगा, इसलिए जरूरी है कि पर्यावरण मित्र तकनीकों पर ज्यादा जोर डाल कर विकास के अर्थों को पुनः परिभाषित किया जाए। वैकल्पिक अक्षय उर्जा पर कार्य हो, प्लास्टिक का विकल्प सड़ने वाले पैकिंग मैटिरियल बनाए जाएं, खाना पकाने के लिए सौर उर्जा का प्रयोग बढ़ाया जाए ताकि वनों पर बोझ कम हो और ये प्रयास वैश्विक स्तर पर प्रोत्साहित किए जाएं।

दुनिया भर में फैली प्राचीन सभ्यताएं और भारतीय संस्कृति के पास इस दिशा में सोच बदलने के लिए मौलिक विचार विद्यमान हैं। भारतीय सभ्यता का यह संदेश कि सभी वस्तुओं और प्राणियों में ईश्वर आत्म रूप में विद्यमान है और जहां आत्मा है वहां श्रद्धा होनी चाहिए। प्रकृति के प्रति श्रद्धा से ही प्रकृति की रक्षा की गारंटी ली जा सकती है। कोरा विज्ञान आदमी के लालच को नियंत्रित नहीं कर सकता। यही कारण है कि इस सोच से जीने वाली आदिवासी संस्कृतियों के पास ही सबसे ज्यादा प्रकृति संरक्षित है। विज्ञान को आध्यात्म की लगाम होने से ही दिशा मिल सकती है वरना राक्षसी वृति के प्रसार में विज्ञान का दुरुपयोग होने से रोका नहीं जा सकता है। विज्ञान जब तकनीक का गुलाम बन जाता है तो अहंकारी हो जाता है, अहंकार में किया जाने वाला कोई भी कार्य जनहितकारी साबित नहीं हो सकता। अतः हमें पर्यावरण के प्रति बरती जा रही लापरवाही को त्याग कर पर्यावरण की रक्षा करनी होगी।

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