कुछ अविस्मरणीय यादें

By: Jun 24th, 2018 12:06 am

संस्मरण

सन् 1990 में मैं अहमदाबाद में था। फिर कुछ वर्षों तक अहमदाबाद में ही रहना हुआ। यहां थोड़ा पढ़ने-लिखने का माहौल था। कुछ अच्छे साहित्यिक मित्र भी बने। सांप्रदायिक दृष्टि से अहमदाबाद उन दिनों बड़ा संवेदनशील था। लेकिन आम गुजराती शांतिप्रिय, मिलनसार और मित्रभाव रखने वाले लोग होते हैं। यहां कुछ जाने-माने साहित्यकारों, पत्रकारों, राजनेताओं से भी मिलना-मुलाकातें आदि हुईं। जीवन में कुछ ऐसे लोग भी मिलते हैं जिनको हम पहले से नहीं जानते हैं और जब उन्हें जान जाते, उनसे मिल लेते हैं, तब ऐसे लोग सीधे दिल में बस जाते हैं! न चाहते हुए भी उनकी यादें आ ही जाती हैं। गुजरात विद्यापीठ के वयोवृद्ध शिक्षाविदों, विद्वानों, लेखकों से मिलना सुखद अनुभूति थी। पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय श्री मोरार जी देसाई के भतीजे भरत भाई देसाई से मेरी अच्छी पहचान हो गई थी। वे अक्सर अमरीका को जाते-आते रहते थे। पहले वे बैंक ऑफ अमेरिका में काम करते थे। अंग्रेजी में लिखी उनकी एक लंबी कहानी का मैंने हिंदी में अनुवाद भी किया था। जैसा कि उल्लेख किया, पढ़ने-लिखने का माहौल था। आश्रम रोड में स्थित टाउन हॉल में कुछ न कुछ सांस्कृतिक गतिविधियां चलती ही रहती थी। एक बार नवंबर-दिसंबर माह के दौरान आश्रम रोड में ही देना बैंक के ऑडिटोरियम में एक साहित्यिक आयोजन किया गया था। इस आयोजन में कवि सम्मेलन भी रखा गया था। कुछ स्थानीय कवियों के अतिरिक्त दिल्ली से प्रख्यात कवि तथा संपादक श्री मंगलेश डबराल और ‘झीनी-झीनी बीनी चदरिया’ फेम के लेखक डॉ. अब्दुल बिस्मिल्लाह विशेष तौर पर आमंत्रित किए गए थे। शाम का समय था। ऑडिटोरियम का पूरा हॉल खचाखच भरा हुआ था। मंच पर प्रतिष्ठित जन और बाहर से आमंत्रित कविगण बैठे हुए थे। मैं अपने सबसे करीबी मित्र बंशीधर जोशी के साथ पीछे की तरफ  बैठा हुआ था। जोशी जी गढ़वाल (अब उत्तराखंड) से थे। हम दोनों ही पहाड़ी थे। मैं हिमाचल से और वे गढ़वाल से! हमारे ऑफिस भी आस-पास ही थे। अन्य दिनों में भी हम कभी-कभी एक-दूसरे के ऑफिस में मिलने के लिए आया-जाया करते थे। हमारे काम की प्रकृति भी एक जैसी थी। अपने काम के सिलसिले में हम एक-दूसरे से सलाह-मश्विरा भी कर लेते थे। मतलब यह कि हमारी पक्की मित्रता थी।

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कवि सम्मेलन में कविगण अपनी-अपनी कविताएं सुनाने लगे। मंच का संचालन संजीव निगम कर रहे थे। मंच संचालन में वे कुशल थे। ऐसे आयोजनों में माइक और स्टेज वही संभालते थे। सभी उनकी कार्यकुशलता के कायल थे। आजकल वे मुंबई में महात्मा गांधी द्वारा स्थापित हिंदुस्तानी प्रचार सभा, मुंबई की पत्रिका के संपादक हैं। जब कुछ स्थानीय कवि कविता पाठ कर चुके तो इसके बाद श्री मंगलेश डबराल को आमंत्रित किया गया। लोगों ने जोरदार तालियों से उनका स्वागत किया। आखिरकार वे सबके चहेते और प्रतिष्ठित कवि जो थे! उन्होंने  अपनी कविता पढ़ना प्रारंभ किया। मैं पहली बार उनको सुन रहा था। वे रुक-रुक कर और कुछ-कुछ हकलाते हुए अपनी कविता सुना रहे थे। मुझ जैसे लोगों ने संभवतः उनके हकलाने की कल्पना भी नहीं की थी। मेरे साथ बैठे जोशी जी को भी मजा नहीं आ रहा था। उसने हूटिंग करनी शुरू कर दी। मैं भी पीछे नहीं रहा। कुछ लोगों ने पीछे की ओर मुड़कर हमें देखा और अपनी अप्रसन्नता व्यक्त की। लेकिन मंगलेश डबराल जी ने हूटिंग की परवाह नहीं की। अपनी कविता पूरी करके ही पोडियम से हटे। अगला नंबर बिस्मिल्लाह साहब का था। वे कुछ उपदेशात्मक कविता पढ़ने लगे। लोगों ने फिर हूटिंग शुरू कर दी। इस बार हम दोनों के अतिरिक्त अन्य लोग भी हूटिंग में शामिल थे। बिस्मिल्लाह जी ने अपनी कविता रोक दी। क्रोध में भर कर बोले, ‘यदि ऐसा ही करना था तो बुलाया क्यों था?’  वे अधूरी कविता सुनाकर गुस्से में भरे स्टेज से उतर आए थे। उन्हें आने-जाने का खर्चा और बढि़या होटल में ठहराया गया था। उन दिनों अहमदाबाद में युवा सूरज प्रकाश जी, डॉ. हरियश राय, राजेंद्र जोशी इत्यादि साहित्यिक जगत में जाने-पहचाने नाम थे। सूरज प्रकाश जी राजेंद्र जोशी के साथ मिलकर गुजराती साहित्य का हिंदी में अनुवाद कर रहे थे। सूरज प्रकाश थोड़ा नकचढ़े प्रकृति के थे। उनकी कहानियां नवभारत टाइम्स के मुंबई संस्करण में छपती रहती थी। डॉ. हरियश राय तब उतने प्रकाश में नहीं आए थे। आज ये सभी हिंदी के नामचीन और प्रतिष्ठित लेखक हैं। गुजरात में उन दिनों हिंदी का कोई अखबार नहीं निकलता था। लेकिन इसी दौरान आश्रम रोड से श्री विश्वदेव शर्मा ने गुजरात वैभव नाम का अखबार शुरू किया। शर्मा जी पक्के मारवाड़ी थे। राजस्थान के अजमेर से उनका नव ज्योति नाम का समाचारपत्र पहले ही छपता था।

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गुजरात वैभव में राजेंद्र जोशी नियमित रूप से एक स्तंभ लिखने लगे थे। मैं भी शर्मा जी से उनके कार्यालय में मिला। रविवारीय संस्करणों में मेरी भी कविताएं, कहानियां, लेख आदि आने लगे। अखबार ने अपना स्थान बना लिया था। डॉ. अमर सिंह वधान चंडीगढ़ से और मेरे सहकर्मी थे। एक बार वे अहमदाबाद आए तो विश्वदेव शर्मा से अपना परिचय कराने हेतु मुझसे अनुरोध किया। मैंने डॉ. वधान को उनके कार्यालय में ले जाकर परिचय कराया। अब गुजरात वैभव में डॉ. वधान का लगभग प्रतिदिन कुछ न कुछ छपने लगा। कोई न कोई लेख किसी की जयंती, पर्व, खानपान, बहू की मां से कैसे बात करनी है, रसोई घर में बेटी, बाप-बेटे में वार्तालाप के नुस्खे आदि-आदि! लोग ऐसे लेखों को पसंद करते थे। पाठक सृजनात्मक साहित्य की बजाय ऐसी सामग्री को अधिक पढ़ते हैं! भोपाल में आया तो पूरा माहौल ही साहित्य अनुरागी था। मेरा ऑफिस प्रेस कांप्लेक्स में था। यहां से राज्य और राष्ट्रीय स्तर के अनेक समाचारपत्र छपते हैं। स्तरीय पत्रिकाएं छपती थीं। चूंकि मैं भाषा और जन संपर्क  अधिकारी के तौर पर कार्य करता था, इसलिए मेरा सभी अखबारों के कुछ पत्रकारों, संपादकों, संपादकीय विभागों में कार्यरत लोगों से जान-पहचान हो गई थी। मेरा अधिकतर समय राज्य सरकार के सचिवालय और अखबारों के दफ्तरों में निकल जाता था। मेरी रचनाएं भी सभी अखबारों के रविवारीय स्तंभों में छपने लगी। स्वदेश तथा देशबंधु जैसे दैनिकों को मैं अपनी रचनाएं नहीं देता था। उन दिनों उनकी उतनी अधिक साख नहीं थी। वैसे भी मैं बहुत कम लिखता था। दैनिक नई दुनिया के संपादकीय विभाग में प्रख्यात पत्रकार तथा संपादक प्रभाष जोशी के छोटे भाई गोपाल जोशी थे। मेरी उनसे अच्छी जान-पहचान बनी। उन्होंने मेरी कई रचनाओं को अपने विभिन्न स्तंभों में जगह दी। वे एक बार सपत्नीक हमारे घर सुरेंद्र प्लेस में भी आए। दैनिक भास्कर के रसरंग के प्रभारी श्री ओम नागपाल से भी मेरी अच्छी पहचान हो गई थी। विख्यात चित्रकार एमएफ हुसैन पर उनके आलेख से वे काफी चर्चित रहे थे। अहद प्रकाश जी धर्मयुग में बहुत छपते थे। उनसे भी अच्छी पहचान हुई और आज तक कायम है। लखनऊ में साहित्यिक माहौल और भी जीवंत था। लेकिन कार्यालय की व्यस्तता और पारिवारिक जिम्मेदारियों की वजह से यहां मैं कुछ अधिक नहीं लिख पाया। रजनी गुप्त आदि से पहचान थी, पर वे उतनी प्रसिद्ध नहीं हुई थी तब।

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लखनऊ यूनिवर्सिटी के हिंदी विभाग के पूर्व अध्यक्ष डॉ. सूर्य प्रसाद दीक्षित जी से अच्छी पहचान हो गई थी। आकाशवाणी और दूरदर्शन के कार्यक्रम प्रभारियों से भी मुलाकातें हुईं। एक बार अपनी संस्था के एक कार्यक्रम में मुझे किसी प्रख्यात साहित्यकार को मुख्य अतिथि के तौर पर आमंत्रित करना था। मेरा कार्यालय हजरतगंज के नवल किशोर रोड में था। ‘हजरतगंज लखनऊ का दिल है’ कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। मैं उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के कार्यालय में गया! वहां से मुझे लखनऊ के एक से एक विख्यात साहित्यकारों की जानकारियां मिली। मैं कुछ विशेष ही करना चाहता था। मैं पार्क  रोड स्थित उत्तर प्रदेश जन संपर्क विभाग के कार्यालय में पहुंचा। वहां विजय राय से मिला। विजय राय मुंशी प्रेम चंद के पोते हैं-भतीजे का बेटा। मेरे मन में कथा सम्राट मुंशी प्रेम चंद की जो छवि बसी हुई थी, वे उससे बिल्कुल उलट बढि़या पेंट-शर्ट में थे। मैंने उनको अपना परिचय देने के पश्चात अपने आने का प्रयोजन उन्हें बताया। उन्होंने असमर्थता व्यक्त की और कहा कि जगूड़ी जी से पूछ लो! जगूड़ी जी, मैंने बगल वाले केबिन के बाहर दरवाजे में टंगे नेम प्लेट पर नजर डाली। मेरा मन प्रसन्नता से भर गया! बोर्ड पर लीलाधर जगूड़ी, संयुक्त निदेशक, उत्तर प्रदेश, सूचना एवं जन संपर्क विभाग लिखा हुआ था । मैं दरवाजे पर नॉक करके अंदर प्रविष्ट हुआ और अपना परिचय दिया। ‘पहाड़ी हो?’ उनका पहला प्रश्न था। ‘जी सर।’ मेरा उत्तर था! उन्होंने मुझे कुर्सी पर बैठने के लिए कहा और घंटी बजाई। चपरासी आया तो पानी लाने के लिए कहा। ‘कहां से हो’ -उन्होंने पूछा। ‘जी, हिमाचल से हूं,  कुल्लू से।’ ‘मैं भी पहाड़ से हूं, गढ़वाल से।’ ‘जानता हूं सर।’ मैंने कहा। ‘कैसे’-उन्होंने पूछा। ‘सर! आपकी बहुत सी कविताएं-कहानियां विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में पढ़ी हैं।’

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मुझे पहाड़ी जानकर वे इतने खुश हुए कि हम दोनों ही पहाड़ के बारे में एक-दूसरे को बताने के लिए जैसे होड़ करने लगे। ‘हमारे यहां सेब होते हैं, हमारे यहां भी। हमारे यहां अखरोट के बड़े-बड़े पेड़ होते हैं, हमारे यहां भी! हमारे यहां बुरांश के फूल होते हैं, हमारे यहां भी! घराट होते हैं, देवदार के पेड़।’ वे बोलते जा रहे थे और मैं हां में हां मिलाता जा रहा था। आखिर में वे बोले, ‘वैसे कहीं जाता नहीं हूं, लेकिन क्योंकि आप अपने पहाड़ी हैं, इसलिए मैं अवश्य आऊंगा।’ वे बाद में उस कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के तौर पर पधारे और वह प्रोग्राम उनकी वक्तृत्व कला, जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण के फलस्वरूप पूरा हाल तालियों की गड़गड़ाहट से देर तक गूंजता रहा। साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त किसी भी विख्यात साहित्यकार से इतनी अंतरंगता से मिलने का मेरा शायद यह पहला अनुभव था। बाद में 2004 में उन्हें पद्मश्री पुरस्कार से भी अलंकृत किया गया। अब मेरी ये सुनहरी यादें मुझे हमेशा प्रसन्नता और अपनेपन से भर देती हैं। चूंकि मैं अपना नाम शेर सिंह ही लिखता और बताता हूं, कभी अपने नाम के साथ अपने कुलनाम, उपनाम शर्मा का उल्लेख नहीं किया। जो मुझे व्यक्तिगत रूप से नहीं जानते हैं, उन्हें मैं क्या लगता हूंगा, पता नहीं। लेकिन मैंने इसकी कभी परवाह नहीं की। 2014 में जब मेरी दूसरी बार लखनऊ में पोस्टिंग हुई तो जगूड़ी जी उत्तराखंड सरकार से सेवानिवृत्त हो चुके थे । उत्तराखंड राज्य बनने के बाद वे देहरादून आ गए थे। सेवानिवृत्ति के पश्चात अब स्थायी तौर पर अपने घर देहरादून में रह रहे हैं। श्री विजय राय साहब भी सेवानिवृत्त होकर एक साहित्यिक पत्रिका ‘लमही’ निकाल रहे हैं।

‘लमही’ प्रेमचंद जी की जन्मभूमि और कर्मभूमि थी। इसलिए उन्होंने उस नाम से पत्रिका शुरू की है। कार्यालय के काम के सिलसिले में मेरा लखनऊ से बनारस बहुत आना-जाना रहा। हफ्तों के हिसाब से वहां प्रवास भी करना पड़ता था। बाबा विश्वनाथ के मंदिर में दर्शन तथा सायंकाल गंगा घाट पर गंगा आरती देखने से जिस अलौकिक, सुखद एवं आंतरिक खुशी का एहसास होता है, वह अद्भुत और अवर्णनीय है! बनारस के पास ही लमही गांव व कबीर का स्मारक है। मुझे अब अफसोस होता है, मैं उन जगहों में नहीं जा पाया। कबीर स्मारक को देखने का बहुत मन था, लेकिन अब मन में मलाल ही रह गया है! मैं इस बार विजय राय जी से शिष्टाचारवश उनके निवास स्थान विवेक खंड, गोमती नगर में मिला। उन्हें अपना कविता संग्रह ‘मन देश है, तन परदेश’ की एक प्रति भी भेंट की। वे खुश थे।

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उन्होंने आदरपूर्वक मुझे अपने ड्राइंगरूम में बिठाया। हमने विभिन्न विषयों पर बातें की। चाय-पानी हुआ। लेकिन उन्होंने अपनी पत्रिका में मेरे कविता संग्रह के बारे में कभी कोई उल्लेख नहीं किया!

शेर सिंह, नाग मंदिर कालोनी, शमशी, कुल्लू, हिमाचल प्रदेश-175126

E Mail: shersingh52@gmail.com


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