क्यों रूठ गया है आम आदमी ?

By: Jun 12th, 2018 12:10 am

डा. भरत झुनझुनवाला

लेखक, आर्थिक विश्लेषक एवं टिप्पणीकार हैं

सरकार को चाहिए कि फसलों की खरीद के दाम को बढ़ाने के बजाय किसान को सीधे भूमि के आधार पर सबसिडी दे। वर्तमान में फूड कारपोरेशन दाल को ऊंचे दाम पर खरीदेगी तथा इसे सस्ते दाम पर बेचेगी। इस लेन-देन में फूड कारपोरेशन को लगा हुआ घाटा अप्रत्यक्ष रूप से किसान को दी गई सबसिडी है। इस घुमावदार रास्ते से किसान को सबसिडी देने के स्थान पर सीधे भूमि के क्षेत्र के आधार पर किसान को सबसिडी दे देनी चाहिए, जैसे-हर किसान को 5 हजार रुपए प्रति एकड़ की सबसिडी दे दी जाए और दाल के दामों को गिरने दिया जाए, तो किसान को समस्या नहीं होगी…

कर्नाटक एवं हाल के उपचुनावों में भाजपा को मिली हार से संकेत मिलता है कि आम आदमी सरकार के कार्य से प्रसन्न नहीं है। इस समस्या से उबरने के लिए भाजपा को तीन नीतियों पर पुनर्विचार करना चाहिए। पहला विषय तेल के बढ़ते अंतरराष्ट्रीय दामों का है। दो वर्ष पूर्व विश्व बाजार में तेल का दाम लगभग साठ डालर प्रति बैरल था, जो इस समय बढ़ कर अस्सी डालर प्रति बैरल हो गया है। तदानुसार भारत में पेट्रोल तथा डीजल के दाम में भी भारी वृद्धि हुई है। इससे मध्यमवर्गीय लोग सीधे प्रभावित हो रहे हैं। इन्हें अपनी कार अथवा स्कूटर में पेट्रोल अथवा डीजल डालने के लिए अधिक रकम अदा करनी पड़ रही है। जनता यह नहीं समझती है कि यह वृद्धि सरकार के कारण नहीं, बल्कि विश्व बाजार के कारण है, फिर भी पेट्रोल के दाम में वृद्धि को नियंत्रित करने में सरकार की भूमिका है। पेट्रोल के दाम में सरकार द्वारा वसूले गए टैक्स का भारी हिस्सा होता है। फिलहाल सरकार ने तेल पर टैक्स की दरों को पूर्ववत बनाए रखा है। सरकार के सामने ये विकल्प हैं- तेल पर लगाए गए टैक्स को घटाए, वर्तमान दर को बनाए रखे अथवा इनमें वृद्धि करे। जनता की मांग है कि सरकार टैक्स में कटौती करे, जिससे बढ़ते अंतरराष्ट्रीय दाम से उपभोक्ता को कुछ राहत मिल सके, लेकिन मेरी दृष्टि में यह सही नीति नहीं होगी। कारण यह है कि हम आयातिक तेल पर निर्भर हो गए हैं। हमारे आयातों में तेल का हिस्सा लगभग तीस प्रतिशत है। तेल पर टैक्स को घटाकर तेल के दाम को न्यून बनाए रखने से बाजार में तेल के दाम में वृद्धि नहीं होगी और तेल की खपत पूर्ववत बनी रहेगी, जैसे-विश्व बाजार में तेल के दाम बढ़ रहे हैं, हमें इनके आयात के लिए अधिक रकम अदा करनी पड़ेगी। इसलिए जरूरी है कि हम तेल की खपत को घटाएं।

यहां दो परस्पर उद्देश्य हमारे सामने आ रहे हैं। एक तरफ जनता को तेल के बढ़ते हुए दाम से राहत देनी है, तो दूसरी तरफ देश की आयातित तेल पर निर्भरता को भी घटाना है। यदि सरकार तेल पर टैक्स को घटाती है, तो जनता को राहत मिलती है, लेकिन हमारी आयतों पर निर्भरता बनी रहती है। इसके विपरीत यदि सरकार तेल पर टैक्स की वर्तमान दरों को बनाए रखती है अथवा इन्हें बढ़ाती है, तो जनता को राहत नहीं मिलती है, यद्यपि हमारी आयातों पर निर्भरता कुछ कम होती है। इन दोनों परस्पर विरोधी उद्देश्यों को साधने का एक उपाय यह है कि सरकार तेल पर लगाए गए टैक्स की वर्तमान दरों को बनाए रखे अथवा बढ़ाए और साथ-साथ जीएसटी में छूट दे। तेल के बढ़े हुए दाम से टैक्स अधिक वसूल करे, लेकिन उस टैक्स का उपयोग अपने राजस्व को बढ़ाने के बजाय दूसरी तरफ जनता को हस्तांतरित कर दे। जनता को तेल के अधिक दाम देने पड़ेगे, लेकिन शेष सभी वस्तुओं पर कम दाम देना पड़ेगा, जिससे जनता तेल के अधिक दामों से त्रस्त नहीं होगी। हमारी आयात पर निर्भरता कम होगी। सरकार के सामने दूसरी चुनौती छोटे एवं मंझले उद्योगों को साधने की है। इस समय अर्थव्यवस्था की विकास दर 6.7 प्रतिशत के बीच टिकी हुई है। यह विश्व के प्रमुख देशों में अधिकतम है, परंतु हमारे पूर्व की विकास दर से कम है। आश्चर्य यह है कि विकास दर के मंद बने रहने के बावजूद शेयर बाजार में भारी उछाल आ रहा है।

बीते समय में सेंसेक्स 29 हजार के स्तर से बढ़कर आज लगभग 34 हजार तक आ गया है। दोनों विरोधाभासी तथ्यों का रहस्य यह है कि कुल अर्थव्यवस्था मंद है, लेकिन बड़े उद्योंगों का हिस्सा बढ़ गया है। छोटे उद्योगों का हिस्सा संकुचित हो गया है, जैसे घर की कुल आय में गिरावट आए, लेकिन बड़े भाई की आय में वृद्धि हो, ऐसी हमारी परिस्थिति है। छोटे उद्योगों के संकुचित होने से आने वाले समय में दो प्रभाव सामने आएंगे। पहला प्रभाव यह कि छोटे उद्योगों में कार्यरत कर्मचारियों की संख्या कम होने से रोजगार कम होंगे। हाल के आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2014 से 2018 के बीच सामान्य कर्मचारी के वेतन में गिरावट आई है। इसका एक कारण यह है कि छोटे उद्योग दबाव में आए हैं, जो कि अधिकतर रोजगार बनाते थे। दूसरा प्रभाव यह पड़ेगा कि आम आदमी के रोजगार घटने से उसकी क्रय शक्ति घटेगी और बाजार में कुल मांग में गिरावट आएगी, जो अंततः बड़े उद्योगों को भी नीचे खीचेंगे। अतः सरकार को चाहिए कि छोटे उद्योगों को राहत देने के लिए उपाय करे। जीएसटी तथा डिजिटल इकॉनोमी ने छोटे उद्योगों को काफी नुकसान पहुंचाया है। सरकार को चाहिए कि जीएसटी से छोटे उद्योगों को राहत देने के लिए ठोस कार्यक्रम हाथ में ले, जिससे कि रोजगार और जमीनी अर्थव्यवस्था में मांग पुनः स्थापित हो। सरकार के सामने तीसरी चुनौती किसानों की है। वर्तमान समय में हम देख रहे हैं कि दाल का उत्पादन अधिक होने से बाजार में दाम गिर गए हैं। किसान फिलहाल जीवित है, क्योंकि बढ़े हुए दाम पर सरकार दाल को खरीद रही है, लेकिन यह परिस्थिति टिकाऊ नहीं है। अंततः सरकार ऊंचे दाम पर खरीदकर इन दालों का करेगी क्या, लेकिन सरकार ने घोषणा कर रखी है कि उत्पादन लागत से 50 प्रतिशत बढ़ाकर किसान को कृषि उत्पादों का मूल्य अदा किया जाएगा। इस बढ़े हुए दाम पर उत्पादन बढ़ेगा और साथ में बाजार में दाम गिरेगा। अंततः फूड कारपोरेशन के पास दाल, गेहूं इत्यादि का भारी भंडार एकत्रित हो जाएगा, जिसका निस्तारण लगभग असंभव होगा। इस समस्या का कारण यह है कि सरकार चाहती है कि उत्पादन बढ़ा करके किसान को राहत दी जाए, लेकिन जैसा ऊपर बताया गया है उत्पादन बढ़ने के साथ यदि दाम घट जाते हैं, तो इसके लिए बांधा हुआ उत्पादन अभिशाप बन जाता है। सरकार को चाहिए कि फसलों की खरीद के दाम को बढ़ाने के बजाय किसान को सीधे भूमि के आधार पर सबसिडी दे।

वर्तमान में फूड कारपोरेशन दाल को ऊंचे दाम पर खरीदेगी तथा इसे सस्ते दाम पर बेचेगी। इस लेन-देन में फूड कारपोरेशन को लगा हुआ घाटा अप्रत्यक्ष रूप से किसान को दी गई सबसिडी है। इस घुमावदार रास्ते से किसान को सबसिडी देने के स्थान पर सीधे भूमि के क्षेत्र के आधार पर किसान को सबसिडी दे देनी चाहिए, जैसे-हर किसान को 5 हजार रुपए प्रति एकड़ की सबसिडी दे दी जाए और दाल के दामों को गिरने दिया जाए, तो किसान को समस्या नहीं होगी, क्योंकि उसे कुछ रकम सीधे मिल रही है। तब बाजार के भाव के अनुसार दाल, गेहूं, चावल इत्यादि का उत्पादन होगा और सरकार के ऊपर इन फसलों को महंगा खरीदकर सस्ता बेचने का संकट टल जाएगा। सरकार को चाहिए कि तेल पर टैक्स बढ़ाकर जीएसटी की दर में कटौती करे, छोटे उद्योगों को जीएसटी से राहत देने के लिए कदम उठाए तथा किसानों को भूमि आधारित सबसिडी दे।

ई-मेल : bharatjj@gmail.com

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