जम्मू-कश्मीर सरकार का अंत

By: Jun 29th, 2018 9:17 pm

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

लेखक, वरिष्ठ स्तंभकार हैं

बुखारी और औरंगजेब की हत्या के बाद महबूबा मुफ्ती को कोई साहसिक निर्णय लेना था। उसकी पार्टी को अब कौन सा रास्ता चुनना है, अलगाववादियों की सहानुभूति से सीटें जीतने का पुराना रास्ता या फिर शांति स्थापना का नया रास्ता।  लेकिन लगता है वह निर्णय नहीं कर पाई और भाजपा के पास कोई विकल्प नहीं बचा था। भाजपा तो मध्यम मार्गी नहीं हो सकती थी। उसके लिए कश्मीर में व्याप्त समस्याओं का तार्किक समाधान करना उसकी विरासत का हिस्सा था। उसने पीडीपी को लेकर एक प्रयोग यह भी किया था…

जम्मू-कश्मीर सरकार का अंत हो ही गया। भारतीय जनता पार्टी ने पीडीपी सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया। इससे मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती को त्यागपत्र देना पड़ा। दूसरी कोई भी सरकार बनने की संभावना नहीं थी, इसलिए चौबीस घंटे के अंदर-अंदर प्रदेश में राज्यपाल का शासन लागू हो गया। आखिर सरकार गई क्यों? इस प्रश्न का उत्तर खोजने से पहले यह पता लगाना जरूरी है कि आखिर सरकार बनी ही क्यों थी? पीडीपी यानी पीपल्ज डेमोक्रेटिक पार्टी और भारतीय जनता पार्टी का आपस में वैचारिक आधार दूर-दूर तक नहीं मिलता था, लेकिन फिर भी दोनों ने मिलकर सरकार बनाई थी। पीडीपी के 28 विधायक थे और भाजपा के पच्चीस विधायक थे। कांग्रेस के 15 और अब्दुल्ला परिवार की नेशनल कान्फ्रेंस के 12 विधायक थे। सात निर्दलीय थे। इस गणित में 86 सदस्यीय विधानसभा में भाजपा या पीडीपी को शामिल किए बिना प्रदेश में कोई भी सरकार नहीं बन सकती थी। पीडीपी ऐसी सरकार का हिस्सा नहीं हो सकती थी, जिसमें नेशनल कान्फ्रेंस शामिल हो और भारतीय जनता पार्टी किसी ऐसी सरकार का हिस्सा नहीं हो सकती थी, जिसमें सोनिया कांग्रेस शामिल हो। अतः भाजपा और पीडीपी की सरकार के बिना कोई विकल्प ही नहीं था। विधानसभा के लिए चुनाव जिस उत्साह से हुआ था और लोगों ने जिस जोशोखरोश के साथ चुनावों में हिस्सा लिया था, उसके बाद भी सरकार न बना पाना गलत संकेत देता। यही कारण था कि भाजपा और पीडीपी ने अपने मूल मुद्दों को परे रखकर कॉमन मिनिमम प्रोग्राम के आधार पर सरकार बनाने का निर्णय किया। वैसे कश्मीर में पीडीपी मोटे तौर पर उस समूह का बदले हुए रूप में प्रतिनिधित्व करती है, जिसे शेख अब्दुल्ला के वक्त में ‘बकरा पार्टी’ कहा जाता था। उन दिनों बकरा पार्टी की निष्ठा पाकिस्तान के प्रति थी और इक्कीसवीं शताब्दी में पीडीपी के समर्थन का आधार अलगाववादी ही माने जाते हैं।

कम से कम बकरा पार्टीनुमा लोगों की हिमायत पीडीपी को हासिल थी या है। इसलिए जब पीडीपी ने राष्ट्रवादी तत्त्वों का प्रतिनिधित्व करने वाली भाजपा से हाथ मिलाया, तो बकरा पार्टी का सींग उठाना स्वाभाविक ही था। इधर जम्मू में यह प्रश्न उठना भी लाजिमी था कि भाजपा पीडीपी जैसी बकरों से समर्पित पार्टी से हाथ कैसे मिला सकती है, लेकिन जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनावों में पीपल्ज वरडिक्ट के आधार पर तो यही सरकार बन सकती थी, परंतु लगता है महबूबा मुफ्ती अंत तक बकरा पार्टी के वैचारिक आधार और प्रशासन की सीमाओं में संतुलन साधने में ही लगी रहीं और अंततः उसमें असफल हो गईं। अब वह कह रही हैं कि मैंने ग्यारह हजार पत्थर फेंकने वाले युवकों को रिहा कर दिया। इसका सीधा अर्थ है वह बकरा पार्टी के प्रभाव में ही काम कर रही थीं। बीच-बीच में उनकी सरकार सशस्त्र बलों के जवानों पर एफआईआर भी दर्ज करवाती थी। इसका सीधा अर्थ यह है कि वह उस क्षेत्र में प्रवेश कर गई थीं, जहां उन्हें मुख्यमंत्री के रूप में नहीं जाना चाहिए था। वह क्षेत्र अलगाववादियों का वैचारिक क्षेत्र था।

वैसे तो महबूबा मुफ्ती की पार्टी के लिए यह कोई नया क्षेत्र नहीं था। इसी क्षेत्र ने उनकी पार्टी को पाला-पोसा था, लेकिन इस सरकार के नए प्रयोग से आम कश्मीरी को लगने लगा था कि शायद पीडीपी भी अलगाववादियों के छायाजाल से मुक्त होकर घाटी में शांति स्थापना के लिए सचमुच काम करेगी। सरकार के इस प्रयोग से उत्साहित होकर ही कश्मीर घाटी के लोग और कश्मीर पुलिस के सिपाही भी आतंकवादियों से लोहा लेने लगे थे, लेकिन शायद महबूबा मुफ्ती अब अमन पसंद करने वाले कश्मीरियों के साथ कदम से कदम मिलाकर चल पाने में स्वयं को असमर्थ पा रही थी। सुरक्षा बल आतंकियों का सफाया करने में लगे थे और महबूबा सुरक्षा बलों को घेरने वाले पत्थरमारों को बचाने की कोशिश किसी न किसी बहाने करती नजर आ रही थी। दरअसल कश्मीर घाटी में लड़ाई उस दौर पर पहुंच गई थी कि उन्हें किसी एक के साथ साफ तौर पर खड़े होना ही पड़ेगा या तो आम कश्मीरी के साथ या फिर बकरों के साथ। आतंकवादियों द्वारा शुजात बुखारी और एक और गुज्जर सैनिक औरंगजेब की अमानुषिक हत्या इस बात के स्पष्ट संकेत थे कि अब महबूबा ज्यादा देर मध्यम मार्गी नहीं हो सकती थी। महबूबा मुफ्ती की अपनी सीमाएं हैं तथा जिन अलगाववादियों ने कभी पीडीपी का समर्थन किया था, उनका नियंत्रण सीमापार के शासकों के हाथ में है। उन शासकों की इस छद्म युद्ध को लेकर एक पूरी रणनीति है। वे कश्मीर घाटी में काम कर रहे अलगाववादी गुटों या फिर उनके प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष समर्थन से पले-बढ़े राजनीतिक दलों को उस निर्धारित रणनीति से एक इंच भी दाएं-बाएं होने की अनुमति नहीं देते। शुजात बुखारी की निर्मम हत्या को इसी परिप्रेक्ष्य में देखना होगा। बुखारी मोटे तौर पर वह सब कुछ लिखते-कहते थे, जो अलगाववादियों को पसंद था। वह अपने तरीके से सुरक्षा बलों की कार्रवाई का विरोध ही करते थे। प्रत्यक्ष या परोक्ष पत्थरमारों का भी वह समर्थन करते थे, लेकिन अब वह कश्मीर घाटी में शांति स्थापना की बात भी करने लगे थे। बुखारी के पास भी शांति स्थापना की बात करने के सिवाय दूसरा विकल्प नहीं था। वह स्वयं भी सीधे या टेढ़े तरीके से पीडीपी से जुड़े हुए माने जा सकते थे। उनका भाई महबूबा मुफ्ती की सरकार में मंत्री था। अलगाववादियों के समर्थन से सीटें जीतने वाली पीडीपी अब सत्ता में थी। इसलिए वह घाटी में शांति की इच्छुक थी। पीडीपी या महबूबा को अब अलगाववादियों के एजेंडा और शांति स्थापना के बीच संतुलन साधना था, लेकिन सीमापार के नियंत्रक इस क्षेत्र में अपनी रणनीति से हटकर किसी और प्रयोग के लिए थोड़ा सा स्पेस देने के लिए भी तैयार नहीं हैं। बुखारी इसी स्पेस तलाशने के चक्कर में अपनी जान से हाथ धो बैठे। अरसा पहले अब्दुल गनी लोन के साथ भी यही हुआ था। बुखारी और औरंगजेब की हत्या के बाद महबूबा मुफ्ती को कोई साहसिक निर्णय लेना था। उसकी पार्टी को अब कौन सा रास्ता चुनना है, अलगाववादियों की सहानुभूति से सीटें जीतने का पुराना रास्ता या फिर शांति स्थापना का नया रास्ता। लगता है वह निर्णय नहीं कर पाई और भाजपा के पास कोई विकल्प नहीं बचा था। भाजपा तो मध्यम मार्गी नहीं हो सकती थी, उसके लिए कश्मीर में व्याप्त समस्याओं का तार्किक समाधान करना उसकी विरासत का हिस्सा था।

उसने पीडीपी को लेकर एक प्रयोग यह भी किया था। इसी प्रयोग के कारण आम कश्मीरियों में आतंकवादियों से लोहा लेने का संकल्प और साहस पैदा हुआ था। जब तक आम कश्मीरी को अपनी ही सरकार की मंशा और नीयत का स्पष्ट पता न चल जाए, तब तक वह आतंकवादियों के खिलाफ अपनी आवाज कैसे बुलंद कर सकती है। इसी मोड़ पर आकर महबूबा मुफ्ती लड़खड़ा गई और उसने आम कश्मीरियों के विश्वास को तोड़ा। इसी मोड़ पर औरंगजेब की शहादत सरकार के आगे प्रश्न बनकर खड़ी हो गई है, महबूबा मुफ्ती उसका जवाब नहीं दे सकी। इस हालत में भाजपा के आगे भी कोई विकल्प नहीं बचता था, उसे कश्मीर घाटी के आम कश्मीरी के साथ चलना था, उसे औरंगजेब की शहादत को सलाम करना था। यह सलाम महबूबा मुफ्ती से समर्थन वापस लेकर ही किया जा सकता था। इसने वैसा ही किया।

ई-मेलः kuldeepagnihotri@gmail.com


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