नंगी तलवारों का जोश

By: Jun 22nd, 2018 12:05 am

जातीय समीकरणों का उतावलापन हिमाचल में पहले इस तरह प्रदर्शन नहीं करता था, लेकिन अब राजनीतिक कारणों से समाज अलग-अलग नजर आने लगा है। हम ऊना की घटना को माइक्रोस्कोप में देखें, तो सहज व सरल ढंग से जुलूस में तलवार का होना शायद न दिखाई दे, लेकिन नंगी तलवार का जोश अपनी सीमा और परंपरा नहीं जानता। कहने को पटाखे और धमाके के बीच फर्क कर सकते हैं, लेकिन बारूद की गंध हल्की होकर भी नाक को भर देती है। ऊना में भारतीय अस्मिता के प्रतीक महाराणा प्रताप की जयंती की शोभायात्रा में तलवारों का लहराना क्यों जरूरी हो गया और इस प्रकार के जश्न को हम सामान्य घटना क्यों मान लें। युवा टोलियां अपने नायक के प्रति हुंकार भर सकती हैं या आस्था के उद्घोष समवेत स्वर में सुने जा सकते हैं, लेकिन समाज के बीच किसी जाति या वर्ग विशेष की तरफदारी में तलवारें खड़ी कर देने से नई व आक्रामक परंपराएं शुरू हो सकती हैं। बेशक ऊना पुलिस ने कानूनी पहल के तहत संयमित कार्रवाई की और अनावश्यक टकराव रोक दिया, लेकिन ऐसे रास्तों में समाज को ही आगे बढ़कर जोश की परिभाषा बदलनी होगी। विडंबना यह है कि सामाजिक अनुभूतियों का संसार, जातीय विभूतियों का नया पटाक्षेप होता जा रहा है। इसी आधार पर सियासत के दर्प में नेतागिरी हावी होने लगी है। जातीय संवेदना के विद्रूप पक्ष को कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता। इससे व्यवस्था में अस्थिरता और सामाजिक संरचना में भय का माहौल उत्पन्न हो सकता है। ऊना में तलवारें लहराने का तर्क, न हमारा सामाजिक विकास और न ही साहसिक प्रयास माना जाएगा। इससे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी अपने अर्थ बदल सकती है। आज देश के माहौल में अशांति फैलाने की वजह ढूंढते ‘नायक’ को स्वीकार करें या उन शूरवीरों को याद करें, जिनके कारण देश का स्वाभिमान जिंदा है। जातीय स्वाभिमान किसी तलवार की नोक पर मापा नहीं जा सकता है और अगर ऐसे प्रयत्न बार-बार होंगे, तो हमारी सामाजिक और राष्ट्रीय निष्ठाएं भुरभुरा जाएंगी। पहले ही आरक्षण के नाम पर विभाजित संवेदनाएं, जातीय विशेषाधिकारों की पैमाइश में कुंठित हैं और अगर इसके ऊपर शौर्य चक्र घूमेगा तो ये दीवारें, अपने-अपने वजन से दिखाई देंगी। हम जिस युग में मानवता की कठिन परीक्षा दे रहे हैं, वहां सामाजिक उद्बोधनों की शालीनता ही भविष्य की गारंटी है। बेशक हिमाचली वीरता का इतिहास हमें जातियों और समुदायों से ऊपर एक ऐसा समाज बनाता है, जो देश के प्रति प्राणों की आहुति देने से नहीं रोकता। हिमाचली युवाओं में फौज की भर्ती जीवन का सबसे बड़ा मुकाम है, तो इसीलिए यहां का हर घर देश के लिए पहरेदारी करता है। बावजूद इसके कि हमारे नायक जनरल जोरावर सिंह व वजीर राम सिंह पठानिया सरीखे रहे, हमारा शौर्य किसी जुलूस का नंगा प्रदर्शन नहीं हो सकता। हिमाचली शहादत का इतिहास देखेंगे, तो कमोबेश हर जाति और वर्ग से कई सपूत हथियारों के साथ काल में समा गए, ताकि देश जिंदा रहे। दुर्भाग्यवश अब शौर्य की शिनाख्त में बेपर्दा समाज अपने भाईचारे की निशानी भूल रहा है, तो राजनीति के गणित में हम जातिप्रथा के मुजारे हो गए। वर्ग का सीमांकन किसी जाति में होना उतना ही संकीर्ण है, जितना अतीत में ऐसी प्रथाओं के प्रचलन से होता रहा है। तलवारें लहराने के बजाय हिमाचली नायकों का अलंकरण कहीं अधिक जरूरी है। जिस वजीर राम सिंह पठानिया ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ सबसे पहले बगावत का झंडा बुलंद किया, उसे इसी रूप में ऐतिहासिक विवरण में स्थापित करने का संघर्ष अभी बाकी है। हिमाचल के चौक-चौराहों  पर नायकों की प्रतिमाएं अगर स्थापित होंगी, तो शौर्य का आकाश चारों दिशाओं में दिखाई देगा।


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