नीति आयोग की हथेली पर 

By: Jun 19th, 2018 12:05 am

नीति आयोग के समक्ष हिमाचली वकालत का न तो लहजा बदला और न ही अर्थ। एक लंबी आर्थिक दास्तान पुनः अपनी बेडि़यां खोलने के लिए प्रयासरत है, जबकि नीति आयोग अपने हीले हवालों में फंसा सीधा मार्गदर्शन नहीं कर रहा। मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने केंद्रीय मदद के जितने भी अध्याय नीति आयोग की बैठक में खोले, वे सभी हिमाचली अस्तित्व की बुनियाद सरीखे हैं। हिमाचल या अन्य किसी भी पहाड़ी प्रदेश की भौगोलिक व आर्थिक स्थिति का मूल्यांकन हमेशा से केंद्रीय मदद से बंधा है और अगर राजनीतिक तर्क बदल कर सोचा जाता रहा, तो विकास के पथ लहूलुहान ही रहेंगे। इसलिए 90:10 के अनुपात में पहाड़ को जीना सिखाया गया या जिसकी बदौलत हिमाचल ने चहुंमुखी विकास की गाथा लिखी। दूसरी ओर पर्वत की हथेली पर जौ जमाना इतना आसान नहीं कि मदद की दर बदल दी जाए या यह कहा जाए कि अब विकास के पहिए काफी घूम चुके हैं। पिछले कुछ सालों से केंद्रीय मदद के पहाड़े बदलते हुए हिमाचल को यह सिखाया जा रहा है कि मैदानी राज्यों के मानदंड के अनुरूप चले। यह असंभव तथा अन्यायपूर्ण होगा कि शांत पहाड़ी प्रदेश को आंहें भरने के लिए मजबूर किया जाए। पर्वतीय विकास में लागत को ही अगर देखा जाए, तो केंद्र की सौ फीसदी मदद भी कम पड़ेगी। सड़क निर्माण को ही लें, तो जिस लागत में मैदानी सड़क दस किलोमीटर पहुंच जाती है उसके मुकाबले हिमाचल जैसे राज्य में मात्र एक किलोमीटर ही पूरी होती है, तो विकास की दर में वित्तीय पैमाने भी इसी अनुपात में पूरे होने चाहिएं। नीति आयोग के सामने फरियादी बने हिमाचल को सर्वप्रथम भीख के दस्ताने खोलने पड़ेंगे और यह राजनीतिक इच्छाशक्ति से ही संभव होगा। दिक्कत यह नहीं कि हमारी सिंचाई या अन्य परियोजनाओं को माकूल धन नहीं मिला, बल्कि इस पहलू से है कि केंद्र में पर्वत की गवाही नहीं लगती। राष्ट्रीय संसाधनों की सौदेबाजी राजनीतिक आकार-प्रकार पर निर्भर करती है, तो शांतिप्रिय हिमाचल के तेवर कौन सुनेगा। जम्मू-कश्मीर या पूर्वाेत्तर राज्य अशांत रहते हैं, तो वहां केंद्रीय मदद से पूरी तरह भरी गगरिया छलकती है और इधर हम राष्ट्र के नाम कुर्बानियों की संवेदना उंडेल कर भी देश के सामने दोयम हो जाते हैं। बिहार-उत्तर प्रदेश या अन्य बड़े राज्य भले ही केंद्रीय संसाधनों के फायदे में अव्वल तथा कार्यान्वयन में निक्कमे हों, लेकिन सियासी मापदंड में दिल्ली का दिल वहीं धड़कता है। ऐसे में नीति आयोग के मानदंड क्यों हिमाचल की सिफारिश करेंगे। जब कभी राष्ट्रीय संसाधनों की समीक्षा आवश्यक दिखाई देती है, तब या तो बड़े राज्य जीतते हैं या अशांत पर्वतीय राज्य विजयी मुद्रा में रहते हैं। देश की शहादत में तीस फीसदी हिस्सेदारी करने वाले हिमाचल को अपने वैध अधिकार पाने का भी हक नहीं, तो हमारी फरियाद का असर है क्या। क्या हमने पौंग जलाशय के लिए देश का सबसे बड़ा विस्थापन नहीं झेला। क्या भाखड़ा बांध की बदौलत आई हरित क्रांति का हल हमारे सीने पर नहीं चला। क्या पंजाब पुनर्गठन की हमारी हिस्सेदारी पर यूं ही बट्टा लगता रहेगा या हमारे अपने खेत बांधों के किनारे पर सूखे रहेंगे। अगर नीति आयोग अपने अर्थों में सही साबित होना चाहता है, तो विकास के सूचक और पैमाने दुरुस्त करने होंगे। पर्वतीय राज्यों की अस्मिता समझने के लिए जब तक अलग से केंद्रीय पर्वतीय राज्य विकास मंत्रालय स्थापित नहीं होता, हिमाचल जैसे शांत राज्य की तकदीर पर बड़े राज्यों की राजनीति सवार रहेगी। हमें पड़ोसी जम्मू-कश्मीर की तर्ज पर राष्ट्रीय योजनाओं-परियोजनाओं का आबंटन और राष्ट्र की नेक नीयत चाहिए।


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