नोटबंदी से खत्म नहीं हुआ कालाधन

By: Jun 21st, 2018 12:10 am

पीके खुराना

लेखक, वरिष्ठ जनसंपर्क सलाहकार और विचारक हैं

पिछले चार वर्षों में हमने लोकतंत्र को भीड़तंत्र में बदलते देखा है। नरेंद्र मोदी विकास के नाम पर नेता बने थे। गुजरात माडल उनके नजरिए का प्रतीक था। मोदी ने बहुत से अच्छे काम किए, लेकिन भीड़ को साथ लेकर चलने की उनकी लालसा ने उन्हें सच, झूठ और फरेब की चाशनी का रसिया बना दिया। नोटबंदी एक बड़ी गलती थी, लेकिन अपनी गलती मानने और उसे सुधारने के बजाय मोदी ने नोटबंदी को सही ठहराने के लिए हर हद पार कर दी। अब यह सच सबके सामने है कि उससे देश के अंदर के काले धन का खात्मा नहीं हुआ…

कोई नेता देश के विकास के लिए कोई नई बात कहता है, कोई अच्छी बात कहता है और कुछ करके दिखाता है, तो उसका समर्थन बढ़ता है। समर्थन बढ़ा है, तो नेता के पीछे लगी भीड़ बढ़ती है। भीड़ बढ़ती है, तो नेता का गुरूर बढ़ता है। नेता को समझ आने लगता है कि उसकी बातें पसंद की जाने लगी हैं, लोग उससे प्रभावित हो रहे हैं। फिर अगर वह नेता किसी अनजान जगह पर चला जाए, जहां लोग उसे पहचानते न हों, तो उसे बड़ा अटपटा लगता है। उसकी नजरें ऐसे लोगों को खोजने लगती हैं, जो उसे पहचानते हों। उसे भीड़ की आदत पड़ जाती है। भीड़ उसकी भूख बन जाती है। भीड़, बड़ी भीड़, और बड़ी भीड़! परिणाम यह होता है कि नेता भीड़ को ‘पटाने’ में व्यस्त हो जाता है। उसे हर हाल में भीड़ चाहिए, बड़ी भीड़ चाहिए। नेता का अपना नजरिया होता है, नया नजरिया होता है, इसलिए वह नेता है, लेकिन भीड़ का अपना मनोविज्ञान होता है। नेता अगर भीड़ के मनोविज्ञान को न समझ पाए, तो नेतागिरी जा सकती है। नेतागिरी बचाए रखने के लिए नेता को भीड़ के मनोविज्ञान को समझना पड़ता है। यह समझना पड़ता है कि भीड़ क्या सुनना और क्या देखना चाहती है, अन्यथा जनता उसे कूड़ेदान में डाल देती है। यही वह स्थिति है जब नेता का रिमोट जनता के नहीं, भीड़ के हाथ में चला जाता है।

भीड़ को साथ लेकर चलने वाला नेता खुद बहुत कमजोर होता है, लेकिन भीड़ को संभाल सकने वाला यही नेता बहुत शक्तिशाली भी होता है। इस विरोधाभासी तथ्य को समझना आवश्यक है। भीड़ नहीं तो नेता नहीं, यह नेता की कमजोरी है। इसलिए वह सच-झूठ-फरेब सब मिलाकर बातें करता है, ताकि भीड़ को अपने साथ लगाए रख सके। भीड़ के समर्थन के लिए उसे भीड़ को उकसाए रखना पड़ता है, डराए रखना पड़ता है, ताकि भीड़ एक अनजान खतरे से डरकर उसे अपना मसीहा मानती रहे। खतरा हो या न हो, खतरा दिखते रहना चाहिए, लेकिन ऐसा नेता खुद में कमजोर होने के बावजूद बहुत शक्तिशाली भी होता है, क्योंकि वह जनता को उकसा सकता है, दंगा करवा सकता है, बलवा करवा सकता है। यही वह मुकाम होता है, जहां एक लोकप्रिय नेता इतना ताकतवर बन जाता है कि उसके तानाशाह बनने में देर नहीं लगती। उसके सामने फिर न संविधान बड़ा होता है न कानून, क्योंकि बरसों की मेहनत से तैयार की गई उग्र भीड़ अपने नेता को हर अड़चन दूर करने वाले महामानव की तरह देखने लगती है और उस महामानव से असहमत होने वालों को देशद्रोही। अपनी बात को मनवाने के लिए जनता को भीड़ में बदल देना और इस भीड़ को हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने का रास्ता ऐसे मुकाम पर ले जाता है, जहां लोग जनतंत्र की बहुत सी स्थापित परंपराओं को गैरजरूरी मानने लगते हैं। उनके लिए अदालत, संविधान और कानून का कोई मतलब नहीं रह जाता। भीड़ का यह मिजाज लोकतंत्र को भीड़तंत्र में बदल देता है। समस्या यह है कि बहुत से बुद्धिजीवी स्वार्थवश भीड़तंत्र का समर्थन करने लगते हैं, क्योंकि भीड़तंत्र में ‘सुप्रीमो’ की हैसियत पा चुके किसी नेता की नजदीकी फायदेमंद होती है। दूसरी ओर भीड़ की मानसिकता में शामिल आम लोग अपने नेता को मसीहा मानने लगते हैं और उसकी हर सही-गलत बात का समर्थन करते हैं, उसका संदेश फैलाते हैं और उसके झूठ को भी सच साबित करने लगते हैं, उसकी हर गलती को नजरअंदाज ही नहीं करते, बल्कि उस गलती की सफाई में नए-नए तर्क गड़ लेते हैं, या फिर गड़़े गए तर्कों को सही मानने लगते हैं। पिछले चार वर्षों में हमने लोकतंत्र को भीड़तंत्र में बदलते देखा है। नरेंद्र मोदी विकास के नाम पर नेता बने थे। गुजरात माडल उनके नजरिए का प्रतीक था। मोदी ने बहुत से अच्छे काम किए, लेकिन भीड़ को साथ लेकर चलने की उनकी लालसा ने उन्हें सच, झूठ और फरेब की चाशनी का रसिया बना दिया। नोटबंदी एक बड़ी गलती थी, लेकिन अपनी गलती मानने और उसे सुधारने के बजाय मोदी ने नोटबंदी को सही ठहराने के लिए हर हद पार कर दी। अब यह सच सबके सामने है कि उससे देश के अंदर के काले धन का खात्मा नहीं हुआ। हम यह भी जानते हैं कि उससे नकली नोटों पर भी कोई प्रभावी अंकुश नहीं लग सका है, और अब हम यह भी जानते हैं कि इससे न पत्थर मारने वालों पर रोक लगी है और न आतंकवाद कम हुआ है। जो भाजपा बार-बार कश्मीर में आतंकवाद खत्म होने का हुंकारा भरती थी, अब उसी ने महबूबा मुफ्ती की पीडीपी पर यह इल्जाम लगाकर सरकार छोड़ी है कि कश्मीर में आतंकवाद बढ़ गया है। प्रचार की पराकाष्ठा यह है कि पीडीपी के साथ सरकार में शामिल होना भी देशभक्ति थी और सरकार से बाहर आना भी देशभक्ति है। मोदी आज भीड़ के हीरो हैं, लेकिन उनकी बातों में अब न सच्चाई है, न संवेदना है और न ही संकल्प है। अगर उनकी बातों में सच्चाई होती, तो वह अपने अच्छे कामों की प्रशंसा करते, पर साथ ही गलतियों पर अफसोस भी जताते, लेकिन वह अपनी गलतियों का ठीकरा दूसरों के सिर फोड़ रहे हैं। सेना पर हमले हो रहे हैं, इसे लेकर वह हिंदुओं को उकसा रहे हैं, लेकिन सेना की सुरक्षा के लिए कोई काम नहीं कर रहे हैं। उनकी रक्षामंत्री सैनिक मुद्दों पर ध्यान देने के बजाय उन मुद्दों पर राजनीतिक सफाइयां पेश करती नजर आती हैं, जिनसे उनके मंत्रालय का कोई वास्ता नहीं है। अब उनकी बातों में देश के विकास का संकल्प नहीं है, उनका हर बयान और हर काम वोट संख्या बढ़ाने के उद्देश्य से किया जा रहा है। समाज को बांटकर, अनजाने डर दिखाकर, डर की दुकान चलाकर वे अपनी राजनीति चमका रहे हैं और लोग इस भ्रम में हैं कि वे देश का विकास कर रहे हैं, जबकि वे तो रणनीतिक ढंग से लोकतांत्रिक संस्थाओं की हत्या कर रहे हैं, ताकि उनकी जवाबदेही न बने।

भीड़ का हीरो बनना अच्छा है जब भीड़ को सही दिशा दी जाए और उसे जागरूक नागरिक बनाया जाए, पर यहां सब उल्टा हो रहा है। कभी धर्म के नाम पर, तो कभी पाकिस्तान के नाम पर देशवासियों को डराया जा रहा है। असहमत होने वाले लोगों को न केवल अपमानित किया जा रहा है, बल्कि उन्हें देशद्रोही भी बताया जा रहा है। अभी इसी साल तीन राज्यों के विधानसभा चुनाव होंगे और फिर अगले साल लोकसभा चुनाव भी होने वाले हैं। खुद हमें ही जागरूक रहना होगा कि हम नेताओं के चंगुल में न फंसें, भीड़ का हिस्सा न बनें, बल्कि जागरूक नागरिक बनें, नेताओं से सवाल पूछें, सही सवाल पूछें, और तोल-परख कर निर्णय लें। इसी में लोकतंत्र का भला है, देश का भला है।

ईमेलः indiatotal.features@gmail. com


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