परमेश्वर सर्वशक्तिमान स्वामी विवेकानंद

By: Jun 23rd, 2018 12:05 am

गतांक से आगे…    

एक समय एक बड़ा राजा शिकार खेलने जंगल में गया। उसकी वहां एक साधु से भेंट हुई। थोड़ी देर की बातचीत से राजा साधु से इतना प्रसन्न हो गया कि उसने उनसे कहा, महाराज, कुछ भेंट स्वीकार कीजिए। साधु ने उत्तर दिया, नहीं, मैं पूर्ण संतुष्ट हूं। ये वृक्ष मुझे खाने को फल देते हैं। स्वच्छ जल के ये सुंदर झरने मेरी प्यास बुझाते हैं। मैं इन गुफाओं में सोता हूं। चाहे तुम सम्राट ही क्यों न हो, मुझे तुम्हारी भेंट की कोई चाह नहीं। सम्राट बोला, कम से कम मुझे पवित्र करने और संतोष देने के लिए तो आप कुछ भेंट स्वीकार कीजिए तथा मेरे साथ नगर में पधारिए। अंत में साधु मान गए और वे उस सम्राट के साथ महल में आए। वहां उन्होंने सोना, रत्न, संगमरमर तथा अन्य अत्यंत आश्चर्यजनक वस्तुएं देखीं। प्रत्येक स्थान में ऐश्वर्य और प्रभुता थी। सम्राट ने साधु से एक मिनट ठहरने के लिए कहा और एक कोने में जाकर प्रार्थना करने लगा, हे परमेश्वर, मुझे और अधिक धन दे और अधिक संतान दे और अधिक भूमि दे आदि-आदि। इधर साधु उठ खड़े हुए और चलने लगे। सम्राट ने जब देखा कि वह जा रहे हैं, तो उनके पीछे दौड़कर बोला, महाराज, ठहरिए। आपने मेरी भेंट तो स्वीकार ही नहीं की। साधु मुंह फेरकर बोले, भिखारी, मैं भिख मंगों से कुछ नहीं मांगता। तुम मुझे क्या दे सकते हो? तुम तो खुद ही मांग रहे थे। अतः यह प्रेम की भाषा नहीं है। यदि तुमने ईश्वर से मांगा, मुझे यह दे, वह दे, तो फिर तुम्हारे प्रेम में और दुकानदारी में अंतर ही क्या रहा? प्रेम का पहला लक्षण यह है कि प्रेम व्यापार नहीं जानता। प्रेम सदा देता ही आया है, लेता कभी नहीं। ईश्वर का पुत्र कहता है, यदि ईश्वर की इच्छा हो, तो मैं उसे अपना सर्वस्व देने को तैयार हूं, लेकिन इस दुनिया में उससे मैं कुछ नहीं चाहता। मैं उसे इसलिए प्यार करता हूं कि मैं प्यार करना चाहता हूं और बदले में कुछ चाह नहीं रखता। परमेश्वर सर्वशक्तिमान है या नहीं, यह जानने की मुझे क्या चिंता? मैं उससे न किसी प्रकार की सिद्धि चाहता हूं, न उसकी शक्ति की कोई अभिव्यक्ति। मेरे लिए इतना ही पर्याप्त है कि वह प्रेममय प्रभु है। इससे अधिक मैं और कुछ नहीं जानना चाहता। प्रेम का दूसरा लक्षण यह है कि वह भय नहीं करता। जब तक मनुष्य परमेश्वर की ऐसी कल्पना करता है कि वह एक हाथ में पुरस्कार और दूसरे हाथ में दंड लिए हुए बादलों के ऊपर बैठा हुआ एक व्यक्ति है, तब तक वहां प्यार नहीं हो सकता। क्या तुम डराकर किसी से प्यार करा सकते हो? मेमना क्या शेर से प्यार कर सकता है और चूहा, बिल्ली से या गुलाम, मालिक से? गुलाम कभी-कभी प्यार सा करता हुआ दिखाता है, पर क्या वह प्यार है? भय से प्यार तुमने कब और कहां देखा? वह तो सदैव एक विडंबना होती है।   प्यार के साथ भय का विचार कभी नहीं आता। मान लो, एक युवती मां सड़क से जा रही है। यदि उस पर कोई कुत्ता भौंकता है, तो वह पास वाले घर में झट से दौड़ जाती है। अब कल्पना करो कि दूसरे दिन वह अपने बालक को लिए हुए रास्ते से जा रही है और इतने में एक शेर झपट पड़ता है। उस दिशा में वह क्या करेगी? बच्चे को बचाने के लिए वह स्वयं को शेर के मुंह में डाल देगी। प्यार ने उसका सारा भय जीत लिया। इसी तरह ईश्वर के प्यार के विषय में जानो। किसे यह चिंता है कि ईश्वर दंड देने वाला है या पुरस्कार? प्रेमी के ऐसे विचार ही नहीं होते। मान लो, एक न्यायाधीश अपने घर  आता है।


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