पुरखों के संवाद
कल, आज और कल-ये तीन छोटे-छोटे शब्द कुछ लाख बरस का, लाख नहीं तो कुछ हजार बरसों का इतिहास, वर्तमान और भविष्य अपने में बड़ी सरलता से, तरलता से समेटे हुए हैं। बहुत ही सरलता से जुड़े हैं ये कल, आज और कल। हमें इसके लिए कुछ करना नहीं पड़ता। बस हमें तो यहां होना पड़ता है। यह होना – या कहें न होना भी – हमारे बस में नहीं है। फिर इन तीनों कालों में एक सरल तरलता भी है। इन तीनों के बीच लोग, घटनाएं, विचार, आचार, व्यवहार अदलते-बदलते रहते हैं…
मृतकों से संवाद और पुरखों से संवाद, ये दो अलग बातें हैं। इस अंतर में जीवन के एक रस का भास भी होता है। जो कल तक हमारे बीच थे, वे आज नहीं हैं। आज हम हैं और यह हमारा अनुभव है कि जो कल तक हमारे बीच थे, वे आज नहीं हैं। यह आज, कल और परसों भी आज के रूप में था और उससे भी जुड़े थे उसके कल और उसके परसों। बरसों से काल के ये रूप पीढि़यों के मन में बसे हैं, रचे हैं। कल, आज और कल-ये तीन छोटे-छोटे शब्द कुछ लाख बरस का, लाख नहीं तो कुछ हजार बरसों का इतिहास, वर्तमान और भविष्य अपने में बड़ी सरलता से, तरलता से समेटे हुए हैं। बहुत ही सरलता से जुड़े हैं ये कल, आज और कल। हमें इसके लिए कुछ करना नहीं पड़ता। बस हमें तो यहां होना पड़ता है। यह होना – या कहें न होना भी – हमारे बस में नहीं है। फिर इन तीनों कालों में एक सरल तरलता भी है। इन तीनों के बीच लोग, घटनाएं, विचार, आचार, व्यवहार अदलते-बदलते रहते हैं। इस अदला-बदली में जीवन और मृत्यु भी आते और जाते रहते हैं। सचमुच हम चाहें या न चाहें, जो कल तक हमारे बीच थे, वे आज नहीं हैं। किसी के होने का भाव न होने में बदल जाता है, एक क्षण में। फिर उस भाव के अभाव से हम सब दुखी हो जाते हैं। अपनों के इस अभाव से, हमारा यह भाव भी अभाव में बदल जाता है। दुख का अनुभव करने वाला हमारा यह मन, यह शरीर भी न जाने कब उसी अभाव में जा मिलता है, जिसके भाव को याद कर दुखी हो जाता है। तब स्मरण और विस्मरण शायद एक हो जाते हैं। बाकी क्या बचता है, बचा रह जाता है, यह मुझे तो मालूम नहीं। कभी इसे जानने-समझने का मौका ही नहीं मिला। जो कुछ भी सामने है, सामने आता-जाता है, उसी को ज्यादातर मन से, एकाध बार शायद बेमन से भी, पर करता चला गया। इसलिए इसके बाद क्या होता है, जीवन का भाव जब विलीन होता है तो जो अभाव है, वह क्या है, मृत्यु का है? इस पर कभी सोचा ही नहीं। जो उस खाने में जा बैठे हैं, जीवन के बाद के खाने में, मृत्यु के खाने में, उन मृतकों से मेरा कभी कोई संवाद नहीं हो पाया है। आज मैं कोई इकसठ बरस का हूं। जो संवाद अभी तक नहीं हो पाया, वह बचे न जाने कितने छिन-दिन हैं, उसमें क्या हो पाएगा, यह भी ठीक से पता नहीं है। मृतक और मृत्यु शायद दोनों ही संज्ञा हैं, पर बिलकुल अलग-अलग तरह की। मृतक को, मृतकों को, अपने आसपास से बिछुड़ चुके लोगों को, अपनों को और तुपनों को भी मैं जानता हूं। पहचानता भी हूं। पर वे जिस मृत्यु के कारण मृतक बन गए हैं, उस मृत्यु को तो मैं जान ही नहीं पाया। नचिकेता की कहानी तो बचपन में ही पढ़ी थी। जिसे जवानी कहते हैं, उसी उमर में फिर से पढ़ी थी यह कहानी। तब पढ़ते समय यह लगा था कि चलो मृत्यु से बिना मिले उस जवानी में ही अपने को फोकट में वह ज्ञान मिल जाने वाला है, जिसे जान लेने की इच्छा में न जाने कितने बड़े लोगों ने, तपस्वियों, संतों ने न जाने कैसी-कैसी यातनाएं अपने शरीर को दी थीं। लेकिन नचिकेता ने कोई तप नहीं किया था। अपने पिता के क्रोध के कारण वह यम के दरवाजे पर भूखा-प्यासा दो-तीन दिन जरूर बैठा रहा था। क्या पता उसने यम के दरवाजे पर आने से पहले अपने पिता के घर में हुए उत्सव में एक बालक के नाते थोड़ा ज्यादा ही पूरी-हलवा खा लिया हो! यम जितने भयानक बताए जाते हैं, उस समय तो वैसे थे नहीं। हमारा मृत्यु का यह देवता तो तीन दिन के भूखे-प्यासे बैठे बच्चे से घबरा गया! आज तो मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री आदि तीस-चालीस दिनों के झूठे तो छोडि़ए, सच्चे अनशनकारियों से भी नहीं घबराते। यम उसे पूरी दुनिया की दौलत, सारी सुख-सुविधाएं देने को तैयार थे, ऐसी भी चीजें, जिनकी शायद यम को जरूरत हो, पर उस बालक को तो थी ही नहीं। कीमती हीरे, मोती, अप्सराएं आदि लेकर वह बालक करता क्या। यह भी बड़ा अचरज है कि नचिकेता वायदों के इन तमाम पहाड़ों को ठुकराता जाता है। वह डिगता नहीं, बस एक ही रट लगाता रहता है कि मुझे तो वह ज्ञान दो जिसमें मैं मृत्यु का रहस्य जान जाऊं। सच पूछें तो मैं उस किस्से को इसी आशा में पढ़ता गया कि लो अब मिलने वाला है वह ब्रह्मज्ञान। यह उपनिषद् कुछ हजार बरस पुराना माना गया है। तब से यह उपनिषद् बराबर पढ़ा और पढ़ाया भी जाता रहा है। कितनों को इससे मृत्यु का ज्ञान मिल गया होगा, मुझे नहीं मालूम। पर यह कठोपनिषद मेरे लिए तो बहुत ही कठोर निकला। मैं इससे मृत्यु को जान नहीं पाया। मृतकों को तब भी जाना था और आज तो उस सूची में, उस ज्ञान में वृद्धि भी होती जा रही है। फिर इतना तो पता है किसी एक छिन या दिन इस सुंदर सूची में मुझे भी शामिल हो जाना है। उस सुंदर सूची को पढ़ने के लिए तब मैं नहीं रहूंगा। फिर वह सूची मेरे बाद भी बढ़ती जाएगी। इस सुंदर सूची को लिखने वालों में और सूची में शामिल किए गए लोगों के बीच क्या कुछ बातचीत, संवाद हो पाता है? होता है तो कैसा? जीवन और मृत्यु का, आज के जीवितों का, कल के मृतकों से संवाद कैसा होता होगा, कैसे होता होगा? मैं कुछ कह नहीं सकता। दुनिया के बहुत से समाजों में कई तरह के जादू-टोनों से लेकर आधुनिक ज्ञान-विज्ञान, आध्यात्म की गूढ़ चर्चाएं इस संवाद के तार जोड़ने की बात करती हैं। इसके अलावा साधारण गृहस्थों के भी खूब सारे अनुभव हैं। खासकर संकट के मौकों पर लोग बताते हैं कि दादा ने, काकी ने, नानी ने सपने में आकर ऐसा बताया, वगैरह। पर ये अनुभव प्रायः एकतरफा होते हैं। जैसलमेर जैसे मरुप्रदेश का उदाहरण देखें। वहां आज नए समाज के सबसे श्रेष्ठ माने गए लोगों ने पोखरण में अणु बम का विस्फोट किया है। पर उसके पास के गांव खेतोलाई को जरा देखें। वहां का सारा भूजल खारा है, पीने योग्य नहीं है। वहां लोग आज भी अपने खेत में छोटी-सी तलाई बनाते हैं। तालाब बनाते हैं। क्यों, कोई पूछे उनसे, तो उनका जवाब होगा, हमारे पुरखों ने बताया था कि तालाब बनाते जाना। पुरखों से उनका शायद संवाद नहीं होता। पर पुरखों ने बताया है, इसलिए वे तालाब बना रहे हैं। उनके मन में, उनके तन में, उनके खून में, उनकी कुदाल-फावड़े में पुरखे बसे हैं। वे उन्हें गीतों में, मुहावरों में, आचार में, व्यवहार में बताते चलते हैं। ये अपने पुरखों की बताई बातों को सुनते और उससे भी ज्यादा करते चलते हैं। यहां मृतकों से नहीं, पुरखों से संवाद होता है। मृतक हमें मृत्यु तक ले जाते हैं। फिर वहां संवाद नहीं रह जाता। पुरखे हमें जीवन में वापस लाते हैं। हमारे जीवन को पहले से बेहतर बनाते हैं।
-अनुपम मिश्र
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