प्रयास और प्रसाद

By: Jun 9th, 2018 12:05 am

बाबा हरदेव

संसार में इनसान को जो कुछ पाना होता है, वो परमात्मा को पीछे करके पाया जाता है यानी परमात्मा की तरफ पूरी पीठ करनी पड़ती है, इसके लिए संघर्ष चाहिए। इस सूरत में कर्ता होने के सभी कष्ट सहन करने पड़ते हैं, लेकिन परमात्मा को पाने के लिए मनुष्य की अपनी चेष्टा की जरूरत नहीं है…

जीवन के केवल दो ही ढंग हैं, एक संघर्ष का और दूसरा संपर्ण का। अब संघर्ष का अर्थ है मनुष्य की अपनी मर्जी और समर्पण का भाव है सृष्टि को चलाने वाले सृजनहार की रजा। अब संघर्ष मनुष्य की आम आदत है, क्योंकि इस सारे संसार में मनुष्य जो भी दुनियावी वस्तुएं प्राप्त करना चाहता है, वो इसे अधिकतर चेष्टा और संघर्ष से मिलती हैं। उदाहरण के तौर पर अगर इसे धन कमाना हो तो बैठे बिठाए नहीं मिलेगा। इसको प्राप्त करने के लिए मेहनत और संघर्ष की आवश्यकता है, दौड़-धूप करनी होगी। इसी प्रकार अगर यश कमान हो, तो भी भागदौड़ जरूरी है, परेशनी उठानी होगी, यानी कि कोई भी सांसारिक पदार्थ पाना हो, तो मेहनत और कोशिश जरूरी है। अतः भूल वश मनुष्य इस परंपरा से ये परिणाम निकाल बैठा है कि जब तुछ से तुछ दुनियावी वस्तुओं की प्राप्ति के लिए संघर्ष करना पड़ता है, तो ‘इस विराट’ को पाने में तो इससे भी ज्यादा दौड-़धूप की जरूरत होगी। अतः मनुष्य ये भूल अपनी सांसारिक गणित को सन्मुख रखते हुए अकसर कर बैठता है, परंतु इस जगत में जो साधारण दुनियावी सूत्र हैं, आध्यात्मिक जगत में बिलकुल इसके विपरीत हैं। संसार में इनसान को जो कुछ पाना होता है, वो परमात्मा को पीछे करके पाया जाता है यानी परमात्मा की तरफ पूरी पीठ करनी पड़ती है, इसके लिए संघर्ष चाहिए। इस सूरत में कर्ता होने के सभी कष्ट सहन करने पड़ते हैं, लेकिन परमात्मा को पाने के लिए मनुष्य की अपनी चेष्टा की जरूरत नहीं है।

पवित्र गुरवाणी का भी फरमान हैः-

जोरू न सुरती गिआनि वीचारि।

जोरू न जुगती छुटै संसारू।।

(आदि ग्रंथ)

अपणा लाया प्यार न लग्गे रब लावे तां लगदा ए।

बुझया होया दीवा जेकर गुरू जगावे जगदा ए।

(अवतार बाणी)

अब इस बात में कोई संदेह नहीं कि केवल संघर्ष कर्तापन को जन्म देता है जो आध्यात्मिक जगत में बुराइयों की जड़ समझा जाता है। वास्तव में  संघर्ष   से अहंकार का जन्म होता है। अतः परमार्थ में संघर्ष ऐसे ही है जैसे कोई प्राणी हवा के रुख के विपरीत चप्पू चलाकर नाव को पार करने की कोशिश में जुटा हो। दूसरे मायनों में परमार्थ में संघर्ष करने वाले मनुष्य वास्तव में इस भ्रम का शिकार होता है कि हर वस्तु अपनी इंद्रियों की मदद से प्राप्त की जा सकती है। मानो ऐसे मनुष्य भगवान से भी लड़ाई करता हुआ दिखाई देता है और अपनी आकांक्षाओं को पूरा करवाना चाहता है, चाहे इस की कामनाओं की प्राप्ति प्रार्थना से हो, पूजा से हो। मानों मनुष्य रावण की तरह अपने ही अहम से भारी होता चला जाता है। अब जितना ये भारी होगा उतना ही इसको नीचे जाने का खतरा है। ऐसा मनुष्य अहंकार रूपी पत्थर अपने गले में लटकाए हुए हैं। अतः जब मनुष्य भारी होता है, तो इससे दूसरों को भी चोट पहुंचती है, क्योंकि ऐसा मनुष्य हर समय आशा रखता है कि दूसरे लोग खास तौर पर इसका सत्कार करें।

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