प्राचीन ग्रंथों में भुंडा को नरमेघ यज्ञ लिखा गया
हिमाचल प्रदेश में प्राचीन काल से ही एक उत्सव मनाया जा रहा है। इसे भुंडा उत्सव कहते हैं। इसका सीधा संबंध खशों की नाग जाति पर विजय के साथ जोड़ा जाता है। प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में भुंडा को नरमेघ यज्ञ लिखा गया है…
विद्वानों का मत है कि खश मध्य एशिया के मूल निवासी थे। यह जाति पहाड़ों से होती हुई हिमालय क्षेत्र में आई थी। गिलगित की चितराल, काशगर, खशगिरी तथा कश्मीर और नेपाल में स्थापित कई नामों से इस बात का पता चलता है। कश्मीरियों को तिब्बती भाषा में प्रयोग किया जाने वाला ‘खदे’ शब्द स्पष्टतया ‘खश’ है। मोहनजोदड़ो सभ्यता के अंत में आर्यों के आगमन से पूर्व खश जाति ने ही आक्रमण किया था। हिमाचल की खश पूर्व जातियों कोल, किन्नर, किरात, नाग आदि को खशों ने व खशों के पश्चात आए उत्तर वैदिक आर्यों ने किस प्रकार आत्मसमर्पण के लिए मजबूर किया यह समझना मुश्किल है। इस बात का भी पता नहीं चलता है कि किस प्रकार खश जाति ने इन जातियों को आत्मसम्मानयुक्त जाति न रहने देकर उन्हें डोम (शिल्पकार) जाति में बदल दिया। हिमाचल प्रदेश में प्राचीन काल से ही एक उत्सव मनाया जा रहा है। इसे भुंडा उत्सव कहते हैं। इसका सीधा संबंध खशों की नाग जाति पर विजय के साथ जोड़ा जाता है। प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में भुंडा को नरमेघ यज्ञ लिखा गया है। जिस प्रकार आर्यों की द्रविड़ जाति पर विजय को दशहरे के रूप में मनाया जाता है और राम को अल्पसंख्यक आर्य समुदाय का नायक दर्शाया जाता है, ठीक इसी प्रकार भुंडा मनाया जाता है। हिमाचल में कुल्लू के निरमंड, रामपुर बुशहर, जुब्बल में भढ़ाल आदि स्थानों पर लोग प्राचीन काल से ही यही उत्सव बड़ी धूमधाम से मनाते आ रहे हैं। पहले यह त्योहार बारह वर्ष बाद मनाया जाता था, मगर अब इसमंे ज्यादा अंतराल भी आ जाता है। भुंडा उत्सव को मनाने के लिए किसी जनपद के लोग बेड़ा जाति से, जो नाग जाति का अवशेष मानी जाती है, से एक परिवार काे गांव के मंदिर में बुलाते हैं व उस देवता के भंडार से उसे एक साल तक पालते हैं। अर्थात अन्न-धन से देवता के भंडार से दिया जाता है। इस दौरान वह मंुज नामक घास का रस्सा (मोटा और लंबा) बनाता रहता है। जो लगभग एक हजार मीटर लंबा होता है। त्योहार वाले दिन उस रस्से का एक छोर पहाड़ी पर किसी पेड़ के तने से बांध दिया जाता है और दूसरा छोर लगभग एक किलोमीटर नीचे किसी घाटी पर बांधा जाता है। रस्से पर एक गरारी लगाई जाती है, जिस पर उक्त परिवार के किसी व्यक्ति को, जिसे देवता ने मांगा है, को खड़ा कर दिया जाता है। इसकी टांगों को एक डंडे से बांधा जाता है, जो गरारी से होकर गुजरता है। उसका संतुलन बनाने के लिए उसके पांव से होते हुए उस डंडे से दो मिट्टी की बोरियां बांधी जाती है। धीरे-धीरे वह आगे की ओर कठपुतली की तरह पहाड़ी से नीचे सरकता है। नीचे लोग देवताओं की प्रतिमाओं के साथ उसका इंतजार करते हैं। इस उत्सव में रस्सा नाग का प्रतिरूप तथा बेड़ा उस जाति का नेतृत्व करता है।
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