मशीनीकरण ने नष्ट किए परंपरागत जल स्रोत

By: Jun 12th, 2018 12:05 am

प्रताप सिंह पटियाल

लेखक, बिलासपुर से हैं

इसलिए सरकारों को चाहिए कि पेयजल समस्या के लिए ठोस नीति बनाकर धरती को मशीनों से खोखला करने के बजाय परंपरागत जल स्रोतों खासकर तालाबों को पुनर्जीवित करने में प्राथमिकता दें, ताकि बारिश का पानी इनमें संचित हो सके और ये निर्माण कार्य पंचायत स्तर पर हो सकते हैं…

आज के इस औद्योगिक युग में जल संकट से भारत सहित दुनिया के कई देशों को जूझना पड़ रहा है। जलवायु परिवर्तन के कारण तापमान में लगातार हो रही वृद्धि, वर्षा का औसत से कम होना, जल खपत में प्रतिदिन हो रही वृद्धि, साथ ही जरूरत से ज्यादा दोहन तथा जल भंडारण की उचित व्यवस्था न होने के कारण व्यर्थ में बह रहे पानी का सही संग्रह न होना जल संकट उत्पन्न होने के मुख्य कारण हैं। मगर कई राज्यों को पानी प्रदान करने वाली देवभूमि को इस समस्या ने जल संकट के मुहाने पर खड़ा कर दिया है, बल्कि राजधानी शिमला में पिछले दिनों इस मामले में माननीय हाई कोर्ट को दखल देना पड़ा। पुराने समय से हमारे हर गांव में परंपरागत प्राकृतिक जल स्रोत मौजूद रहे हैं, जिनमें कुएं, बावडि़यां, चश्मे व तालाब मुख्य हैं, मगर इस आधुनिकता के दौर में हमने इन परंपरागत जल स्रोतों की साफ-सफाई की परंपरा को भुला दिया, जिस कारण अब ज्यादातर जल स्रोत सूख चुके हैं।

सरकारों द्वारा कई सालों से पेयजल के लिए हैंडपंप बोरिंग पर करोड़ों रुपए खर्च करके कई हैंडपंप लगाए जा रहे हैं, मगर फिर भी पीने योग्य शुद्ध पानी कुछ में ही उपलब्ध होता है। पानी के लिए बोरिंग मशीनों से धरती का सीना खोखला करके भूमिगत जल निकालकर जो पानी का अंधाधुंध दोहन किया जा रहा है, उससे भू-जल स्तर में लगातार गिरावट आ रही है। राज्य में भू-जल स्तर की गिरावट पांच से 35 प्रतिशत तक आंकी जा चुकी है, जो कि चिंतनीय स्थिति है। साथ ही एक तथ्य यह भी है कि बोरिंग मशीनों के चलते समय इनकी थरथर्राहट से इनके दायरे में आने वाले प्राकृतिक जलकुंडों का पानी विलुप्त हो जाता है, जो प्रतिदिन परंपरागत जल स्रोतों के सूखने का दूसरा बड़ा कारण बनता जा रहा है। ऐसा इसलिए क्योंकि प्राकृतिक जल स्रोतों का भी एक नियम है कि जब भी इनसे छेड़छाड़ होती है, इनका पानी लुप्त हो जाता है, बाद में लाख कोशिश करने से भी उसकी धार पकड़ना नामुमकिन है। राज्य में आलम यह है कि अब सूख रहे इन जल स्रोतों के साथ-साथ इन सूखे हैंडपंपों की संख्या भी हजारों में हो चुकी है, इसी कारण जल संकट विकराल रूप धारण कर चुका है। राष्ट्रीय राजमार्गों व सुरंगों जैसे हो रहे निर्माण कार्यों के नाम से मशीनीकरण से पहाड़ों का सीना छलनी करने की जद्दोजहद में जेसीबी मशीनों की चपेट में आने से भी कई प्राकृतिक जल स्रोतों का अस्तित्व नष्ट हो रहा है। साथ ही इन्हीं विकास कार्यों के नाम पर कुछ कारणों के लिए अंधाधुंध पेड़ों का कटान इस धरती को जल रहित करने का कारण बनता जा रहा है। सरकारों द्वारा पेयजल परियोजनाओं पर करोड़ों रुपए खर्च करने के बावजूद इनके असफल होने के कारण लोगों ने अब निजी बोरिंग को पानी संकट की समस्या से निपटने का समाधान मान लिया है, मगर पहाड़ की भौगोलिक स्थिति के अनुसार यह काम हर जगह मुमकिन नहीं है।

इसलिए सरकारों को चाहिए कि पेयजल समस्या के लिए ठोस नीति बनाकर धरती को मशीनों से खोखला करने के बजाय परंपरागत जल स्रोतों खासकर तालाबों को पुनर्जीवित करने में प्राथमिकता दें, ताकि बारिश का पानी इनमें संचित हो सके और ये निर्माण कार्य पंचायत स्तर पर हो सकते हैं। इसके अलावा राज्य की पानी पूर्ति के लिए नदियों व ज्यादातर खड्डों को ही जीवनदायिनी माना जाता है। ज्यादातर परियोजनाएं इन्हीं पर निर्भर हैं, मगर अवैध खनन से खड्डों का जल स्तर प्रतिदिन गिरता जा रहा है। उद्योग, होटल आदि से उत्पन्न कचरा साथ ही सीवरेजों की गंदगी से इनका पानी काफी हद तक प्रदूषित हो चुका है। इसकी रोकथाम के लिए राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास करने चाहिए, क्योंकि राज्य सहित देश की कई नदियां जल प्रदूषण का शिकार होकर गंदे नालों में तबदील हो रही हैं, जिस कारण जीवधारियों पर भी खतरा मंडराने लगा है।

देश में जनसंख्या विस्फोट जिस गति से हो रहा है, प्राकृतिक संसाधन उतने ही सीमित होते चले जा रहे हैं। भारत दुनिया का 2.4 प्रतिशत भू-भाग है और यहां दुनिया की लगभग 17 प्रतिशत आबादी निवास करती है, जबकि शुद्ध पानी की उपलब्धता मात्र चार प्रतिशत के करीब है और विश्व में पानी का उपयोग सबसे ज्यादा हमारे देश में ही हो रहा है। प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता 1700 क्यूबिक मीटर से नीचे जाने पर जल संकट की चेतावनी के तौर पर माना जाता है, जो कि हमारे देश में प्रति व्यक्ति जल की मात्रा 1544 क्यूबिक मीटर है। इसे अच्छी स्थिति नहीं कहा जा सकता। वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम ने अपनी रिपोर्ट में दुनिया के दस सबसे अहम खतरों में जल संकट को सबसे ऊपर माना है। वहीं सतलुज को उसकी संस्कृति सहित विनाश के मुहाने पर खड़ा करके भाखड़ा बांध का निर्माण किया गया, जिससे पड़ोसी राज्यों को रोशन करने के साथ ही इसी पानी से उनकी भूमि में हरित क्रांति आई। मगर अब खुद देवभूमि के लोग आखिर पानी की किल्लत से आंदोलन करने पर क्यों मजबूर हैं? यह विषय कई सवाल खड़ा करता है, इस पर जरूर विचार होना चाहिए।

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