मोदी का ‘कश्मीरी स्ट्राइक’

By: Jun 21st, 2018 12:05 am

जम्मू-कश्मीर में भाजपा का पीडीपी से समर्थन वापस लेना और महबूबा मुफ्ती सरकार का पतन बेशक एक ऐतिहासिक और साहसिक फैसला है। इसके लिए देश प्रधानमंत्री मोदी को साधुवाद देगा। हालांकि 40 महीनों तक यह नापाक गठबंधन घिसटता रहा, लेकिन दोनों ही दल उत्तरी-दक्षिणी ध्रुव की तरह थे। गठबंधन मजबूरी में किया गया या मौकापरस्त सियासत थी, अब इन बिंदुओं पर सोचना नहीं चाहिए। अब भाजपा को कबूल करना चाहिए कि कश्मीर में गलती हुई। गलत गठबंधन किया गया और ऐसी गलतियों से ही सबक लेकर नए फैसले करने पड़ते हैं, लिहाजा 40 माह पुरानी गठबंधन सरकार के फैसलों और कामों पर लीपापोती नहीं करनी चाहिए। अब कश्मीर भाजपा के ही हवाले होगा, चूंकि राज्य में राज्यपाल शासन तय है, राज्यपाल एनएन वोहरा राष्ट्रपति को अपनी रपट भेजकर केंद्रीय शासन की अनुशंसा कर चुके हैं। कश्मीर में यह आठवीं बार राज्यपाल शासन लगेगा। लिहाजा अपने प्रतिनिधि के जरिए ही मोदी सरकार कश्मीर पर राज करेगी। यह अग्नि-परीक्षा का दौर है। यदि 2019 के आम चुनावों के मद्देनजर भी प्रधानमंत्री मोदी ने ‘कश्मीरी स्ट्राइक’ किया है, तो भी वह सकारात्मक है। सियासत को फिलहाल एक तरफ रखें और उन विरोधाभासों को याद करें, जिनके बावजूद पीडीपी-भाजपा गठबंधन किया गया था। संविधान के अनुच्छेद 370 और 35-ए को भाजपा खत्म करना चाहती थी, जबकि महबूबा यथास्थिति के पक्ष में थी। कश्मीर में सेना को कानूनन जो विशेषाधिकार प्राप्त हैं, उन्हें भाजपा लागू रखना चाहती थी, लेकिन महबूबा अफस्पा को समाप्त करने की लगातार पैरवी कर रही थी। महबूबा पाकिस्तान और हुर्रियत के अलगाववादी नेताओं के साथ बातचीत की पक्षधर थी, लेकिन भाजपा और मोदी सरकार मौजूदा हालात में बातचीत नहीं करना चाहती थीं। कश्मीरी पंडितों के लिए अलग कालोनी के मुद्दे पर दोनों दल परस्पर विरोधी थे। महबूबा सरकार के कार्यकाल में कश्मीर नरक बन चुका था। महबूबा जम्मू और लद्दाख से सौतेला व्यवहार करती थी, लिहाजा उन क्षेत्रों में विकास प्रभावित हुआ। इसके अलावा, महबूबा सरकार आतंकियों पर काबू नहीं पा सकी, कश्मीर के ही पत्थरबाजों को लगाम नहीं लगा सकी, बल्कि 11,000 पत्थरबाजों के खिलाफ कानूनी केस वापस लिए गए। आतंकवाद और आतंकी नए सिरे से गोलबंद हो रहे थे। इसके बावजूद महबूबा सेना और सुरक्षा बलों के ‘आपरेशन आलआउट’ के खिलाफ थी, जबकि भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी किसी भी कीमत पर सेना के स्वाभिमान के साथ समझौता नहीं कर सकते थे, लिहाजा संघर्ष विराम के दौरान माकूल माहौल न बनने और सार्थक नतीजे हासिल न कर पाने के मद्देनजर मोदी सरकार ने ईद के बाद संघर्ष विराम को खत्म कर दिया, जबकि महबूबा फिलहाल संघर्ष विराम की अवधि बढ़ाने के पक्ष में थी। सिर्फ यही नहीं, महबूबा की पीडीपी से समर्थन वापस लेकर भाजपा और मोदी सरकार ने पूर्व मुख्यमंत्री के ‘आतंकी तुष्टिकरण’ और ‘पाकिस्तान प्रेम’ पर भी गहरी चोट की है, लेकिन भाजपा ने समर्थन वापस लेकर और महबूबा सरकार गिराकर कोई ‘कुर्बानी’ नहीं दी है। राष्ट्रधर्म, राष्ट्रहित के लिए सत्ता को ‘कुर्बान’ नहीं किया है। ये विश्लेषण फिजूल हैं। यह भाजपा की सियासत है, लेकिन कश्मीर में फिलहाल सियासत से पहले हिफाजत है। केंद्र के शासन के दौरान एक-एक आतंकी को खत्म करना होगा और कश्मीर के चप्पे-चप्पे को आतंकमुक्त करना होगा। पत्थरों का चूरमा निकालकर पत्थरबाजों को भी कुचलना या काबू करना होगा। अलगाववादियों को भी कानून के शिकंजे तक लाना होगा। हमारे बिलकुल पड़ोस पीओके में करीब 500 आतंकी मौजूद हैं। उनकी घुसपैठ और हमलों की प्रतीक्षा नहीं की जा सकती। सेना को पीओके में घुसकर ही आतंकियों को उन्हीं की जमीन पर, उनके ही अड्डों और टे्रनिंग कैंपों में, मारना होगा। सरकार और सेना को कड़े फैसले लेने होंगे। पहले से ज्यादा गंभीर चुनौतियां भाजपा और मोदी सरकार के सामने हैं। यदि यह फैसला नाकाम साबित हुआ, तो 2019 में कबाड़ा भी लगभग तय है। अभी कश्मीर में समय सरकार की मुट्ठी में है। चुनावों की कोई जल्दबाजी नहीं है। कमोबेश कश्मीर घाटी को दोबारा ‘जन्नत’ बनाया जा सकता है। रमजान का पाक महीना खत्म हो चुका है, ईद भी मनाई जा चुकी है, संघर्ष विराम का फैसला भी वापस लिया जा चुका है, लेकिन अब आतंक और अलगाववाद का सफाया करना है, ताकि पाकिस्तान को साजिशकार ही न मिल सकें। बेशक गठबंधन नापाक था, लेकिन भाजपा और मोदी सरकार साबित कर सकते हैं कि उनकी नीति और नीयत बिलकुल पाक है, लेकिन यह इतना आसान नहीं है। शुभ संकेत हैं कि सेना ने कश्मीर में आतंकियों को ढूंढ-ढूंढ कर मारना शुरू कर दिया है।


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