राष्ट्र से एक माफी लंबित है

By: Jun 25th, 2018 12:10 am

कुलदीप नैयर

लेखक, वरिष्ठ पत्रकार हैं

इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस ने देर से वह शासन लगाने के लिए अफसोस जताया जिसमें लोगों को वैयक्तिक स्वतंत्रता नहीं थी तथा प्रेस पर भी सेंसरशिप ठोक दी गई थी।  इसके बावजूद कांग्रेस को राष्ट्र से माफी मांगनी अभी बाकी है। 43 वर्ष पूर्व जो कुछ हुआ था, उसमें कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी कोई सुधार नहीं कर सकते हैं, लेकिन वे कम से कम राष्ट्र को यह तो बता ही सकते हैं कि उनकी  दादी व कांग्रेस दोनों ही गलत थे। भारत के एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जेसी शाह, ने अपनी रिपोर्ट में इस बात की पुष्टि की थी कि इंदिरा गांधी के राजनीतिक विरोधियों के साथ-साथ आम लोगों से भी अत्याचार हुए थे…

किसी भी राष्ट्र के इतिहास में कुछ तिथियां इतनी महत्त्वपूर्ण होती हैं कि उन्हें भुलाया नहीं जा सकता। ऐसी ही एक तिथि है 25 जून, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने लोकतंत्र की बत्ती गुल कर दी थी। चुनाव में गड़बड़ी का आरोप सिद्ध हो जाने संबंधी इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले के परिप्रेक्ष्य में अपने पद से इस्तीफा देने के बजाय उन्होंने संविधान निलंबित कर दिया तथा खराब से खराब ज्यादतियों को अंजाम दिया। एक लाख लोगों को बिना मुकदमा चलाए ही गिरफ्तार कर लिया गया तथा कई लोगों की हत्या भी कर दी गई क्योंकि वे इंदिरा गांधी के कट्टर आलोचक थे। इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस ने देर से वह शासन लगाने के लिए अफसोस जताया जिसमें लोगों को वैयक्तिक स्वतंत्रता नहीं थी तथा प्रेस पर भी सेंसरशिप ठोक दी गई थी।  इसके बावजूद कांग्रेस को राष्ट्र से माफी मांगनी अभी बाकी है। 43 वर्ष पूर्व जो कुछ हुआ था, उसमें कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी कोई सुधार नहीं कर सकते हैं, लेकिन वे कम से कम राष्ट्र को यह तो बता ही सकते हैं कि उनकी  दादी व कांग्रेस दोनों ही गलत थे।

भारत के एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जेसी शाह, जिन्हें आपातकाल के बाद सत्ता में आई मोरार जी देसाई की सरकार ने आपातकाल की ज्यादतियों की जांच का जिम्मा सौंपा था, ने अपनी रिपोर्ट में इस बात की पुष्टि की थी कि इंदिरा गांधी के राजनीतिक विरोधियों के साथ-साथ आम लोगों से भी अत्याचार हुए थे। शाह आयोग की रिपोर्ट एक बहुमूल्य दस्तावेज है जिसमें दिए गए कई पाठ सीखने योग्य हैं। आपातकाल के 21 महीनों के दौरान राष्ट्र को जिन परिस्थितियों से गुजरना पड़ा, उसे स्कूल तथा कालेजों की पाठ्य पुस्तकों का हिस्सा बनाया जाना चाहिए। लेकिन बहुतायत में वर्तमान पुस्तकें भारत के मुस्लिम शासकों के प्रति इतनी पूर्वाग्रह ग्रसित हैं कि कई इतिहासकारों ने उनके खिलाफ अपनी आवाज उठाई है। वास्तव में हिंदुत्व के फोबिया ने देश के अधिकतर राज्यों में अपनी जड़ें जमा ली हैं। नौकरशाही का भी केसरियाकरण हो गया लगता है। संविधान अभी भी एक पवित्र दस्तावेज है। लेकिन मुझे डर है कि 2019 के चुनाव में भाजपा दो-तिहाई बहुमत हासिल करने की कोशिश कर सकती है और अगर ऐसा हो गया तो पार्टी खुद ही संविधान को संशोधित कर देगी। जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाला अनुच्छेद 370 तथा अल्पसंख्यकों को संरक्षण देने वाले बहुलतावादी सिद्धांत निशाने पर आ जाएंगे। यह पार्टी, जो कि आरएसएस की राजनीतिक शाखा है, पंथनिरपेक्षता की अवधारणा को अगर खत्म नहीं तो कमजोर कर सकती है। आपातकाल के दौरान जो कुछ हुआ, वह स्वतंत्रता सेनानियों तथा उन संविधान निर्माताओं का अपमान था जो कि संविधान के मूल ढांचे को संशोधनों की सीमा से बाहर रखते थे। लेकिन प्रेजीडेंशियल डिक्री से लैस इंदिरा गांधी ने चुनाव तथा नागरिक स्वतंत्रताएं निलंबित कर दीं।

उनके सभी राजनीतिक विरोधियों को जेलों में ठूंस दिया गया, उन पर अत्याचार भी हुए तथा कइयों को रास्ते से हटा दिया गया। कई अन्य तरह के अत्याचार भी किए गए। मिसाल के तौर पर लाखों लोगों की जबरन नसबंदी कर दी गई जिसमें उनके पुत्र संजय गांधी की अहम् भूमिका रही। शाह आयोग ने अपनी रिपोर्ट तीन भागों में सौंपी थी। अंतिम भाग छह अगस्त 1978 को सौंपा गया था। 530 पेजों वाली 26 अध्यायों में बंटी यह रिपोर्ट हिंसा के साथ-साथ लोकतांत्रिक संस्थानों व नीति-नियमों को पहुंचाए गए नुकसान का भी उल्लेख करती है। इसके अलावा यह सिस्टम को पहुंचाए गए नुकसान तथा आपातकाल के दौरान हुए घटनाक्रम पर गहन चिंता व्यक्त करती है। जस्टिस शाह तुर्कमान गेट घटना में पुलिस कार्रवाई तथा संजय गांधी की भूमिका का भी उल्लेख करते हैं। इस घटना में पुलिस ने अपने घरों को गिराने के विरोध में प्रदर्शन कर रहे लोगों की भीड़ पर गोलियां बरसा दी थीं। वास्तव में इंदिरा गांधी जब 1980 में सत्ता में वापस लौटी, तो जितना संभव हो सका, उन्होंने रिपोर्ट की प्रतियों को याद करने की कोशिश की। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि उन्होंने हर हथियार का प्रयोग किया, किंतु वह सफल नहीं रही। इसके बावजूद रिपोर्ट पर पाबंदी लगा दी गई।

फिर भी द्रमुक की संस्थापक सदस्य तथा तत्कालीन सांसद ईरा सेझियां इस रिपोर्ट को एक किताब के रूप में पुनः प्रकाशित करती हैं। ‘शाह आयोग रिपोर्ट : खोया व पुनः पाया’ नामक इस पुस्तक में वह ठीक ही कहती हैं कि यह रिपोर्ट एक जांचपरक दस्तावेज से कहीं अधिक है, यह बहुमूल्य ऐतिहासिक दस्तावेज है जो शासन करने वाले लोगों को एक चेतावनी व सीख भी है। यह एक ऐसी गाइड है जो स्वतंत्रता आंदोलन में परिकल्पित स्वतंत्रता को प्र्रफुल्लित करती है। इसमें भविष्य के शासकों को सीख है कि वे संविधान के मूल ढांचे से छेड़छाड़ न करें। यह तानाशाही शासन के दौरान हुई ज्यादतियों के प्रति एक चेतावनी है। वर्तमान में सत्ता पर काबिज भाजपा, जिसे आपातकाल का सर्वाधिक शिकार होना पड़ा, ने लगता है कि इस रिपोर्ट से कोई पाठ नहीं सीखा है। इंदिरा गांधी पर एक व्यक्ति के शासन वाला सिद्धांत हावी हो गया था। वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी उसी राह पर चल रहे हैं। वह आरएसएस के इशारे पर काम करते हुए हिंदुत्व को पोषित करने, पंथनिरपेक्षता को कमजोर करने तथा बहुलतावादी संस्कृति को नीचा दिखाने का काम कर रहे हैं। वास्तव में आज लोग नरेंद्र मोदी के शासन की इंदिरा गांधी के एक व्यक्ति वाले शासन से तुलना करने लग पड़े हैं। इतना ही नहीं, अधिकतर अखबारों व टेलिविजन चैनलों ने इंदिरा गांधी के शासन काल की तरह अपने आप को मोदी की कार्यशैली के अनुकूल ढाल लिया है। भाजपा के वयोवृद्ध नेता लालकृष्ण आडवाणी ने कुछ समय पहले कहा था कि आपातकाल के दोबारा आ जाने से इनकार नहीं किया जा सकता है। उन्होंने स्पष्ट किया कि नेताओं की हेकड़ी सर्वसत्तावाद की ओर ले जाती है। यह एक तरह से मोदी की कार्यशैली को कटघरे में खड़ा करता है।

आपातकाल का विरोध करते हुए आडवाणी ने भी 18 माह जेल में बिताए थे। आडवाणी को नीचा दिखाने के लिए भाजपा ने उन्हें उस समारोह में नहीं बुलाया, जिसमें आपातकाल के दौरान जेल जाने वाले अन्य लोगों को सम्मानित किया गया। भाजपा के बारे में कोई यह नहीं बता सकता कि वह कब क्या कर देगी। यह इस बात से साबित होता है कि अब उसने जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती का साथ भी छोड़ दिया है। पार्टी ने महबूबा को बताए बिना उनसे समर्थन वापस ले लिया तथा राज्य में राज्यपाल शासन का रास्ता आसान बना दिया। राज्य की वर्तमान स्थिति के लिए पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने भाजपा तथा पीडीपी दोनों को जिम्मेवार ठहराया है।

अधिकतर विपक्षी नेता यह महसूस करते हैं कि यह गठजोड़ पहले ही नहीं होना चाहिए था। कोई यह अनुमान लगाता है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में एकल पार्टी पूर्ण बहुमत हासिल कर सकती है। लेकिन जमीन पर ऐसा होता दिख नहीं रहा है। यह चुनाव एक मैली प्रक्रिया साबित होने वाला है। हमारी लोकतांत्रिक शासन पद्धति किसी की अवधारणा के अनुसार मजबूत भी हो सकती है। कोई यह भी आशा कर सकता है कि स्थितियों से पार पा लिया जाएगा। इसके बावजूद यह सुनिश्चित बनाना होगा कि संविधान, लोकतंत्र, पंथनिरपेक्षता तथा बहुलतावाद को हर कीमत पर बचाना होगा।

ई-मेल : kuldipnayar09@gmail.com


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