लोक जीवन तक कमलेश सूद की कलम

By: Jun 17th, 2018 12:05 am

मेरी किताब के अंश : सीधे लेखक से

किस्त : 1

ऐसे समय में जबकि अखबारों में साहित्य के दर्शन सिमटते जा रहे हैं, दिव्य हिमाचल ने साहित्यिक सरोकार के लिए एक नई सीरीज शुरू की है। लेखक क्यों रचना करता है, उसकी मूल भावना क्या रहती है, संवेदना की गागर में उसका सागर क्या है, साहित्य में उसका योगदान तथा अनुभव क्या हैं, इन्हीं विषयों पर राय व्यक्त करते लेखक से रूबरू होने का मौका यह सीरीज उपलब्ध करवाएगी। सीरीज की पहली किस्त में पेश है साहित्यकार कमलेश सूद का साहित्यिक संसार…

कमलेश सूद का जन्म दो अक्तूबर 1950 को पालमपुर में स्व. बद्रीप्रसाद सूद और स्व. कैलाशवती सूद के घर हुआ। कमलेश सूद ने केंद्रीय विद्यालय संगठन में 32 वर्षों तक अध्यापन कार्य किया। वह केंद्रीय विद्यालय पालमपुर से बतौर मुख्य अध्यापिका सेवानिवृत हुईं। बचपन से ही लेखन में रुचि रखने वाली कमलेश सूद विद्यालय में पत्रिका संपादन का काम बखूबी संभालती रही और उनको हिंदी दिवस के अवसर पर सम्मानित भी किया गया। कमलेश सूद हिंदी साहित्य निर्झर कला मंच की वरिष्ठ सदस्य हैं तथा सामाजिक कार्यों में सहकारिता व सहभागिता निभाती हैं। वह सलियाणा स्थित बाल आश्रम में जीवनयापन कर रहे बच्चों की यथासंभव सहायता करती हैं। कमलेश सूद को अनेक सम्मान प्राप्त हो चुके हैं। अखिल भारतीय सेवी संस्थान द्वारा इलाहाबाद में जगद्गुरु शंकराचार्य की ओर से उनको अलंकृत व सम्मानित किया जा चुका है।

अब तक प्रकाशित पुस्तकें

आखिर कब तक-काव्य संग्रह, बसंत-सा खिलखिलाते रहना-काव्य संग्रह, हवाओं के रुख मोड़ दो-क्षणिका संग्रह, छू लेने दो आसमान व रिश्तों की डोरी : ये इनकी प्रकाशित पुस्तकें हैं।

रचना की मूल भावना

कमलेश सूद मानती हैं कि कविताओं को लिखा नहीं जाता। स्थितियां, परिस्थितियां और समय मन के उद्गारों को एक कविता के रूप में ढालने के लिए सहायक हो जाते हैं। कुछ क्षणिक विशाद बरसाती बिजली से कौंध कर कागज की छाती पर छप जाते हैं और कविता, कथा या क्षणिका का रूप ले लेते हैं। ‘आखिर कब तक’ नामक उनका प्रथम काव्य संग्रह 1997 में छपा था। लिखना तो बचपन से ही शुरू हो गया था। कभी कागजों पर लिखती, कभी कापियों के पीछे और बीते समय की तरह भूल जाती। कुछ कविताएं बाद में सहेजी और लिखती रही, पर घर, नौकरी, बच्चे और जिम्मेदारियां हावी होती रहीं। रात को सोए-सोए कितनी सारी कविताएं रची जाती जो सुबह विस्मृत हो जाती। उन्होंने ‘आखिर कब तक’ पुस्तक में नारी जीवन के विभिन्न पहलुओं को छुआ है। कहीं नारी की पीड़ा, टूटन, थकान, भटकन, संत्रास का चित्रण है तो कहीं मानवीय संवेदनाओं के खालीपन की ओर देखा है। नारी जीवन की नाटकीय स्थितियों को उद्घाटित करती यह पंक्तियां देखिए-‘डोर से बंधी, हम हैं मात्र कठपुतलियां, हमारे मन की कौन जानता है।’  नारी को भारत में पूज्य माना गया है और विडंबना देखिए यहीं पर भ्रूण हत्याएं, शोषण, प्रताड़ना और दुराचार भी है। शायद दहेज के कारण माता-पिता चिंतित रहते हैं और भारतीय समाज की मानसिकता देखिए कि लड़की ने पराए घर जाना है, चौका-चूल्हा संभालना है तो पढ़ा कर क्या लेना है। आज यह सब कुछ बदल तो रहा है, लेकिन बहुत धीरे-धीरे। वह समय भी आएगा जब औरत को फिर से ‘देवी’ सा सम्मान मिलेगा। कमलेश सूद कहती हैं कि कभी-कभी मन करता है कि लिखती ही रहूं। देश, आम आदमी, औरत, झुग्गी-झोंपड़ी, आतंकवाद पर लिखूं और नेतावाद को समेटूं तो तेज जलप्रवाह में समाहित कर आऊं। पुस्तकों में सभी रंगों को एक ओढ़नी पुस्तक में समेटने का प्रयास है। पर्यावरण, प्रदूषण, नारी चेतना, मानवीय मूल्यों में निरंतर हृस, पहाड़, नदी-प्रकृति को समेटा है। जीवन के बहुआयामी रंगों को बुनती-गुनती यह कविताएं कोमल अनुभूतियों व गहरी संवेदनाओं से रची, सरस, सरल शब्दों में कही हैं। हमने अत्याधुनिकता को तो अपना लिया है, पर प्रेम, स्नेह, मानवीयता और आपसी भाईचारे को कहीं खो दिया है। समाज में कई ज्वलंत मुद्दे हैं जो कवि व कथाकार को लेखनी के माध्यम से उठाने होंगे। मेरी पुस्तकों में बिगड़ते प्रदूषण, पर्यावरण, टूटते रिश्तों, अमानवीयता, स्त्री पीड़ा, बदलती हुई नई संस्कृति, परिवेश, बढ़ते वृद्ध आश्रम, एकल परिवार, गांव से पलायन आदि कई ऐसे विषय हैं, जिन्हें मैंने पुस्तक रूपी गागर में भरने का प्रयास किया है। इन कविताओं या क्षणिकाओं रूपी बूंदों को समेट कर अंजुलि में भरने का प्रयास किया है। यह पाठकों के दिल को छू जाएं, यही मेरा प्रयास है। जैसे संवेदनहीन मानव को लेकर चोट करती, उसके क्रूरतम कुकृत्यों पर प्रहार करती यह पंक्तियां देखिए- ‘रक्त से सने हैं हर कहीं पड़े हैं, चाकू, छुरे और खंजर।’ गांव भी वह गांव नहीं रहे। सादगी, अपनत्व, सरलता, कहीं तिरोहित हो चुके हैं। यह पंक्तियां देखिए –

‘मेरा गांव खो गया है, सब-कुछ नया सा हो गया है।’  यहां मन की बात को कहने की प्रेरणा कही है कि-मन की बात को कहते सुनते रहना। कहीं यह सन्नाटे पसर न जाएं। मकड़ी की तरह दिल की दीवारों पर गहरे कहीं। उस नारी का चित्रण देखिए जो विधवा हो गई है- ‘पिता के गुजर जाने के बाद हर बदली हुई नजर को बखूबी पहचानती है मां। गुमसुम सी रहती है और सबकी बात चुपचाप मानती है मां।’ (हवाओं के रुख मोड़ दो-पृष्ठ 60)। घरों के बीच में चुनी गई दीवारों के आर-पार कोई किसी का दुख न देखता है न ही सुनता है। पड़ोसी-पड़ोसी को नहीं जानता, रिश्तों के बीच की ऊंची दीवारें रिश्तों को जड़ों से उखाड़ रही हैं। यह पंक्तियां देखिए-आओ आज मिटा दें घरों के बीच जबरन चुनी हुई नफरत की दीवारों को। मेरा प्रयास रहा है कि पुस्तकों में कोई एक स्वर नहीं बल्कि जीवन की समग्रता को समेटूं। आम आदमी की पीड़ा, दुख-दर्द, घुटन, क्रोध, खीझ, प्रसन्नता, पूर्णता व अधूरेपन को आकार देने का प्रयत्न किया है। साहित्य कोई एक सितारा नहीं है। यह सूर्य, चंद्र व सितारों से भरा आसमान है।

यहां हर साहित्यकार अपने-अपने ढंग से उसके परचम को बुलंद करने का प्रयास कर रहा है। इस सागर में कुछ बूंदें डालने का और कुछ मोती निकालने का प्रयास मैंने भी किया है। उसमें कितनी सफल हो पाई हूं, यह तो सुधी पाठक ही जानते हैं। हमारे समाज में प्राचीन व दृढ़ स्तंभ ‘संयुक्त परिवारों’ के दरकने, रिश्तों के बंधनों को नकारने, बड़े बुजुर्गों के मान-सम्मान को दरकिनार करके स्वांत सुखाय का मंत्र पढ़कर आज का युवा अपने छोटे से संसार को ही कुल संसार मान बैठता है। खौलते ज्वालामुखी का परिणाम वह नहीं समझता या समझकर भी नकारता है। यही बात उसे पतन की ओर ले जाती है। मैंने अपनी रचनाओं में युवाओं को भी संदेश दिया है। उसके ‘बोनसाई परिवार’ के कारण ही वृद्धाश्रमों में कई जोड़ी आंखें प्रतीक्षारत रहती हैं। ऐसे वातावरण में मैं समझती हूं कि कथा, कहानी और कविता ही ऐसा माध्यम है जो मनों को जोड़ सकती है, पीढि़यों का मार्गदर्शन कर सकती है। हर राज्य की अपनी लोक कथाएं, कथाओं और कविताओं में झलकती हैं। उसी को धरोहर के रूप में समेट कर आगे बढ़ाने का प्रयास कर रही हूं। सुख-दुख, सहजता-असहजता, खुशी-शोक अवस्था में कविता का फूट पड़ना उस पहाड़ी झरने सा है जो लाखों लोगों को जाने-अनजाने नवजीवन देता व आगे बढ़ाता है। कुछ शब्द लिखने मात्र से ही लक्ष्य प्राप्ति नहीं हो जाती। इसके लिए तो एक लंबा और फूल-कांटों से युक्त रास्ता धैर्य के साथ तय करना पड़ता है।

-जयदीप रिहान, पालमपुर

(सीरीज में कोई भी लेखक खुद अपनी किताब का विवेचन कर सकता है। यहां दिए मोबाइल नंबर्स पर संपर्क करें।)


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