वनों की आग की समस्या और उसके समाधान

By: Jun 6th, 2018 12:05 am

डा. विवेक शर्मा

लेखक, धर्मशाला से हैं

पत्ते, झाडि़यां इकठ्ठे कर लिए जाने पर इनका वर्मी कंपोस्ट या केंचुआ खाद भी पर्याप्त मात्रा में बनाई जा सकती है। इससे खर्चीले कृत्रिम खाद विकल्पों से किसानों को छुटकारा मिल जाएगा…

गर्मियों के दिनों में हिमाचली वन्य क्षेत्रों में आग लगने की भयंकर समस्या हर वर्ष हमारे सम्मुख प्रस्तुत होती है। इस वर्ष भी हमारे प्रदेश की वन संपदा का आग ने सर्वनाश कर दिया है। वन क्षेत्रों का सड़कों से न जुड़ा होने के कारण उनमें लगी आग को बुझाना भी सरल नहीं हो पाता है। वनों में आग लगने के प्रत्यक्ष प्रभाव तो हैं ही, किंतु इसके अतिरिक्त कई अन्य अप्रत्यक्ष दुष्परिणाम भी हैं जो वनों की आग द्वारा घटित होते हैं। आज हम जानते हैं कि हिमाचल के वन क्षेत्रों में मोनाल, चीता, बाघ, जाजुराना जैसे कई दुर्लभ पशु-पक्षी हैं, जिनका सौंदर्य पूरे संसार में प्रसिद्ध है, लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिनके अलौकिक सौंदर्य के कारण हिमाचल का पर्यटन शिखर पर पहुंचा, वे सब विलुप्त होने की कगार पर हैं। जब पूरा उत्तर भारत भीषण गर्मी से तप रहा होता है, तो उससे छुटकारा पाने के लिए पर्यटक हिमाचल की ओर अपना रुख करते हैं, जो हमारे प्रदेश की आय का प्रमुख साधन है। इस तरह यदि हम अपने वनों को जलाते रहे, वनों की सुंदरता को समाप्त करते रहे, तो हमारे प्रदेश का पर्यटन व्यापार भी पूरी तरह चौपट हो जाएगा। वनों में आग लगने से वनों की वृद्धि कभी नहीं हो पाती है, क्योंकि प्रत्येक वर्ष वन क्षेत्रों में आग लगने से छोटे पौधे नष्ट हो जाते हैं। वैज्ञानिकों का स्पष्टतया कहना है कि वनों में आग लगने से ओजोन परत को भारी क्षति पहुंचती है। अतः इस समस्या का कोई स्थायी समाधान होना चाहिए। सामान्यतः इस समस्या का सबसे सुलभ उपाय यह भी बताया जा सकता है कि वनों में आग लगाने वालों के लिए कठोर दंड का प्रावधान कर दिया जाए। किंतु यह इस समस्या का स्थायी समाधान नहीं हो सकता, क्योंकि यदि कठोर सजा का प्रावधान उपयोगी होता, तो आज तक इस समस्या का समाधान बहुत पहले हो गया होता। इसलिए हमें वनाग्नि की समस्या के समाधान के लिए अन्य विकल्पों पर चिंतन करना होगा।

सर्वप्रथम हमें इस बात पर ध्यान देना होगा कि मूल रूप से वनों में आग क्यों लगाई जाती है। तब हमें इसका प्रमुख कारण ज्ञात होता है कि पतझड़ के समय वनों की भूमि पत्तों से भर जाती है। अतः भूमि ढकी रहने के कारण वन भूमि में घास निकल नहीं पाती है। अतः वन क्षेत्रीय गरीब किसान जानबूझकर नहीं, अपितु निर्विकल्प होकर पशुओं के चारे के लिए वनों में आग लगाते हैं, चूंकि वे तो अपने जीवनयापन के लिए पूर्णतः पशुओं पर ही निर्भर होते हैं। अतः सरकार को चाहिए कि एक तो वन क्षेत्रीय किसानों को पर्याप्त मात्रा में चारा उपलब्ध करवाए, साथ ही सरकार को ऐसी पत्ता आधारित परियोजना पर अभी से कार्य करना चाहिए, जिसके अंतर्गत अग्रिम वर्ष में समय से ही (मार्च-अप्रैल) में पतझड़ के समय गिरे पत्तों को उठा लिया जाए। जब पत्ते नहीं रहेंगे, तो आग नहीं लगेगी और वनों में घास भी आसानी से पर्याप्त मात्रा में निकल सकेगी। सरकार की ऐसी योजना से गांव के असंख्य युवाओं को रोजगार भी मिलेगा और पत्ता आधारित उद्योग से आय भी होगी।

चीड़ जैसे कई वृक्षों के पत्तों का प्रयोग पैकिंग, गद्दा आदि के निर्माण में किया जा सकता है, जिससे प्रदेश की जीडीपी भी बढ़ेगी। इस कार्य को मनरेगा इत्यादि योजनाओं द्वारा अच्छी तरह से प्रतिपादित किया जा सकता है। पत्ते, झाडि़यां इकठ्ठे कर लिए जाने पर इनका वर्मी कंपोस्ट या केंचुआ खाद भी पर्याप्त मात्रा में बनाई जा सकती है। इससे एक ओर जहां भूमि की गुणवत्ता में सुधार होगा, वहीं खर्चीले कृत्रिम खाद विकल्पों से किसानों को छुटकारा मिल जाएगा। अतः वन के पत्तों का खाद के रूप में उचित प्रयोग करके हम यूरिया, पेस्टीसाइड युक्त उत्पादों को खाने से बच जाएंगे। इससे जहां एक ओर वन सुरक्षित होंगे, वहीं सरकार के हजारों करोड़ रुपए बच सकेंगे। इसी पैसे से वनों को और अधिक समृद्ध किया जा सकेगा। इसके अतिरिक्त सरकार, सामाजिक संगठनों तथा बुद्धिजीवी वर्ग द्वारा लोंगों को जागरूक करना चाहिए कि वनों में आग लगाने को न सोचें, क्योंकि वन सुरक्षित हैं तभी हिमाचल का भविष्य सुरक्षित है।

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