वैश्वीकरण को छोड़ने की जरूरत

By: Jun 19th, 2018 12:10 am

डा. भरत झुनझुनवाला

लेखक, आर्थिक विश्लेषक एवं टिप्पणीकार हैं

विश्व बैंक का कहना है कि भारत सरकार को ऋण लेकर हाइवे आदि में निवेश नहीं करना चाहिए, क्योंकि सरकार द्वारा निवेश करने में भ्रष्टाचार की संभावना बनी रहती है। इसलिए भारत सरकार का वित्तीय घाटा हटने से निवेश आना शुरू होगा और सरकार द्वारा कम किए गए निवेश की भरपाई हो जाएगी। इसके पलट दूसरा उपाय यह है कि भारत सरकार ऋण सीधे स्वयं निवेश करे। यदि ऋण लेकर रकम का वास्तविक निवेश किया जाए और रिसाव न हो तो यह फार्मूला सीधे-सीधे सही बैठता है। यही फार्मूला अस्सी के दशक के पहले लागू था…

हमने नब्बे के दशक में विश्व व्यापार संधि पर दस्तखत करके वैश्वीकरण को अपनाया था। उस समय सोच थी कि विकसित देशों द्वारा आयात कर घटाने से हमारे माल के निर्यात के अवसर बढ़ेंगे, विशेषकर हमारे कृषि उत्पादों के, जिससे हमारे किसानों को लाभ होगा। यह भी सोचा गया था कि वैश्वीकरण को अपनाने से हमें विदेशी निवेश भारी मात्रा में मिलेगा। विदेशी कंपनियां भारत में फैक्टरियां लगाएंगी। हमें नई तकनीकें मिलेंगी और आर्थिक विकास चल निकलेगा। नब्बे के दशक से अब तक हम इसी नीति को लागू करते आए हैं, लेकिन परिणाम सामान्य रहे हैं। विशेषकर मोदी सरकार के पिछले चार साल में आर्थिक विकास दर 6.7 प्रतिशत की दर पर टिकी हुई है, जो हमारी पहले की दर से कुछ नीचे ही है। हमारे निर्यात घट रहे हैं और आयात बढ़ रहे हैं। विदेशी निवेश भी शिथिल है। इस प्रकार वैश्वीकरण के मूल उद्देश्यों की पूर्ति होती नहीं दिख रही है। जमीनी स्तर पर लोगों से बात करने पर पता चलता है कि सरकारी कर्मियों का भ्रष्टाचार पहले से बढ़ा है, लेकिन इनके द्वारा न तो सोना खरीदा जा रहा है और न ही प्रापर्टी में निवेश किया जा रहा है। एक संभावना है कि भ्रष्टाचार की रकम जो पूर्व में सोने की प्रापर्टी में लग गई थी, अब विदेश जा रही है। इस वर्ष के बजट में वित्त मंत्री ने चिंता जताई थी कि भारत की पूंजी बाहर जा रही है। इस प्रकार भ्रष्टाचार तथा निजी पूंजी की रकम दोनों ही बाहर जा रही हैं। वैश्वीकरण का उद्देश्य था कि हमें विदेशी पूंजी मिलेगी, लेकिन इसके उलट हमारी ही पूंजी बाहर जा रही है। अतः वैश्वीकरण के मूल सिद्धांत पर पुनः विचार करने का अवसर हमारे सामने उपलब्ध है।

वैश्वीकरण के सिद्धांत की शरुआत अस्सी के दशक में विश्व बैंक ने दक्षिण के संदर्भ में की थी। वहां पाया गया था कि दक्षिण अमरीकी देशों के नेता अति भ्रष्ट थे। वे बाजार से ऋण उठाकर सरकार के राजस्व में वृद्धि कर रहे थे, लेकिन उस रकम का उपयोग देश के विकास में करने के स्थान पर उसे अपने व्यक्तिगत स्विस बैंक के खातों में स्थानांतरित कर रहे थे। विश्व बैंक ने उस परिस्थिति में सुझाव दिया कि दक्षिण अमरीकी देशों को ऋण न दिया जाए, चूंकि ऋण से मिली हुई रकम इनके नेता रिसाव कर रहे थे। इसके स्थान पर विश्व बैंक ने कहा कि इन देशों को कहा जाए कि वे ऋण लेना बंद करें। अपने वित्तीय घाटे को घटाएं जिससे कि उनकी मुद्रा स्थिर हो और विदेशी निवेशकों को उनकी सरकार पर भरोसा बने। ऐसा करने से बहुराष्ट्रीय कंपनियां उनके देश में निवेश करने को उद्द्यत होंगी। बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा किए गए निवेश का उनके नेताओं द्वारा रिसाव करना संभव नहीं होगा, चूंकि यह रकम कंपनियों के नियंत्रण में रहेगी और वे लाभ कमाने के लिए इसका निवेश फैक्टरी आदि लगाने में करेंगी। विश्व बैंक ने सोचा था कि दक्षिण अमरीका के देशों को भ्रष्टाचार से मुक्ति मिल जाएगी, निवेश बढ़ेगा और आर्थिक विकास बढ़ेगा। इसी मंत्र को भारत द्वारा पिछले दो दशक में लागू किया गया है। इसी पालिसी को लागू करने के लिए वित्त मंत्री वित्तीय घाटे को नियंत्रण में रख रहे हैं। उनका आशय है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां शीघ्र ही भारत में निवेश करने लगेंगी और हमारी आर्थिक विकास दर चल निकलेगी।

आर्थिक विकास के लिए निवेश जरूरी होता है। इस निवेश के दो रास्ते हैं। विश्व बैंक ने निवेश का मूल स्रोत बहुराष्ट्रीय कंपनियां बताया है। विश्व बैंक का कहना है कि भारत सरकार को ऋण लेकर हाइवे आदि में निवेश नहीं करना चाहिए, क्योंकि सरकार द्वारा निवेश करने में भ्रष्टाचार की संभावना बनी रहती है। इसलिए भारत सरकार का वित्तीय घाटा हटने से निवेश आना शुरू होगा और सरकार द्वारा कम किए गए निवेश की भरपाई हो जाएगी। इसके पलट दूसरा उपाय यह है कि भारत सरकार ऋण सीधे स्वयं निवेश करे। यदि ऋण लेकर रकम का वास्तविक निवेश किया जाए और रिसाव न हो तो यह फार्मूला सीधे-सीधे सही बैठता है। यही फार्मूला अस्सी के दशक के पहले लागू था, लेकिन दक्षिण अमरीकी देशों में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण हमने इस सही फार्मूले को अनायास ही त्याग दिया था। मोदी सरकार के पिछले चार वर्षों में हमारा वित्तीय घाटा नियंत्रण में है लेकिन आर्थिक विकास दर में वृद्धि नहीं हुई है, बल्कि जैसा वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में कहा कि उन्हें चिंता है कि अपने देश की पूंजी बाहर जा रही है, साथ-साथ हमारे निर्यात दबाव में हैं और आयात बढ़ रहे हैं। इस परिस्थिति में वैश्वीकरण के मूल मंत्र पर पुनः विचार करने की जरूरत है। वित्तीय घाटा घटाने के स्थान पर वित्तीय घाटे को बढ़ाकर सरकार द्वारा ऋण लेकर निवेश बढ़ाया जाना चाहिए। उद्यमी द्वारा ऋण लेकर फैक्टरी लगाना अच्छा माना जाता है। फैक्टरी से होने वाली आय से ऋण की अदायगी की जा सकती है। इसी प्रकार यदि सरकार ऋण लेकर हाइवे तथा बिजली लाइनें बनाए, तो इससे अर्थव्यवस्था को गति मिलती है। सरकार को कुल टैक्स अधिक मिलता है। इस टैक्स से सरकार ऋण की अदायगी कर सकती है। इस फार्मूले में संकट तब आता है, जब सरकार ऋण लेकर निवेश के स्थान पर उस रकम का रिसाव करती है। मोदी सरकार मूलतः ईमानदार सरकार है, इसलिए मोदी सरकार के लिए ऋण लेकर निवेश करना सही फार्मूला बैठता है। अतः सरकार को चाहिए कि विश्व बैंक द्वारा दिए गए वैश्वीकरण के मंत्र से पीछे हटे, अपने उद्योगों को सस्ते आयातों से संरक्षण दे, जिससे कि हमारे देश में उत्पादन और रोजगार बने।

सरकार ऋण लेकर निवेश करे जिससे कि देश को बुलेट ट्रेन, हाई-वे और बिजली की लाइनें मिलें। अपने पूंजीपतियों को सम्मान देकर अपने ही देश में रहकर निवेश करने को प्रेरित करें, जिससे कि विदेशी कंपनियों के न आने पर भी हमारी आर्थिक विकास दर चलती रहे। इस समय हमारी परिस्थिति उस मरीज के जैसी है जिसे बीमार हालत में डायट पर रख दिया गया है। हमारी विकास दर न्यून बनी हुई है और वित्तीय घाटे को नियंत्रण करने से और दबाव में आ गई है। अतः सरकार को साहस रखना चाहिए और वित्तीय घाटा नियंत्रण करके विदेशी पूंजी को आकर्षित करने के विश्व बैंक के मंत्र को त्याग करके अपनी ईमानदारी पर भरोसा करते हुए, घरेलू बाजार से ऋण उठाकर  निवेश करना चाहिए और देश की आर्थिक विकास दर में वृद्धि हासिल करनी चाहिए।

ई-मेल : bharatjj@gmail.com


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