शिक्षा में अभिभावक संघर्ष

By: Jun 25th, 2018 12:05 am

युवा रोशनी के सुर्ख लम्हों की तासीर का पता लगाना हो, तो हिमाचली अभिभावकों के घटते-बढ़ते रक्तचाप से पूछिए। भविष्य की एक साथ कई कतारों के बीच छात्र समुदाय ही नहीं, बल्कि वे हजारों अभिभावक भी हैं जो बच्चों को शिक्षा के छबील के करीब लाते हैं या आगे बढ़ने की उम्मीद जगाते हैं। रूसा भले ही वार्षिक परीक्षा का आरोहण बन गया हो, लेकिन कालेज परिसरों में बिकते प्रोस्पेक्टस की तहों में कितने घरों के सपने प्रवेश के मानदंड में पलकें  खोलना चाहते हैं, इस अनुमान की चांदनी को पकड़ना मुश्किल है। शिक्षा की कसरतों में अभिभावकों की दौड़ का मुआयना करें, तो हर तरह प्रवेश का श्रम अब सामाजिक चलचित्र की तरह हो गया है। इसमें दो राय नहीं कि छात्रों की शुमारी के साथ-साथ, अभिभावकों की तैयारी भी रहती है और इसीलिए शिक्षा के महाकुंभ से हासिल करना, सामाजिक प्रतिस्पर्धा का नजारा भी है। स्कूल से कालेज और फिर भविष्य की सीढ़ी तक की जिज्ञासा, कमोबेश पारिवारिक चिंताओं को घेर रही है। शैक्षणिक उत्थान की डगर पर स्कूली शिक्षा का मुकाम अगर कालेज में प्रवेश है, तो उसके आगे भविष्य का मंच स्थापित करना और भी टेढ़ी खीर है। ऐसे में यह आवश्यक हो जाता है कि शिक्षा के वर्तमान ढर्रे में अभिभावकों के संघर्ष को भी समझा जाए या इस तड़प के अनुरूप सुधार किए जाएं। वार्षिक परीक्षाओं के बाद कालेजों की दाखिला परेड में एक ऐसा वर्ग भी खड़ा है, जिसे अमूमन बैक बैंचर्स कहते हैं या सफलता की सबसे छोटी पायदान मानते हैं, फिर भी इस सफर को रोका नहीं जा सकता। मात्रात्मक विस्तार की शिक्षा में इस वर्ग की अपेक्षाओं में क्षीण होता पाठ्यक्रम, जिन प्रश्नों के सामने निरुत्तर है, उसका हल क्या होगा। क्या कम अंक धारण  करने वाले छात्रों के लिए उच्च शिक्षा के नए विकल्प तैयार हैं। क्या ऐसे कालेज बनाए गए, जो व्यावहारिक शिक्षा की नई संभावनाओं से परिपूर्ण हैं। शिक्षा की दौड़ में उपाधियां अगर इंजीनियरिंग कालेजों में हांफने लगी हैं, तो उच्च शिक्षा के श्रीगणेश में छात्र-अभिभावक किस आश्वासन से भविष्य चुनें। हम जिस पद्धति से स्कूली शिक्षा का ढांचा खड़ा कर रहे हैं, वहां हर प्रकार की दौड़ एक तरह का धोखा है या परीक्षा परिणामों के बाद औचित्यहीन शिक्षा का ऐसा खुलासा है, जिसने अनेक अभिभावकों को वंचित बना दिया। दरअसल शिक्षा के जरिए ज्ञान प्राप्ति और अध्ययन की परिपाटी के बावजूद, मूल्यांकन का सफर इतना विचित्र है कि हर कदम के बाद एक चौराहा है। अब या तो ड्रॉप करना, भविष्य का मार्गदर्शन है या अनैतिक तरीके से शिक्षा के बजाय, प्रोफेशनल पाठ्यक्रम में जीत हासिल करना अपरिहार्य है। इसलिए हर साल प्रॉक्सी शिक्षा के आचरण में भविष्य की तैयारी का रेवड़ प्रदेश से बाहर निकल जाता है। स्कूल-कालेज की सफलता का अधिकार अब किसी अकादमी के सूचनापट्ट पर अपहृत है, तो इस हकीकत का नजारा भी खूब है। यानी अभिभावकों ने यह मान लिया कि बच्चों को आगे बढ़ाने की कोशिश में निजी अकादमियों की शरण जरूरी है। शिक्षा के इन मानदंडों में जब मां-बाप पिछड़ते हैं, तो उसकी एक वजह नए दौर के ऐसे साधन हैं, जो अनिवार्य बनकर चित्रण कर रहे हैं। बेशक इक्का-दुक्का बच्चे शिखर के काबिल बन रहे हैं, लेकिन क्या सामान्य छात्र के लिए आधुनिक शिक्षा के इंतजाम केवल प्रहसन हैं। देश की क्षमता तो हर तरह के छात्र में है, फिर क्यों नहीं शिक्षा के उच्चारण हर सतह को छूते हैं।


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