शिमला की अनदेखी से पर्यटन पानी-पानी

By: Jun 13th, 2018 12:05 am

योगेश कुमार गोयल

लेखक, वरिष्ठ पत्रकार हैं

शिमला से करीब 21 किलोमीटर दूर सतलुज नदी बहती है। 1982 में सतलुज नदी से शिमला को पानी देने के लिए एक सर्वेक्षण किया गया था। तब इस प्रोजेक्ट की अनुमानित लागत  27 करोड़ थी, किंतु इन 36 सालों के भीतर इस परियोजना पर कुछ नहीं हुआ और अब इसकी अनुमानित लागत 500 करोड़ से अधिक है…

पर्वतों की रानी कहे जाने वाले शिमला में इस साल पानी की किल्लत को लेकर जिस तरह के हालात पैदा हुए हैं, उनसे हर कोई हतप्रभ रह गया है। यह पहली बार देखा गया कि जो शिमला सालभर पर्यटकों से भरा रहता था, अब वहां ‘मत पधारो म्हारे प्रदेश’ सरीखे अंदाज में उन्हीं सैलानियों से शिमला नहीं पहुंचने की अपील की गई है। अंतरराष्ट्रीय ग्रीष्म महोत्सव रद्द करना पड़ा। अब जिस प्रकार पर्वतीय क्षेत्रों में भारी मानवीय भीड़ बढ़ रही है, बड़ी-बड़ी औद्योगिक इकाइयां स्थापित हो रही हैं, प्राकृतिक संसाधनों का बड़े पैमाने पर दोहन किया जा रहा है, निश्चित रूप से उसी का भयानक दुष्परिणाम है शिमला शहर का ताजा जल संकट। कहना गलत न होगा कि शिमला के आज जो हालात हैं, उसके लिए वैश्विक तापवृद्धि कम, प्रकृति में बढ़ता मानवीय दखल अधिक जिम्मेदार हैं। 35.34 वर्ग किलोमीटर में फैला छोटा सा नगर है शिमला, जिसे अंग्रेजों ने अपने वातावरण के अनुकूल बसाया था और जिसकी कुल आबादी 1878 में सिर्फ 16 हजार थी, आज यहां की आबादी करीब 11 गुना बढ़कर करीब पौने दो लाख हो चुकी है। इसके अलावा हर साल कई लाख पर्यटक शिमला पहुंचते हैं। शिमला की स्थानीय आबादी और पर्यटकों की संख्या साल-दर -साल बढ़ रही है, किंतु इस शहर में उस लिहाज से जलापूर्ति बढ़ाने के लिए कोई विशेष प्रबंध नहीं किए गए।

शिमला से करीब 21 किलोमीटर दूर सतलुज नदी बहती है। 1982 में सतलुज नदी से शिमला को पानी पहुंचाने के लिए एक सर्वेक्षण किया गया था। इस प्रोजेक्ट की अनुमानित लागत तब 27 करोड़ थी, किंतु इन 36 सालों के भीतर इस परियोजना पर कुछ नहीं हुआ और अब इसकी अनुमानित लागत 500 करोड़ से अधिक हो चुकी है। शिमला में जो वर्तमान जल संकट उभरकर सामने आया है, वह काफी हद तक सरकारी अदूरदर्शिता का परिणाम है। जलधाराओं से भरपूर इस खूबसूरत पर्वतीय क्षेत्र में, जहां 1600 मिलीमीटर वार्षिक वर्षा का औसत है, वहां अगर ऐसा भयावह ऐतिहासिक जल संकट मुंह बाए खड़ा है, तो उसके मूल कारणों की पड़ताल करना बेहद जरूरी है। दरअसल यह संकट कोई रातोंरात उपजा संकट नहीं है, बल्कि पिछले चार दशकों से शिमला में यह समस्या बरकरार है।

हां, इसकी अनदेखी के चलते इस बार हालात भयानक स्तर पर जा पहुंचे हैं। शहर में करीब ढ़ाई हजार होटल बगैर स्वीकृति के चल रहे हैं, पर्यटकों के लिए कोई ठोस नियम नहीं हैं, अवैध निर्माण बेहिसाब बढ़ रहे हैं। जहां कभी प्राकृतिक जल स्रोत हुआ करते थे, आज वहां बड़े-बड़े आलीशान होटल बन गए हैं। शहर में जलग्रहण क्षेत्रों का बड़े पैमाने पर अतिक्रमण शिमला जल संकट का मूल कारण है। इस जल संकट के कारण जहां शिमला के कई रेस्तरां बंद हो चुके हैं, वहीं अस्पतालों जैसी अत्यावश्यक सुविधाओं पर भी इसका गंभीर असर पड़ा है। आज हालात इतने बदतर हो चुके हैं कि जलधाराओं से घिरे इस शहर के पास इतना पानी भी नहीं है कि स्थानीय लोग अपनी मूलभूत जरूरतें भी पूरी कर सकें। शहर की बढ़ती जरूरतों के अनुसार यहां प्रतिदिन साढ़े चार करोड़ लीटर पानी की आवश्यकता होती है, किंतु रोजाना सिर्फ 3.6 करोड़ लीटर पानी ही शिमला को मिल पाता था और गर्मियों में तो पानी की उपलब्धता सिर्फ दो करोड़ लीटर ही रह जाती है। यानी गर्मियों में लोगों को अपनी जरूरतों का आधा पानी भी उपलब्ध नहीं हो पाता। शिमला में 15 किलोमीटर दूर स्थित गुम्मा और 7 किलोमीटर दूर स्थित अश्विनी खड से पानी आता है, जिनकी पानी उठाने की क्षमता करीब 4.5 करोड़ लीटर है। इसके अलावा चुरट, चहेडु, कोटी ब्रांडी और 50 अन्य जल स्रोतों से भी दो करोड़ लीटर पानी उठाने की क्षमता है, किंतु पानी वितरण के दौरान अंग्रेजों के जमाने की खस्ताहाल पाइप लाइनों व मशीनरी के चलते करीब 20 फीसदी पानी लीकेज की ही भेंट चढ़ जाता है। सीवरेज का गंदा पानी मिलने की वजह से अश्विनी खड सहित कई ऐसे पानी के स्रोत भी शामिल हैं, जिनका पानी अब पीने लायक नहीं रहा है। दूषित पेयजल का ही नतीजा था कि पिछले साल शिमला में पीलिया का संकट गहरा गया था।  प्राकृतिक स्रोतों की सफाई के अभाव में जल संचयन नहीं हो पाता है। प्लास्टिक कचरे ने शिमला की सूरत बिगाड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। इसी कचरे के चलते कई बार नालियां चोक हो जाती हैं। एक ओर शिमला में जल संकट की गंभीर समस्या है, वहीं स्थानीय और पर्यटकों की बढ़ती आबादी के कारण प्रदूषण का स्तर भी काफी बढ़ा है। यदि इन संकटों से निजात पानी है, तो ठोस नीतियां बनाने और उन पर गंभीरता से अमल करने की सख्त दरकार है।

मसलन, शिमला में ढेर सारे सरकारी विभागों के मुख्यालय हैं, उन्हें वहां से हिमाचल के ही दूसरे शहरों में स्थानांतरित कर यहां कामकाज के सिलसिले में आने वाली भीड़ को कम करके प्रदूषण के मामले में भी थोड़ी राहत तो जरूर मिल सकती है। अदालत द्वारा शहर से अवैध कब्जे हटाने के निर्देश दिए जा चुके हैं, उन पर प्रशासन द्वारा सख्ती से अमल किया जाना अपेक्षित है। जहां तक शिमला जल संकट के स्थायी समाधान की बात है तो सबसे पहले तो खस्ताहाल पाइप लाइनों को दुरुस्त करना होगा, जिनसे हजारों लीटर पानी बर्बाद हो रहा है। साथ ही ठप पड़े जलाशयों की भी सुध लेनी होगी और इनमें पानी को स्वच्छ रखने की व्यवस्था करने के साथ-साथ इनकी भंडारण क्षमता बढ़ाने की ओर ध्यान दिया जाना चाहिए। ऐसे जल स्रोतों की व्यवस्था भी की जानी चाहिए, जिनमें वर्षा जल संचयित किया जा सके।

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