श्रीविश्वकर्मा पुराण

By: Jun 23rd, 2018 12:05 am

गतांक से आगे…

उन्होेंने प्रतिज्ञा करी कि आज किसी तरह से मैं इस दुष्ट का वध करूंगा, इस तरह निश्चय करके वह अपने संपूर्ण बल से युद्ध करने लगे। उन्होंने अपने हाथ में रही हुई शक्ति ताड़कासुर के कपाल में लगी शक्ति का प्रवाह होने के साथ ही अत्यंत पीड़ा पाता हुआ वह असुर लहू उगलने लगा। जैसे लहू फिरत है, उस प्रकार गोल चक्कर फिरता-फिरता सौ योजन दूर जाकर वह गिर पड़ा। उसके शरीर में से एक तेज निकला और वह तेज सबके देखते-देखते ही भगवान शंकर में लीन हो गया।

इस प्रकार कार्तिकेय ने अपने जन्म से छठे दिन पल भर में उसका वध किया। ताड़कासुर का वध करने के  बाद कार्तिक के मन में अत्यंत ही दुख होने लगा। ताड़कासुर शंकर का भक्त था और उसका वध स्वयं किया। इस विचार से उनके मन को जरा भी शांति न मिली थी, सब देवताओं ने उनको अत्यंत समझाया कि पापी का वध करने में कोई पाप नहीं होता फिर भी उनको ऐसा लगता है कि वह शंकर का भक्त होने से मुझको बहुत बड़ा पाप लगा है। ऐसे विचार से अपने मन में अत्यंत दुख पाने लगा। इससे उसके मन का दुख दूर करने के लिए विष्णु ने उसको प्रायश्चित करने को कहा।

विष्णु बोले, हे कार्तिक! भगवान शंकर के भक्त का वध करने से जो पाप होता है, उस पाप के निवारण के लिए तुम भगवान शंकर के लिंग की प्रतिष्ठा करो। भगवान शंकर के लिंग की प्रतिष्ठा करने से मनुष्य के बीस  जन्मों के ब्रह्महत्या के समान भयंकर पापों का भी नाश होता है। इसलिए लिंग प्रतिष्ठा सर्वश्रेष्ठ प्रायश्चित है। विष्णु से वचन सुनकर कार्तिक भगवान भी लिंग प्रतिष्ठा करने के लिए तत्पर हुए। उन्होंने पवित्र होकर भगवान श्री विराट प्रभु का ध्यान किया, इसलिए प्रभु विश्वकर्मा तुरंत ही, वहां प्रत्यक्ष हुए और कार्तिक का कार्य करने के लिए उनसे पूछने लगे। कार्तिक बोले, हे विश्वकर्मा! मेरे हाथ से शंकर जी के भक्त का वध हुआ है, उस ब्रह्मरूपी अति निंदनीय पाप कर्म के प्रायश्चित के लिए मैं तीन शिवलिंगों की स्थापना करने की इच्छा रखता हूं। इसलिए आप मुझको तीन लिंग बनाकर दो। इस प्रकार कार्तिक की इच्छा को पूर्ण करने के हेतु विराट प्रभु ने उसको तीन लिंग बनाकर दिए, इसके बाद अपने पाप के प्रायश्चित के लिए कार्तिक ने उन तीनों लिंगों की उत्तम प्रकार से प्रतिष्ठा की। जिस जगह पर ताड़कासुर का वध करने की प्रतिज्ञा की थी तथा जिस जगह पर उस दैत्य को शक्ति लगी थी तथा जिस जगह उसका शरीर अचेत होकर गिरा था, उन तीनों जगहों के ऊपर प्रभु विश्वकर्मा ने उत्तम प्रकार के देवालयों का निर्माण किया।

श्रीविश्वकर्मा के निर्माण किए हुए देवालयों में उन्होंने ही निर्माण किए हुए ऐसे तीनों लिंगों की कार्तिक ने प्रतिष्ठा की। जिस जगह के ऊपर इन्होंने असुर वध की प्रतिज्ञा की थी, उस जगह पर प्रतिमेश्वर नाम से प्रथम लिंग की प्रतिष्ठा की। इसके बाद कार्तिक की फेंकी हुई शक्ति जिस जगह पर उस दैत्य के कपाल में लगी थी, उस जगह के ऊपर उन्होंने विश्वकर्मा के बनाए हुए दूसरे लिंग का कपालेश्वर नाम से स्थापित किया और जिस जगह पर उस भयंकर दानव का प्राणरहित शरीर गिरा था, उस जगह पर कुमारेश्वर इस नाम से उसने शिवलिंग की प्रतिष्ठा की ये कुमारेश्वर का देवालय समय आने पर अत्यंत जीर्ण हो गया, तब इस प्रदेश की अधिष्ठाता कुमारी ने श्री विश्वकर्मा को बुलाकर उस स्थान पर प्राणोद्धार कराया था। इससे वह देवालय कुमारीश्वर के नाम से ही जाना गया।                                                        – क्रमशः


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