सुरित करौ मेरे सांइयां

By: Jun 23rd, 2018 12:20 am

28 जून कबीर जयंती पर विशेष

यह तो तुम भूल कर भी मत सोचना कि तुम परमात्मा को पा लोगे। तुम कभी भी न पाओगे। पाना हो सकता है, लेकिन तुम न रहोगे, तभी पाना होगा। पाने की घटना घटेगी, लेकिन तुम न रहोगे तभी। जब तक तुम हो, तब तक बाधा बनी रहेगी। तब तक तुम्हारे कारण ही तुम परमात्मा को दूर हटाते रहोगे…

सुरति करौ मेरे सांइयां, हम हैं भवजल मांहि।

आपे ही बहि जाएंगे, जे नहिं पकरौ बांहि।।

कबीर की पहली शिक्षा तो है कि तुम सुरति से भरो, कि तुम स्मरण से भरो परमात्मा के। जैसे-जैसे तुम परमात्मा के स्मरण से भरोगे, जैसे-जैसे उसकी याद सघन होगी, तुम्हें अपने अहंकार का भाव कम होता जाएगा। ये दोनों साथ नहीं रह सकते। ये तो एक म्यान में दो तलवारें हैं, ये साथ नहीं चल सकतीं। यह राह बड़ी संकरी है, बड़ी बारीक हैः

प्रेम गली अति सांकरी ता में दो न समाहि।

यहां या तो परमात्मा का स्मरण बचेगा, या अहंकार का स्मरण। दोनों स्मरण साथ नहीं चल सकते। अगर परमात्मा को पाना है, तो स्वयं को छोड़ना होगा। अगर स्वयं को पकड़ना है, तो परमात्मा छूटा ही हुआ समझो। यह तो तुम भूल कर भी मत सोचना, कि तुम परमात्मा को पा लोगे। तुम कभी भी न पाओगे। पाना हो सकता है; लेकिन तुम न रहोगे, तभी पाना होगा। पाने की घटना घटेगी, लेकिन तुम न रहोगे तभी। जब तक तुम हो, तब तक बाधा बनी रहेगी। तब तक तुम्हारे कारण ही तुम परमात्मा को दूर हटाते रहोगे। तो कबीर कहते हैं, पहले तो मेरी सुरति सध जाए; कि मुझे परमात्मा का स्मरण सध जाए। लेकिन कबीर जानते हैं कि जिन्होंने ऐसा सोच लिया कि हमें सुरति सध गई, वे एक नए अहंकार से भर गए। जो कहने लगे, कि हम तो परमात्मा के भक्त हैं; कि हम तो उसकी ही याद करते हैं; कि हम तो उसकी याद से भरे हैं। उन्होंने एक नया ‘मैं’ जन्मा लिया। पुराना ‘मैं’ नया हो गया, और मजबूत हो गया। पुराना ‘मैं’ सांसारिक था, यह धार्मिक हो गया। यह जहर और खतरनाक है।

तो एक तो अहंकार है, कि तुम्हारे पास बड़ी दुकान है; और एक अहंकार है, कि तुम रोज पूजा करते हो। एक अहंकार है कि तुम्हारे पास धन है; और एक अहंकार है कि तुमने बहुत त्याग किया है। एक अहंकार है, कि दुनिया में तुम्हारा बड़ा बल है; और एक अहंकार है, कि परमात्मा के पास तुम्हारी बड़ी पहुंच है। वह दोनों ही एक जैसे हैं। दूसरा ज्यादा खतरनाक है क्योंकि पहले की मूढ़ता तो दिखाई पड़ जाए, दूसरे की मूढ़ता दिखाई भी न पड़ेगी। दूसरे की मूढ़ता दिखाई न पड़ेगी, क्योंकि वह शास्त्रों में ढंकी है; प्रार्थना, पूजा, धूप, दीप, अर्चना में ढंकी है। पहली मूढ़ता तो नग्न है, बाजार में खड़ी है। दूसरी मूढ़ता छिपी है मंदिर में, मस्जिद में, गुरुद्वारे में। पहली मूढ़ता तो बहुत लोगों में है। इसलिए दिखाई पड़ना बहुत कठिन नहीं है। उसके मरीज तो बहुत हैं। दूसरी मूढ़ता बड़ी न्यून है। उसके मरीज बेजोड़ हैं। वह बीमारी कभी-कभी होती है, मुश्किल से होती है। इसलिए उस बीमारी में भी अकड़ पैदा हो जाती है। तो कबीर पहले सूत्र तो देते हैं कि तुम सुरति से भर जाओ; लेकिन इस तरह मत पकड़ लेना सुरति को, कि सुरति ही अहंकार को भरने का कारण हो जाए।

भक्तों को देखो, उनकी अकड़ देखो! ज्ञानियों को देखो, उनकी अकड़ देखो! त्यागियों को देखो, उनकी अकड़ देखो! पुरानी अकड़ चली गई, नई अकड़ पकड़ गई। अकड़ इतनी सूक्ष्म है, कि तुम एक तरफ से छोड़ते हो, कि दूसरी तरफ से पकड़ लेते हो। तो इस अकड़ की संभावना ही मिट जाए, इसलिए कबीर दूसरा सूत्र देते हैं-‘सुरति करौ मेरे सांइयां।’ इसलिए वे परमात्मा से कहते हैं कि मैं तो तुम्हारे स्मरण से भरने की कोशिश कर रहा हूं। पर वह काफी नहीं है। मैं अकेला भव-सागर पार न कर सकूंगा। मैं तो डूब ही जाऊंगा। मेरा त्याग, मेरी पूजा, मेरी साधना पर्याप्त नहीं है। जरूरी हो सकती है, पर्याप्त नहीं है। मेरी तरफ से मैं जो भी कर रहा हूं, वह अंधेरे में टटोलने जैसा है। उससे द्वार खुलेगा ही, यह पक्का नहीं है। उससे द्वार क्या खुलेगा! मैं ही कैसे द्वार को खोल पाऊंगा? अंधा! अंधेरे में! सब तरफ से बेचैन और परेशान। पुकारता हूं तुम्हें, लेकिन मेरी पुकार ही तुम तक पहुंच पाएगी? न तो तुम्हारा पता मुझे मालूम, न ठिकाना मुझे मालूम। तुम कहां हो, यह भी मुझे मालूम नहीं। पुकारता हूं और पुकार में भी कहीं न कहीं मेरा संदेह छिपा है। मैं हूं ऐसा। मेरी सुरति भी पूरी नहीं है। वह भी खंड-खंड है। कभी भूल जाता हूं, कभी याद कर लेता हूं।

‘सुरति करौ मेरे सांइयां’- इसलिए तुम्हें भी मेरी याद करनी पड़ेगी। मैं तो चल रहा हूं, अपनी चेष्टा कर रहा हूं। मुझे पता भी नहीं कि यह तुम्हारी ही दिशा है, जिसमें मैं चल रहा हूं? तुम्हें पुकारता चल रहा हूं, लेकिन मुझे पता नहीं यह पुकार तुम्हारे घर की तरफ जा रही है, नहीं जा रही है? इसलिए अकेले न हो सकेगा। ‘सुरति करौ मेरे सांइयां’— तुम भी मेरी थोड़ी याद करो। ‘हम हैं भवजल मांहि।’- सागर बड़ा है। संसार बड़ा सूक्ष्म है, किनारा दिखाई नहीं पड़ता। डूबना ज्यादा निश्चित मालूम पड़ता है, उबरने के। अपनी ही सुरति की नाव को बना कर तुम्हारे किनारे को पा लेंगे, यह संदिग्ध मालूम पड़ता है। हम ही तो बनाएंगे उस नाव को; हमारी सामर्थ्य क्या! हमारी पात्रता कितनी! हमारी बनाई हुई नाव भी तो हमारी ही नाव होगी। हमसे ही बनी होगी, हमसे बड़ी तो नहीं हो सकती। हमसे महत्त्वपूर्ण तो नहीं हो सकती। हमारी सब भूलें उस नाव में होंगी। हमारे सब छिद्र उस नाव में होंगे। बनाने वाले से बनाई गई चीज बड़ी नहीं हो सकती। एक चित्रकार चित्र बनाता है; तो चित्रकार ही तो बनाता है। तो चित्रकार की सारी भूलें उसमें होंगी। चित्रकार की सारी मनोदशा उसमें झलकेगी। चित्रकार के सारे मनोभाव उसमें चित्रित हो जाएंगे। एक मूर्तिकार मूर्ति बनाता है। मूर्ति क्या कभी मूर्तिकार से बड़ी हो सकती है? कैसे होगी? बनाने वाले से बनाई गई चीज बड़ी नहीं हो सकती। सृष्टि सदा ही स्रष्टा से छोटी होगी।

तो कबीर कहते हैं, सुरति करौ मेरे सांइयां। हे प्रभु, तुम मेरी याद करो। मैं तुम्हारी याद कर रहा हूं। ‘हम हैं भवजल मांहि।’ हम अब डूबे तब डूबे की हालत में हैं। पुकारते हैं, चिल्लाते हैं, लेकिन तुम तक पहुंचती है आवाज? कैसे हमें भरोसा हो, जब तक कि तुम्हारी आवाज भी हम तक न पहुंचे? हम तो हाथ फैला रहे हैं अंधेरे में–स्वभावतः, क्योंकि प्रकाश अगर होता तो हम तुम्हें पुकारते ही क्यों? हमारा हाथ अंधेरे में फैला है, लेकिन हमें कैसे पक्का पता चले, कि तुम्हारे हाथ तक पहुंच गया है, जब तक तुम्हारा हाथ हमारे हाथ का स्पर्श न करे? यह अहंकार को बिलकुल जड़ से मिटा देने की चेष्टा है। थोड़ा सा बच सकता है साधक में, तपस्वी में; भक्त में बिलकुल नहीं बच सकता। क्योंकि भक्त यह नहीं कहता कि मेरी ही सामर्थ्य से पहुंच जाऊंगा। तेरा सहारा चाहिए।

‘सुरति करौ मेरे सांइयां, हम हैं भवजल मांहि। आपे ही बहि जाएंगे…’। अगर हम अपनी ही चेष्टा करते रहे, तो बह जाना निश्चित है। और यह अहंकार इतना भयंकर है, कि हम छोड़-छोड़ कर इसे पकड़ लेते हैं। एक तरफ से छोड़ते हैं, दूसरी तरफ से पकड़ लेते हैं। इधर से विदा करते हैं कि वह पीछे के दरवाजे से भीतर आ जाता है। उसे हम फिर पाते हैं, वह सिंहासन पर विराजमान है। उससे हम बच नहीं पाते।

यह जो विनम्र निवेदन है, यह जो अहंकार का साफ-साफ स्वीकार है, यही विनम्र आदमी का लक्षण है। अहंकारी तो कहेगा, मैं विनम्र हूं। विनम्रता ही उसका अहंकार बन जाएगी। विनम्र आदमी कहेगा, पक्का नहीं है। अहंकार सूक्ष्म है। जाल कठिन है। बाहर निकलना मुश्किल है। चेष्टा करता हूं, लेकिन जीत मालूम नहीं होती।

यह विनम्र आदमी कहेगा, जिसने निश्चित ही अहंकार को छोड़ने के प्रयास किए हैं और पाया है कि हर बार अहंकार किसी न किसी रूप में बच जाता है। बड़े जटिल मार्ग हैं अहंकार के। तुम धन छोड़ देते हो, क्योंकि तुम सोचते थे, धन के कारण हैं। अचानक अहंकार कहता है, ‘देखो! तुम जैसा त्यागी इस संसार में कोई भी नहीं।’

तुम घर-द्वार छोड़ देते हो, जंगल में बैठ जाते हो। अहंकार कहता है, देखो! पापी तो सब संसार में हैं, तुम कैसे पुण्यात्मा! तुम यहां जंगल में हिमालय की गुफा में बैठे हो। इससे तुम कैसे भागोगे? कहां जाओगे? यह तुम्हारे साथ ही खड़ा रहेगा। विनम्र आदमी इसको पहचान लेता है। विनम्र आदमी स्वीकार करता है कि अहंकार बहुत कठिन है। इसलिए विनम्र परमात्मा से कहेगा, ‘आपे ही बहि जाएंगे, जे नहिं पकरौ बांहि।’


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