हर विषय को अभिव्यक्त करती है ग़ज़ल : नाज़ली
मेरी किताब के अंश : सीधे लेखक से किस्त : 2
ऐसे समय में जबकि अखबारों में साहित्य के दर्शन सिमटते जा रहे हैं, ‘दिव्य हिमाचल’ ने साहित्यिक सरोकार के लिए एक नई सीरीज शुरू की है। लेखक क्यों रचना करता है, उसकी मूल भावना क्या रहती है, संवेदना की गागर में उसका सागर क्या है, साहित्य में उसका योगदान तथा अनुभव क्या हैं, इन्हीं विषयों पर राय व्यक्त करते लेखक से रूबरू होने का मौका यह सीरीज उपलब्ध करवाएगी। सीरीज की दूसरी किस्त में पेश है साहित्यकार डा. नलिनी विभा नाज़ली का साहित्यिक संसार…
आ़गाज़ अपने एक शेर से करती हूं :
ख़ादिम रहे हैं फन के हम अदना से ‘नाज़ली’
शेरो सुख़न को जीने का सामां बना लिया
उर्दू की बाक़ायदा तालीम मैंने हासिल नहीं की, मैं चौथी श्रेणी में थी जब मेरे दादाजी डॉ. लाल चंद धर्मानी ने मुझे उर्दू वर्णमाला के हरूफ़ ‘अलिफ़ बे पे’ सिखाए थे। मेरे पिताजी को कला, साहित्य और संगीत का अद्भुत ज्ञान था और हमारे घर में अदबी महफिलें हुआ करती थीं। यही पसमंज़र (पृष्ठभूमि) रहा कला और साहित्य की तरफ़ मेरे रुझान का। हालांकि एमए, एमफिल व पीएचडी मैंने संगीत विषय में की, लेकिन मुख्तलिफ़ ज़बानों-पंजाबी, हिंदी, अंग्रेज़ी, बांग्ला, उर्दू वग़ैरह को सीखना और कविता, गीत, ग़ज़लें, नज़्में, हम्द नाश्ते
पाक, रूहानी विधाएं, लघुकथाएं और कहानियां लिखने की ओर रुझान निरंतर रहा।
लगभग 600 काव्य (कथा) संकलनों में रचनाएं (हिंदी, उर्दू) प्रकाशित हुईं। 8 पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। चिंतन और जब हरइक इन्सां बदलेगा (दोनों काव्य संग्रह) 1985-86 में प्रकाशित हुए।
2004 में पहला उर्दू शाइरी का मजमुआ ‘रेज़ा रेज़ा आईना’ उर्दू रस्मुलख़त लिपि में प्रकाशित हुआ। 2009 में देवनागरी लिपि में ‘ग़ज़ल के पर्दे में’, 2010 में उर्दू लिपि में ‘हर्फ़ हर्फ़ आइना’, 2012 में उर्दू रस्मुलख़त में ही ‘दस्तख़त रह जाएंगे’ प्रकाशित हुआ। 2012 में कॉलेज से सेवानिवृत्त होने के बाद 2015 में हिंदी बाल काव्य संग्रह ‘अनमोल सच’ और 2016 में बाल काव्य संग्रह ‘निश्छल बचपन’ प्रकाशित हुए। इन दोनों बाल काव्य संग्रहों की विशिष्टता यह है कि हर पृष्ठ पर कविता के भावानुरूप पेंटिंग्स तथा आवरण पृष्ठांकन भी मैंने ख़ुद ही किया है। इस तरह से लेखन अनवरत जारी रहा है। अभी भी तीन पुस्तकें प्रकाशित होने को हैं, लेकिन स्वास्थ्य की समस्याओं के चलते रुका है। साहित्य सेवाओं के लिए लगभग दो सौ पचपन सम्मान, पुरस्कार, मानद उपाधियां प्राप्त हुई हैं। इनमें हिमाचल प्रदेश सरकार का प्रेरणा स्रोत सम्मान-वर्ष 2016 प्रमुख है। ग़ज़ल काव्य की एक विशिष्ट एवं सर्वाधिक लोकप्रिय विधा है। अरबी, फारसी, उर्दू, हिंदी और अब दीगर ज़बानों में भी ग़ज़लें कही जा रही हैं। हर कवि या शाइर की प्रारंभिक रचनाएं ‘स्व’ से शुरू होती हैं, अपने दुःख-दर्द की अभिव्यक्ति होती है क्योंकि अपने भोगे हुए यथार्थ को, अपने एहसासात को कवि काग़ज़ पर उंड़ेलता है। मेरा प्रथम शेर (वर्ष 1975) देखिएः
दर्द जब हद से बढ़े और न झेला जाए
तब ग़ज़ल कह के वो काग़ज़ पे उंड़ेला जाए
रफ्ता रफ्ता तज्रिबात (अनुभवों) का दाइरा वसी (विस्तृत) होता है तो आम जन की वेदना अभिव्यक्त होने लगती है ग़ज़ल के माध्यम से। ‘ग़ज़ल के पर्दे में’ पुस्तक से एक शेर मुलाहिज़ा फरमाइएगा :
बात हक़ की ग़ज़ल के पर्दे में
बेधड़क बज़्म में उठा दीजे
हाय! कैसी सज़ा है जीने की
एक मुफ़्िलस को अश्क पीने की
उसके हक़ में बयान देगा कौन
चीथड़े तन पे, बू पसीने की
दिली सुकून की जहां तक बात है तो संवेदनाएं ग़ज़ल के सांचे में ढल कर, अभिव्यक्त होकर ही राहत महसूस करती हैं। दिल से निकले हुए अश्आर सीधे पाठक-श्रोता के दिल में उतर जाते हैं :
ज़ीस्त की बर्फ़ पोश राहें थीं
पांव फिर मेरे जल गए कैसे
ख़रीदे दर्द, ख़ुशियां बेच डालीं
सज़ा इस जुर्म की हम सह रहे हैं
शाइर की वेदना में पाठक को अपनी वेदना का एहसास होता है क्योंकि हर किसी को कोई न कोई दुःख है :
है यकसां ‘नाज़ली’ रूदादे इन्सां
कहां वो आंख जो पुरनम नहीं है
औरत के हवाले से कही और मुशायरों में पढ़ी नज़्मों के दौरान तमाम औरतों को रोता-सिसकता देखा है मैंने, श्रोता शाइर की उस टीस को महसूस कर लेता है, वही शाइरी की सफलता है।
क्या क्या न ज़ब्त उसने किया, किस को क्या ख़बर
पत्थर ग़मों के ढो गई वो ख़ामुशी के साथ
हर अह्द में ख़ुद अपने ही क़ातिल की
तेग़ को
अपने लहू से धो गई वो ख़ामुशी के साथ
दाद ढूंढना कभी भी शाइरी का मकसद नहीं होता, न ही होना चाहिए। शेर में अगर जान है तो दाद ख़ुद ब ख़ुद मिलती हैः
लहू से करती है तहरीर ‘नाज़ली’ ग़ज़लें
कि इस का ख़ूने-जिगर इस की रौशनाई है
सृजन संतुष्टि देता है, लेकिन संतुष्ट होकर बैठ जाना ख़ुद को शल (शिथिल) कर लेना है। अविराम लेखन, एक आलोचक की दृष्टि से अपनी रचना को देखना और अपनी इस्लाह ख़ुद करना जारी रहना चाहिए। तग़ज़्ज़ुल, संगीत, रागात्मकता कविता, गीत और ग़ज़ल की आत्मा है। यह ज़रूरी नहीं कि ग़ज़ल को तरन्नुम में ही पढ़ा जाए। एक ग़ज़लगो तहत में भी श्रोता के दिल में अपना कलाम उतार देने में सक्षम होता है। ग़ज़लसराई (गाना) कोई शर्त नहीं। लेकिन ग़ज़ल या कविता में गेय तत्त्व या तग़ज़्ज़ुल एक विशिष्ट गुण है। शाइर की कोमल कल्पना तख़ैय्युल (ख़ूबसूरत) शब्द-भाव-चित्र बनाती है :
इक चराग़ां रात भर पानी पे है
रौशनी का इक नगर पानी पे है
(बनारस में गंगा जी का एक मंज़र, मानो पानी पर एक दीपोत्सव हो)
छेड़ती है रागिनी पतवार क्या
एक नग़्मा सर ब सर पानी पे है
तरन्नुम की चेष्टा नहीं करनी पड़ती, गुनगुना कर ग़ज़ल हो जाती है, ज़बरदस्ती नहीं लिखी जाती, धाराप्रवाह बहती है स्वतः। साहित्यिक व्यक्तित्व को समझने वाले विरले ही होते हैं। शाइरात (कवयित्रियों) के लिए वक़्त चुरा कर साहित्य सृजन करना अपने आप में एक उपलब्धि है। जीवन की विषम परिस्थितियां, आत्मीयता का हृस, क़द्रों (जीवन मूल्यों) का पतन, युगबोध, सामाजिक विषमताएं, सियासत और मज़हब के नाम पर लूट खसोट-तमाम विषय ग़ज़ल की परिधि में आ चुके हैं :
इन सियासत और मज़हब की दुकानों में भला
मुफ़्िलसों के भी निवालों का कोई इम्कान है
शाइर माहौलियात (पर्यावरण) पर भी बेबाक ़कलम चलाता है :
गुलों का रंग उड़ता जा रहा है
हवा में ज़हर घुलता जा रहा है
हवाए पानी, ज़मीं पर हक़ था सबका
जो हाथों से निकलता जा रहा है
ये बजरी चोर इन्सां देख लीजे
पहाड़ों तक को ढोता जा रहा है
हवस पर हैफ़ इसकी ‘नाज़ली’ जो
गिरा कर पेड़ दौलत पा रहा है
क़ौमपरस्ती पर कौन शाइर नहीं लिखेगा :
लाख उठाएं अमन के दुश्मन आंधी बैर अदावत की
‘नाज़ली’ हम उन की चालें नाकाम करेंगे गुलशन में
हिंदी में ख़ूबसूरत ग़ज़लें कही जा रही हैं। हाल ही में डॉ. हरेराम समीप के संपादन में ‘समकालीन महिला ग़ज़लकार’ एक श्रेष्ठ पुस्तक प्रकाशित हुई है जिसमें भारत की चयनित 22 महिला ग़ज़लकारों की हिंदी ग़ज़लों में मेरी ग़ज़लें भी शामिल हैं। हिंदी ग़ज़ल उर्दू ग़ज़ल के नज़दीक है जिसमें समसामयिक समस्याएं हिंदी, उर्दू और अंग्रेज़ी के भी शब्द, जो हमारे दैनिक जीवन का अभिन्न अंग बन गए हैं, प्रयुक्त हो रहे हैं। एक ताज़ा ग़ज़ल से उदाहरणार्थ :
चलो इस दिल को फिर बच्चा बना कर देखते हैं
खिलौनों से ही अपना दिल लगा कर
देखते हैं
दुष्यंत की ग़ज़लें हिंदी ग़ज़लों का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं। ग़ज़ल का बहृ (छंद) में होना अभिव्यक्ति का शिष्टाचार ही नहीं, अनिवार्यता है। शेर निश्चित बहृ में सही उतरना चाहिए, यही श्रेष्ठ ग़ज़ल की कसौटी है। महान शाइरों की एक लंबी परंपरा है, लेकिन शाइर की इन्फिरादियत (वैयक्तिक अंदाज़), चिंतन, भाव की नवीनता, मौलिकता शाइरी में तासीर उत्पन्न करती है। कविता और ग़ज़ल काव्य की ही विधाएं हैं, लेकिन दोनों का अपना अलग शैली, अंदाज़ और रस है। एक विस्तृत खेत में बनीं क्यारियों में उपजी अलग-अलग फ़सलों या मुख्तलिफ़ फूलों के मूल्यांकन और फिर उसे समग्रता में देखने के कार्य की ही तरह है। विरोध क़तई नहीं है, बहृ और छंद दोनों में आवश्यक हैं, चिंतन, भावना, उपमाएं, अलंकार, प्रतीक, बिंब दोनों में रहती हैं। अंदाज़े बयां मुख्तलिफ़ है। भारतेंदु, कबीर जी, मैथिली शरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद और अनेक हिंदी कवियों ने ग़ज़लें कही हैं। ग़ज़ल की परंपरा और फार्म अखंड-अटूट नहीं। वक्त के साथ बदला है :
जाने रख दी कहां ख़ुशी हम ने
ढूंढते ढूंढते सदी गुज़री
जि़दगी! क्या तेरा भरोसा है
‘नाज़ली’ थी अभी, अभी गुज़री
साहित्य समाज का आइना था भी और हमेशा रहेगा।
हर्फ़ हर्फ़ एक आइना है ग़ज़ल
जज्बा ए दिल का तर्जमा है ग़ज़ल
दुनिया का ऐसा कोई विषय या सवाल नहीं है, जो ग़ज़ल के माध्यम से उठाया न जा सके। शाइर दार्शनिक भी होता है और समाज की रहनुमाई भी करता है। उर्दू शाइरी की तरफ़ रुज्हान बचपन से था, अपनी ग़ज़लों को देवनागरी में लिपिबद्ध करती थी और गाती भी थी। एक बार जुनून सवार हुआ कि क्यों न सभी ग़ज़लों को उर्दू रस्मुलख़त में लिखा जाए। शौक़ जुनूं की हदें पार कर गया और मेरे पिता जी के जिगरी दोस्त डॉ. शबाब ललित साहिब, जो ‘जदीद फिक्रो फन’ रिसाले के एडीटर थे, उन्हें अपनी नज़्में ग़ज़लें पोस्ट कर देती थी जो निरंतर छपती रहीं। उन्होंने ही मेरी रहनुमाई की। इस तरह मेरे दादाजी, पिताजी की प्रेरणा, घर के साहित्यिक माहौल और डॉ. शबाब ललित साहिब की हौसला अफ्ज़ाई और इस्लाह के सबब उर्दू अदब की ख़िदमात, शौक़ो ज़ौक़ परवान चढ़े और सबसे ऊपर है ईश कृपा, जिन के इंगित के बिना कुछ भी संभव नहीं :है ख़ुदा रोज़ी रसां जो मांगना है, उस से मांग हो न उसका इज़्न तो मिलता यहां कुछ भी नहीं
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