18वीं शताब्दी में नेपाल के गोरखा बड़ी शक्ति के बने

By: Jun 6th, 2018 12:05 am

18वीं शताब्दी के अंत में नेपाल के गोरखा एक बड़ी शक्ति के रूप में उभरे। उनका मुख्यालय गढ़वाल में था। राजा महान चंद को कांगड़ा तथा हिंदूर का मुकाबला करना और उनसे अपना खोया हुआ क्षेत्र वापस लेना कठिन हो रहा था…

राजा महान चंद (1778 ई.): हिंदूर के राजा राम सिंह ने फिर बिलासपुर पर आक्रमण किया और बिलासपुर नगर को जला डाला। साथ में फतहपुर, बहादुर गढ़, रत्नपुर किलों पर भी अधिकार कर लिया। राजा महान चंद ने भागकर किला कोट-कहलूर में शरण ली।राजा महान चंद लैंगिक इच्छाओं में अधिक संलिप्त रहता था तथा उसके सहयोगी ओछी प्रवृत्ति के थे, जिसके कारण यह हार हुई। 18वीं शताब्दी के अंत में नेपाल के गोरखा एक बड़ी शक्ति के रूप में उभरे। उनका मुख्यालय गढ़वाल में था। राजा महान चंद को कांगड़ा तथा हिंदूर का मुकाबला करना और उनसे अपना खोया हुआ क्षेत्र वापस लेना कठिन हो रहा था। सिरमौर की अंदरूनी स्थिति से निपटने के लिए वहां के राजा कर्म प्रकाश ने गढ़वाल से गोरखों के मुखिया काजी रणजोर थापा से सैनिक सहायता मांगी। उसने तुरंत आकर सन् 1803 में सिरमौर पर अधिकार कर लिया और राजा कर्म प्रकाश को अपने अधीन कर लिया। उधर, अपने शत्रुओं, कांगड़ा के महाराज संसार चंद और हिंदूर के राम सिंह ने बदला लेने के उद्देश्य से महान चंद ने भी बिलासपुर के ही एक व्यक्ति शिवदेव राय द्वारा अमर सिंह थापा को कांगड़ा तथा हिंदूर के विरुद्ध आमंत्रित किया। गोरखा  सेना ने 1805 ई. में हिंदूर के राजा राम सिंह को परास्त किया और उसने पलासा किला में जाकर शरण ली।  इसके बाद कांगड़ा के राजा संसार चंद के साथ महलमोरियां नामक स्थान प्रसिद्ध है। यह स्थान जिला हमीरपुर की भोरंज तहसील में खरवाड़ के समीप है, पर मई 1806 ई. में युद्ध हुआ। संसार चंद की हार हुई और उसने कांगड़ा किला में जाकर शरण ली। महलमोरी कहलूर को वापस मिल गया। बारह ठकुराइयों में से केवल भज्जी, धामी और कोटी महान चंद को दिए गए और शेष गोरखों ने अपने पास रखे। शिवदत्त राय को उन्होंने बिलासपुर में अपना एजेंट नियुक्त किया। कहलूर का रामू कोली नाम से हथावत में एक कोतवाल था। उसने 1808 ई. में आनंदपुर के सोढियों के साथ कुछ झगड़ा कर लिया। उन लोगों ने महाराजा रणजीत सिंह से सहायता मांगी। महाराजा ने मोहकम (मोखम) चंद को सोढियों की सहायता के लिए भेजा। इसका फल यह हुआ कि हथावत, जहानवाड़ी व धारकोट का क्षेत्र सिखों के हाथ में आ गए। बाद में महाराजा रणजीत सिंह ने लड़ाई के खर्च के पांच हजार रुपए लेकर वह क्षेत्र लौटा देना चाहा। लेकिन राजा के मंत्रियों ने रुपया न देने दिया, जिससे वह भाग सदा के लिए बिलासपुर के हाथ से निकल गया। सन् 1814 ई. में गोरखों तथा अंग्रेजों के बीच युद्ध आरंभ हुआ। राजा राम सिंह हिंदूर, बारह और अठारह ठकुराइयों के शासकों ने भी गोरखों के विरुद्ध अंग्रेजों से मदद मांगी।  अंग्रेजी सेना डेविड ऑक्टरलोनी की कमान में नालागढ़ होती हुई मलौण पहुंची। वहां पर एक ओर से गोरखा और महान चंद की सेनाएं थीं। युद्ध में गोरखों और महान चंद की सेनाओं की पराजय हुई।

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