अविश्वास का दंगल

By: Jul 20th, 2018 12:05 am

यह दिखावे का दंगल होगा। यह 2019 के चुनावों के लिए माहौल बनाने की लड़ाई है। न देश विपक्ष पर विश्वास करता है और न ही प्रधानमंत्री मोदी तथा उनकी सरकार के प्रति सार्वजनिक अविश्वास की भावना है। पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी कुछ भी दावे करती रहें, लेकिन विपक्षी खेमे में तृणमूल और सपा जैसी पार्टियों का मानना है कि अविश्वास प्रस्ताव जीतने के लिए नंबर नहीं हैं। वे इस प्रस्ताव के जरिए प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार को बेनकाब करना चाहती हैं, ताकि आम आदमी को पता चल सके कि मोदी सरकार ने उसे कितना छला है। बेनकाब करने की दलील है, तो संसद सत्र किसलिए बुलाया जाता है? विपक्ष ने जिन मुद्दों को चिन्हित किया है, उन्हें संसद के भीतर उठाया जा सकता था। उस स्थिति में भी सांसदों के कथन संसद के रिकार्ड में दर्ज होते। अविश्वास प्रस्ताव के दौरान भी जो बयान दिए जाएंगे, जो कठोर आरोप चस्पां किए जाएंगे, वे भी हमेशा के लिए संसद के रिकार्ड का हिस्सा बन जाएंगे। जब मकसद एक ही है, तो संसद सत्र का वक्त बर्बाद क्यों किया जा रहा है? यह तब है, जब कुल मिलाकर 68 बिल लंबित हैं। उनमें 18 विधेयक तो नए हैं। जो वक्त बर्बाद किया जा रहा है, उसके दौरान सकारात्मक बहस से बिल पारित करके कानून बनाए जा सकते थे। ऐसे कुछ कानूनों का आग्रह सर्वोच्च न्यायालय ने भी किया है। बहरहाल आजाद भारत के इतिहास में 26 बार अविश्वास प्रस्ताव रखे जा चुके हैं। 1979 में मोरारजी देसाई सरकार और 1996, ’99 में अटलबिहारी वाजपेयी सरकारों को छोड़कर कभी भी सरकार का पतन नहीं हुआ। अविश्वास तो 1963 में नेहरू कैबिनेट के प्रति भी जताया गया था। जेबी कृपलानी के उस प्रस्ताव के समर्थन में मात्र 62 वोट पड़े और सरकार के पक्ष में 347 सांसदों ने वोट दिए। लालबहादुर शास्त्री जैसे ‘सज्जन प्रधानमंत्री’ के खिलाफ भी 3 बार अविश्वास प्रस्ताव पेश किए गए। सबसे अधिक 15 बार इंदिरा गांधी सरकार के खिलाफ अविश्वास व्यक्त किया गया। उस दौर में भाजपा का अस्तित्व नहीं था। कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति थी या सीपीएम सांसद ज्योतिर्मय बसु ने चार बार अविश्वास प्रस्ताव पेश किए। 1990 के दशक में कांग्रेस की ही पीवी नरसिंह राव सरकार के खिलाफ भी 3 बार अविश्वास प्रस्ताव रखे गए। गौरतलब यह है कि न तो इंदिरा गांधी सरकार पराजित हुई और न ही अल्पमत में होने के बावजूद नरसिंह राव सरकार का कुछ हुआ। इंदिरा गांधी सरकार की पराजय और पतन का कारण था-आपातकाल! अब मौजूदा दौर में प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार के प्रति अविश्वास तब जताया गया है, जब चुनावी माहौल बनने लगा है। संभावनाएं हैं कि प्रधानमंत्री मोदी समय-पूर्व दिसंबर में ही लोकसभा चुनाव कराने का निर्णय ले सकते हैं। भाजपा की तैयारियां तो 24 घंटे जारी हैं, लेकिन विपक्ष के अलग-अलग दल प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार को गरिया रहे हैं। महागठबंधन की बुनियादी अवधारणा भी तय नहीं हो सकी है, लेकिन यह अविश्वास प्रस्ताव मोदी और भाजपा की चुनावी राजनीति के बेहद माकूल है। स्पीकर ने तेलुगूदेशम पार्टी (टीडीपी) के सांसद का प्रस्ताव मंजूर किया है। बेशक कांग्रेस, एनसीपी, सीपीएम ने भी ऐसे ही प्रस्ताव दिए थे। संख्या के लिहाज से विपक्ष में कांग्रेस के 48 सांसद सर्वाधिक हैं। चूंकि टीडीपी का अविश्वास प्रस्ताव मंजूर किया गया है, तो तय है कि उसका फोकस विशेष राज्य के दर्जे पर रहेगा। आंध्रप्रदेश में यह मुद्दा टीडीपी की चुनावी मजबूरी भी है। राष्ट्रीय परिदृश्य पर यह मुद्दा कितना असरदार हो सकता है, यह राजनीतिक दल और जनता दोनों ही जानते हैं। यह 14वें वित्त आयोग का निर्णय है कि किसी भी राज्य को विशेष राज्य का दर्जा न दिया जाए। उससे आर्थिक बोझ बहुत बढ़ता है, लिहाजा आंध्र के अलावा बिहार को भी यह दर्जा नहीं दिया गया है। बिहार में भाजपा-एनडीए की ही सरकार है। टीडीपी के अलावा विपक्षी सांसद जो मुद्दे उठाएंगे, वे अब रटे-रटाए हो चुके हैं। प्रधानमंत्री मोदी बहस के अंत में विपक्ष के सभी सवालों के जवाब देंगे और अपने स्पष्टीकरण भी देंगे। प्रधानमंत्री हररोज नहीं बोलते हैं। यदि लोकसभा के मंच से प्रधानमंत्री अपना पक्ष रखेंगे और वही अखबारों / टीवी चैनलों की सुर्खियों में छाया रहेगा, तो अंततः राजनीतिक फायदा किसे होगा? इस मुद्दे पर कांग्रेस में मतभेद उभर कर आए हैं, क्योंकि विपक्ष के सभी नाजुक मुद्दों का जवाब प्रधानमंत्री दे देंगे, तो संसद सत्र के शेष दिनों का हासिल क्या होगा? सत्ता पक्ष के मद्देनजर संसद सत्र की सार्थकता प्रधानमंत्री मोदी के जवाब के साथ ही साबित हो जाएगी। भीड़ की हिंसा, सांप्रदायिक हिंसा, दलित-पिछड़ों का उत्पीड़न, महंगाई, बेरोजगारी, किसान, जम्मू-कश्मीर, हिंदू तालिबान आदि मुद्दों को विपक्ष कितनी बार उठाएगा? लिहाजा यह अविश्वास संसद के समय की बर्बादी साबित होने जा रहा है। कामयाबी तब मानी जाती, जब विपक्ष के तमाम दल लामबंद होते और एनडीए में भी सेंध लगाकर कुछ तोड़-फोड़ की जाती।


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