आत्मा के रूप में

By: Jul 14th, 2018 12:05 am

स्वामी विवेकानंद

गतांक से आगे…

किसी व्यक्ति ने कभी भी किसी वस्तु से प्यार आत्मा को छोड़ अन्य किसी वस्तु के कारण नहीं किया है। यहां तक कि इतनी निदिंत स्वार्थी वृत्ति भी उसी प्यार की अभिव्यक्ति है। इस खेल से जरा हटकर खड़े रहो, उसमें भाग न लो, पर इस अद्भुत दृश्यावली को, इस महान जीवन नाटक को जो दृश्य पर दृश्य खेला जा रहा है, देखो और इस अद्भुत समन्वित स्वर लहरी के सुनो सब कुछ उसी प्रेम का प्रकाश है। स्वार्थी वृत्ति से अभी आत्मा बढ़ती ही जाएगी और दोगुनी-चौगुनी बढ़ेगी। एक आत्मा, एक व्यक्ति विवाह कर लेने से दो हो जाते हैं। बच्चे होने पर अनेक और इस तरह वृद्धि करते-करते अंततः वह सारे संसार को समस्त विश्व ब्रह्मांड को अपनी आत्मा के रूप में अनुभव कर लेती है। वह पूर्ण विकसित होकर उस प्रेम के साथ एक रूप हो जाती है जो विश्व व्यापी है, अंतत है, वह प्रेम जो स्वयं भगवन है। इस तरह हम परा भक्ति पर आते हैं, जहां प्रतीक तथा रूपाकार विलीन हो जाते हैं, जो इस परा भक्ति को पहुंच जाता है, वह किसी संप्रदाय विशेष का होकर नहीं रह सकता, क्योंकि सब संप्रदाय उसमें ही विद्यमान हैं। वह किस पंथ का हो सकता है? क्योंकि सब मंदिर और गिरजाघर तो उसमें ही विद्यमान हैं। ऐसा कौन सा गिरजाघार है, जो उसके लिए काफी हो सके? ऐसा मनुष्य स्वयं को किन्हीं मर्यादित कल्पनाओं द्वारा बांध नहीं सकता। जिस असीम प्रेम से वह एक रूप हो गया है, उसकी सीमा कहां हो सकती है? हम देखते हैं कि जिन धर्मों ने प्रेम के इस आदर्श को अपनाया है, उन्होंने उसे अभिव्यक्त करने का भी पूरा प्रयत्न किया है। यद्यपि हम समझ सकते हैं कि यह प्रेम क्या चीज है और यद्यपि इस दुनिया में सब प्रकार का प्रेम तथा आकर्षण उस अनंत प्रेम की ही विविध अभिव्यक्तियां हैं, जिसका वर्णन करने का प्रयास विभिन्न संप्रदायों के साधु-संतों ने किया है, तो भी हम यही देखते हैं कि उन्होंने भाषा की सारी शक्तियों का उपयोग किया है और प्रेम की मांसलतम अभिव्यंजनाओं को दिव्य रूप दे दिया है। एक यहूदी राजर्षि ने गाया है तथा भारतवर्ष के ऋषिगण भी गाते हैं, ‘ओ प्रियतम, अपने अधरों का एक चुंबन हमें दे, तेरे चुंबन से तेरे लिए हमारी पिपासा बढ़ती ही जाती है, सारे दुःख दूर हो जाते हैं। वर्तमान, भूत, भविष्य सब भूल जाता है और अकेले तुझमें ही हम मग्न हो जाते हैं।’ जब प्रेमी की समस्त वासनाएं नष्ट हो जाती हैं, तो उसका मतवालापन ऐसा ही होता है। वह तो कहता है, ‘कौन मुक्ति की परवाह करता है? किसे छुटकारा पाने की चिंता है? कौन पूर्ण बनना चाहता है? ‘न मैं धन चाहता हूं, न स्वास्थ्य। न मैं सौंदर्य चाहता हूं, न बुद्धि। दुनिया में जो दुःख विद्यमान हैं, उनमें मुझे बारंबार जन्म लेने दें,‘मैं कभी शिकायत न करूंगा। बस, मुझे तू अपने से प्यार करने दे,। यही है प्रेम का उन्माद, जो इन गीतों में प्रकट हो रहा है। सबसे उच्च, सर्वाधिक अभिव्यंजक तथा गहरा एवं आकर्षक मानवीय प्रेम स्त्री और पुरुष के मध्य होता है। इसीलिए प्रगाढ़ भक्ति के प्रकट करने में ऐसी भाषा का उपयोग किया गया है। मानवी प्रेम का यह उन्माद साधुओं के प्रेमोन्माद की एक अस्पष्ट प्रतिध्वनि मात्र है।


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