उलझनों से मुक्ति का मार्ग

By: Jul 28th, 2018 12:05 am

बाबा हरदेव

अहंकारी मनुष्य किसी से सलाह लेते समय डरता है घबराता है। यह अकसर अपनी उलझन स्वयं ही सुलझा लेना चाहता है। हालांकि ज्यों-ज्यों मनुष्य इन उलझनों को स्वयं सुलझाने की कोशिश करता है यह और उलझता जाता है। यहां तक कि यह भी स्वीकार करने में कि यह उलझा हुआ है। इसके अहंकार को चोट लगती है, क्योंकि इसका अपना ही अहंकार उलझाने का सूत्र है और इसी वजह से यह पूर्ण सद्गुरु के पास इन उलझनों से मुक्त होने के लिए नहीं जाना चाहता।

तैनू हौमें रोग है बंदे तेरा कुझ कसूर नहीं।

तूईयों रब तों बेमुख होयैं रब ते तैथों दूर नहीं।

जे तूं मन दी हुज्जत छड़ के साधु शरणी आवेंगा।

कहे अवतार इक छिन दे अंदर जीवन मुक्ति पावेंगा।।

कहते हैं एक कुत्ता सर्दी की सुबह धूप में बैठे-बैठे अपनी पूंछ को पकड़ने की कोशिश कर रहा था।

यह बार-बार झपट्टी मारता था, लेकिन अपनी बगल में पड़ी हुई पूंछ को पकड़ नहीं पा रहा था, क्योंकि उसकी पूंछ झपट्टी में ही झपट जाती थी। फिर यह कुत्ता थोड़ी देर विश्राम करने के बाद जोश में आकर फिर झपट्टी मारता, मगर पूंछ थी कि उसकी पकड़ में नहीं आती थी। कुत्ता पूंछ को पकड़ने की धुन में इस तरह से करीब-करीब पागल हो गया था। ऐसी ही धुन अहंकारी मनुष्य को पकड़ लेती है। यह चलता रहता है खोज करता रहता है भागता चला जाता है कि इसे प्रभु प्राप्ति हो जाए। मानो मनुष्य हर प्रकार के उपाय करता है, मगर इसकी यह ‘उलझन’ हल नहीं हो पाती, क्योंकि इसकी हर चेष्टा रूपी छलांग के साथ इसकी अहंकार रूपी पूंछ जो इससे जुड़ी हुई है, जो इसकी उलझन का ही हिस्सा है, यह भी छलांग ले लेती है यानी इसके समाधान में भी इसकी समस्या खड़ी ही रहती है।

चुनांचे मनुष्य के जीवन की जैसी दशा है, जैसी विकृति, जैसी रुग्ण अराजकता है जिसके कारण पैदा हुई इस बीमारी को ही मनुष्य औषधि बना रहा है, जबकि इस प्रकार की औषधि मनुष्य को और मार डालती है। बीमारी से शायद मनुष्य बच भी जाता है, लेकिन इस किस्म की गलत औषधि से इसके बच निकलने का कोई उपाय नहीं है, क्योंकि मनुष्य सद्गुरु के पास भी जाता है, तो भी यह अहंकार से ही पूछ कर जाता है यानी यह अपने अहंकार की स्वीकृति से ही सद्गुरु निर्मित करता है, क्योंकि मनुष्य की वासना, कामना और तृष्णा (जो अहंकार की जनक है) रूपी गाड़ी आगे बढ़ती रहती है, मानो मनुष्य ने बीमारी को ही औषधि समझ रखा है इसलिए मनुष्य की उलझन का कोई अंत दिखाई नहीं पड़ता।

यह कहना ही पड़ेगा कि मनुष्य पूरे अस्तित्व से टूट गया है, यही इसकी उलझन है। ऐसा प्रतीत होता है कि मनुष्य की जड़ें अस्तित्व रूपी जमीन से उखड़ गई हैं इसलिए इसे प्यास लगती है, क्योंकि जड़े पानी पानी नहीं पी रही हैं इसलिए मनुष्य गहन क्षुधा से पीडि़त है। बेशक इसके पास सब कुछ है तब भी इसे कुछ खाली-खाली लगता है। मानो वर्षा भी लगातार हो रही है, लेकिन जड़ें जमीन में न होने के कारण पानी पी नहीं रही हैं। सद्गुरु कृपा से जब मनुष्य अस्तित्व से जुड़ जाता है, तो फिर इसे सारा अस्तित्व दिव्य और परमात्मा दिखाई देने लगता है।

महफले हस्ती को देखा जब निगाहे गौर से।

जर्रा-जर्रा एक अकसे जलवा-ए-जनाना था।।

अब यह बात बड़ी महत्त्वपूर्ण है कि पहले अपने भीतर यह खोजें कि किस के कारण हम अस्तित्व से टूटकर उलझन का शिकार बने हुए हैं।


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