ओउम के स्मरण से मिलती है अमरता

By: Jul 28th, 2018 12:05 am

ओउम स्मरणात कीर्तनाद्वापि श्रवणांच जपादपि। ब्रह्म तत्प्रात्पयेते नित्यमोमित्वयेतत्परायणः।। ‘ओउम के स्मरण, कीर्तन, श्रवण और जप से इस परब्रह्म को मनुष्य प्राप्त हो जाता है, अतः ओउम में परायण रहें…

-गतांक से आगे…

‘पुरुष ओउम के स्मरण मात्र से ही ब्रह्मज्ञान की परकांठा, मोक्षता तथा अमरता की सिद्धि को प्राप्त कर लेता है।’

ओंकारों चाथ शब्दश्च द्वावतौ ब्राह्मणः पुरा।

कंठं भित्वा विनिर्यातो तस्मान्मांगलिकावु भौः।।

‘ओंकार तथा अथ-ये दोनों शब्द प्राचीन काल में ब्रह्माजी के कंठ से स्वतः निकले थे, इसलिए वे दोनों मंगलकारक कहे जाते हैं।’

प्रणवे निनिस्य व्याहृतीषु च सप्तसु।

त्रिपदायां च गायत्रां न भयं विद्यते क्वचिंत।।

‘ओंकार में सप्त वयाहृतियों में तथा गायत्री के त्रिपद युक्त पुरुष को भय कहीं पर भी नहीं होता है।’

अमात्रोअनंतमात्रश्च द्वैतस्यपशमः शिवः।

ओंकारों विदितो येन से मुनिर्नेतरों जनः।।

‘ओंकार विषय रहित तथा विषय सहित, द्वैत भाव का नाशक कल्याणकारी है। पुरुष उस ओंकार को जानकर मुनि हो जाता है।’

एतदालंबनं श्रेष्ठमेतदालंबनं परम।

एतदालंबनं ज्ञात्वा ब्रह्मलोके महीयते।।

‘ओउम का अवलंबन श्रेष्ठ है, इसका अवलंबन ही परम है। इसके अवलंबन से मनुष्य ब्रह्म लोक में महानता प्राप्त करता है।’

युंजीत प्रणवे चेत प्रणवो ब्रह्म निर्भयम।

प्रणवे नित्य युक्तस्य न भय विद्यतेक्वचित।।

‘ओउम के निरंतर जप से मौनी बुद्धि के कारण इधर-उधर भटकते हुए मन पर आधिपत्य प्राप्त कर लेता है।’

ओउम इत्येकाक्षर ध्यानात विषुर्विषणुत्वमाप्तवान।

ब्रह्मा ब्रह्मात्वमापन्नः शिवतामभवत शिवः।।

‘ओउम-इस एकाक्षर मंत्र के ध्यान से विष्णु विष्णुत्व को ब्रह्मा ब्रह्मत्व को तथा शिव शिवत्व को प्राप्त हुए।’

ओउम स्मर।

‘वेद भगवान का उपदेश है कि ओउम का स्मरण करो।’

ओउम स्मरणात कीर्तनाद्वापि श्रवणांच जपादपि।

ब्रह्म तत्प्रात्पयेते नित्यमोमित्वयेतत्परायणः।।

‘ओउम के स्मरण, कीर्तन, श्रवण और जप से इस परब्रह्म को मनुष्य प्राप्त हो जाता है, अतः ओउम में परायण रहें।

तैलधारामिवाधिन्नं दीर्घघंटा निनादवत।

उपास्यं प्रणवस्याग्रं यस्तं वेद से वेदतित।।

‘निरंतर गिरती तेल की धार के समान या घड़ी के शब्द के समान यथार्थता से सदा ओउम विचार धारा में जो निमग्न रहता है, वही वेदवेत्ता है।’ प्रणव की श्रेष्ठता को ध्यान में रखते हुए आचार्यों ने समस्त श्रेष्ठ कर्मों में ओंकार को प्राथमिकता देने का विचार किया है। यह मंत्रों का सेतु है, इस पुल पर चढ़कर मंत्र मार्ग को पार किया जा सकता है। बिना आधार के, नाव पुल आदि अवलंबन के किसी बड़े जलाशय को पार करना जिस प्रकार संभव नहीं, उसी प्रकार मंत्रों की सफलता के लिए बिना प्रणव की सफलता मिलना दुष्कर है। इसलिए आम तौर से मंत्रों में और विशेष रूप से गायत्री मंत्र में सर्व प्रणव का उच्चारण आवश्यक बताया गय है।


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