कई भाषाओं में लेखन कर चुके हैं डा. सारस्वत

By: Jul 1st, 2018 12:06 am

डा. ओम प्रकाश सारस्वत किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। उन्होंने हिंदी व पहाड़ी के साथ-साथ कई भाषाओं में लिखा है। उनकी अब तक दो दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। सारस्वत जी का पूरा जीवन संघर्ष में बीता। वह आज भी साहित्य सेवा में तल्लीन हैं। डा. सारस्वत हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय के अंतरराष्ट्रीय दूरवर्ती शिक्षा एवं मुक्त अध्ययन केंद्र में 33 वर्षों तक हिंदी के प्राध्यापक व वहीं पर सेवाकाल के अंतिम दस वर्षों तक केंद्र निदेशक रहे। 30 जून 2005 को वह वहां से सेवानिवृत्त हो गए। उनका जन्म 15 मई, 1945 को हुआ। वह एमए हिंदी, संस्कृत, साहित्यरत्न, शास्त्री व पीएचडी तक पढ़े-लिखे हैं। उन्होंने विशेष रूप से अपने समय में प्रज्ञा, विशारद एवं शास्त्री कक्षाओं में पंजाब विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान व स्कॉलरशिप प्राप्त की। भारत सरकार के राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान दिल्ली द्वारा उन्हें दो वर्षों की शास्त्र चूड़ामणि योजना के तहत विजिटिंग प्रोफैसरशिप दी गई। इसके अलावा उन्हें अंतरराष्ट्रीय फ्रैंडशिप सोसायटी दिल्ली द्वारा शिक्षारत्न उपाधि एवं पुरस्कार 29 मई 2012 को दिया गया।  इसके अतिरिक्त वह तीन अन्य प्राइवेट विश्वविद्यालयों में भी शिक्षा निदेशक रहे। सृजन की बात करें तो उन्होंने अब तक हिंदी कविता, नाटक, ललित निबंध, शोध, संस्कृति और समीक्षा की दो दर्जन के करीब रचनाएं व संस्कृत में भी कविता और आलोचना की पांच पुस्तकें लिखी हैं। वह हिमाचल प्रदेश की भाषा, कला संस्कृति अकादमी के तीन बार सदस्य रह चुके हैं। भारत सरकार के मानव संसाधन मंत्रालय के अंतर्गत डिस्टेंस एजुकेशन काउंसिल के सदस्य भी वह रहे। इसके अलावा वह हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय की कार्यकारिणी व शिक्षा परिषद के सदस्य भी रहे। साथ ही वह प्रदेश के अनेक गैर सरकारी महाविद्यालयों, विद्यालयों की प्रबंध समितियों के सम्मानित सदस्य भी रहे। वह अब तक 25 विद्यार्थियों का विभिन्न विषयों में पीएचडी के लिए सफल शोध-निर्देशन कर चुके हैं। एमफिल के लिए भी उन्होंने 50 से अधिक छात्रों का शोध-निर्देशन किया। शोध-निर्देशन में अखिल भारतीय सम्मान सन् 2008 एवं 2009 में, किताबघर प्रकाशन द्वारा 15वें अखिल भारतीय आर्य स्मृति साहित्य सम्मान हेतु श्री चंद्रधर शर्मा गुलेरी के साहित्य का सांस्कृतिक अनुशीलन शोध का 25 विश्वविद्यालयों के शोध प्रबंधों में, सर्वोत्तम शोध प्रबंध के रूप में चयन व सम्मान भी इनके नाम है। भाषा ज्ञान की बात करें तो हिंदी के अतिरिक्त संस्कृत, अंग्रेजी, पंजाबी, डोगरी, मराठी एवं पहाड़ी में भी उन्होंने लेखन व पठन किया है। वह भारत भर में सौ से अधिक सेमीनार व संगोष्ठियों में हिस्सेदारी कर चुके हैं। पत्रप्रस्तुति भी उन्होंने की है तथा कई सत्रों की अध्यक्षता भी वह कर चुके हैं। आजकल वह  जी-6, नॉल्सवुड कालोनी, छोटा शिमला (पिन-171002) में रह रहे हैं। इनके निबंधों में प्रकृति अपने अनेक रूपों में बहुपात्री बन कर उभरी है। सहस्राक्ष, सहस्रपाद एवं सहस्रभुज होकर। अनेक निबंध हास्य-व्यंग्य के पुट के साथ समय की सच्चाई को सामने लाते हैं। निबंधों में कलात्मकता, स्वच्छंदता एवं वैचारिकता के साथ भावों की एकान्विती भी है।

कोई भी विधा दूसरे को रिप्लेस नहीं करती

साहित्य में शब्द की संभावना शाश्वत है और इसी संवेग में बहते कई लेखक मनीषी हो जाते हैं, तो कुछ अलंकृत होकर मानव चित्रण  का बोध कराते हैं। लेखक महज रचना नहीं हो सकता और न ही यथार्थ के पहियों पर दौड़ते जीवन का मुसाफिर, बल्कि युगों-युगों की शब्दाबली में तैरती सृजन की नाव पर अगर कोई विचारधारा अग्रसर है, तो उसका नाविक बनने का अवसर ही साहित्यिक जीवन की परिभाषा है, जो बनते-संवरते, टूटते-बिखरते और एकत्रित होते ज्वारभाटों के बीच सृजन की पहचान का मार्ग प्रशस्त करता है। यह शृंखला किसी ज्ञान या साहित्य की शर्तों से हटकर, केवल सृजन की अनवरत धाराओं में बहते लेखक समुदाय को छूने भर की कोशिश है। इस क्रम में जब हमने डा. ओमप्रकाश सारस्वत के ललित निबंध संग्रह ‘महातरु और मेघ मन’ की पड़ताल की तो कई पहलू सामने आए…

दिव्य हिमाचल के साथ

दिहि : जिंदगी के संबोधन में खुद को पाना, ठहराव तोड़ने के लिए साहित्यिक मिजाज पाना या किसी बहाने लेखन के मुहाने तक पहुंच जाना इत्तफाक हो सकता है या जीवन चरित्र में साहित्य हर पल मौजूद रहता है, बस खबर होने का सबब नहीं मिलता?

डा. सारस्वत : इत्तिफाकन, लेखक/साहित्यकार होना और स्वभावतः, लेखन के प्रति रुझान होना, दो भिन्न धर्मिताएं हैं। यदि लेखक के व्यक्तित्व में साहित्य के संस्कार हैं तो वे निश्चय से और अनिवार्यतः आविष्कृत होंगे। लेखन के लिए बहाना नहीं, अभिव्यक्ति की आकुलता और प्रतिबद्धता चाहिए। यदि आप अपने अनुभवों एवं अनुभूति में ईमानदार हैं तो लेखन अपनी पहचान बनाने में, देर-सवेर सक्षम होगा। खबर होने का सबब तो आता-जाता रहता है। प्रत्येक पहचान के लिए एक समय निर्धारित होता है।

दिहि : आपने जो पाया उसे परिभाषित कर पाए या जो था ही नहीं, यूं ही कबूल कर लिया। साहित्य की फितरत को आत्मसात कर पाए या सृजन के कौशल में, खुद को मापना-लांघना ही अद्भुत कला है?

डा. सारस्वत : जीवन भर के अनुभवों और सोच को परिभाषित कर पाना तो किसी लोकोत्तर व्यक्तित्व के बूते की ही बात होती होगी। मेरे जैसों की क्षमताएं तो व्यक्तित्व के अनुरूप ही होंगी। किन्हीं विराट व्यक्तित्व के मालिक-सर्जकों की अर्हताएं ही ऐसे विस्मय जनती हैं। किसी भी चिंतनशील कलमकार में ‘कुछ होने जैसा तो’ अवश्य होता है, भले ही शुरू में उसकी सूरत साफ न हो, किंतु, जब लेखकीय दृष्टि साफ होती चलती है तो वह ‘कुछ ही’ खास बन जाता है। मैंने अपने लेखन में, पाने-खोने जैसा, कुछ सोचा नहीं कभी। लिलेखिषा जब-जब प्रबल हुई, तब-तब कुछ लिखा दिया। मैं साहित्य की फितरत को आत्मसात कर पाया कि नहीं, यह दूसरे जानें। सृजन का खास कौशल, कुछ विशेष व्यक्तित्वों में होता है। अवश्य, मैं ऐसी चिंताओं में नहीं उलझता।

दिहि : आपके जीवन में ऐसा क्या बचा जिसे बार-बार पढ़ कर भी, अर्थ मुकम्मल नहीं हुए या किसी विराम को चीरने के लिए शब्द कम पड़ गए हों। कुछ साहित्यिक कृतियां (अपनी या पराई) जिनके कारण आपकी संवेदना समृद्ध हुई, तार दिल से जुड़ते गए या अमृत जैसा कुछ आपको तृप्त कर पाया?

डा. सारस्वत : उम्र भर की अनुभूतियों/अनुभवों का संसार, बार-बार कह लिख कर भी पूरा नहीं होता। सूक्ष्मताओं और परिव्याप्तियों की दुनिया गहन एवं विशाल है और व्यक्ति की क्षमताएं सीमित। हां कुछ विचारशील साहित्यकार ही अपने गहन गंभीर आशयों को विविध कथन भंगिमाओं में अभिव्यंजित करते हैं। आपकी यह बात सही है कि अपने अध्ययन-लेखन के क्रम में कुछ रचनाएं विशेष होती हैं जो आपके मन-मस्तिष्क पर प्रभाव छोड़ती ही हैं, उनकी अभिव्यक्ति का प्रकार और नूतन अर्थसंसार आपको लुभा जाते हैं। फिर एक प्रातिभ सर्जक की सृष्टि, नवोन्मेषिनी होती है। नवता और रमणीयता प्रत्येक संवेदनशील चित्त को आंदोलित करती ही है। मुझे शतशः वैदिक मंत्रद्रष्टाओं, औपनिषदिक, चिंतकों, रामायण, महाभारत एवं भगवद् गीता के महदाशयों/ अभिप्रायों ने आश्चर्य कर रूप से विचलित किया है। हिंदी साहित्य के नाथों-सिद्धों, संतों-भक्तों की रचनाओं के अतिरिक्त, छायावादी चेतना, प्रगतिशील संदृष्टि तथा आधुनिक विचार प्रस्थानों ने भी मेरे विचार तत्त्व को सम्पुष्ट किया है। मेरी सोच में एक विश्लेषणात्मक बुद्धि की वृद्धि हुई है। मैं मूलतः कवि हूं किंतु इसी सब के प्रभावान्तर्गत भावुकता से उबर कर एक निबंध लेखक, एक नाटककार और एक अनुसंधानकर्त्ता जैसा भी कुछ हो सका। मैं लौकिक संस्कृत साहित्य के परमप्रतापी वाणी विलासकों, विशेषकर कालिदास, बाण भट्ट, भास, मारवि, माघ, अश्वघोषादि अनेकानेक सरस्वती समुपासकों के प्रति सर्व तो भावेन विनत हूं। इनकी रचनाएं चिंतन और प्रतीति के अगम्य संसार, सम्मुख खड़ा कर देती हैं। साहित्य की अमरल ऐसे ही ‘कविर्मनीषी परिभूःस्वयं भूः’ महाकाव्यों तथा नियतिकृत नियमरहित क्रांतिकारी कृतिकारों के कारण होती है। मेरे जैसे ‘वदतोदनुवाद करने वालों का बस इतना ही योग है कि हम पूर्व प्रतिपादित, महनीय, मानवीय शाश्वत मूल्यों के प्रवक्ताओं की अंतिम पंक्ति के ‘आदियों’ में शायद कहीं गिने जाएं। अनेक प्रकार की भ्रांतियों, दम्भों, अहंकारों, अहंमन्यतियों एवं अनेक आधियों-व्याधियों से ग्रस्त, इस अल्पजीवी क्षयिष्णु काया में किसी भी तरह के ‘अमृत्व’ की प्राप्ति की बात एक ‘हास्य’ ही है।

दिहि : साहित्यिक आकांक्षा में, लेखन की संजीदगी और आपकी संवेदना के पैमाने पर अब तक कौन-कौन लेखक सफल हुए या जहां आप साहित्य के छात्र बन गए?

डा. सारस्वत : मैं ज्ञात-अज्ञात रूप से अपने से पूर्ववर्ती अनेक मनीषी रचनाकारों के विचारों से प्रभावित हुआ हूं। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, श्रीचंद्रधर शर्मा गुलेरी, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, जयशंकर प्रसाद, निराला, महादेवी, दिनकर, अज्ञेय, कुंवरनाथ राय, पं. भगवदंत, मैथिलीशरण गुप्त, देवकी नंदन खत्री जैसे परम प्रज्ञावान् तथा महान आशयों वाले साहित्य स्रष्टा मेरे हार्दिक सम्मान के पात्र हैं। इन महान प्रतिभाओं का लेखन गत-आगत और विद्यमान का सुंदर समन्वय है। एक जैनी विचार दृष्टि इनके यहां मिलती है। इन्होंने भारतीय सांस्कृतिक चेतना के कई भव्य-आयाम प्रस्तुत किए हैं। राष्ट्रीय गौरव को इनसे अधिमान मिला है।

दिहि : जहां साहित्य निःशब्द होकर प्रमाणित होने के द्वंद्व से गुजरता है?

डा. सारस्वत : वहां, शायद वह मूक होकर बोलता होगा। बहुभाषिता नहीं, अपितु मितभाषिता और स्वतः स्फुटता भी साहित्य की प्रामाणिकताएं हैं।

दिहि : क्या आपके साथ कहानी का कवितामय या कविता का निबंधमय होना स्वाभाविक प्रक्रिया रहा या पांत बदलती रचनाओं के भूखंड पर अब साहित्यिक यात्रा एक ही पल में, एक साथ कई सेतु तैयार कर चुकी है?

डा. सारस्वत : जहां कल्पना, भावुकता का साथ पाकर, हृदयावर्जक हो उठती है वहां निबंध भी कवितामय, गद्य भी ललित गद्य या गद्य कविता हो जाते हैं। मेरा साहित्यकार भी स्वभावतः और मूलतः कवि है। अतः इसका कविता के किसी भी अंदाज में प्रकट हो जाना स्वाभाविक है। लेखकीय यात्रा में, कहीं सघन-भीषण अरण्य तो कहीं मीठे जल के स्रोत, मधु के छत्ते, शीतल समीर तो कहीं घनी छाया के विश्रांतिदायक सुखद पल उपलब्ध हो जाते हैं। ऐसे ही रुचि वैचित्र्य के कारण रचनाओं में, शैलियों की नवता उभरती रहती है।  महाकवि, जयशंकर प्रसाद, मूलतः कवि थे। अतः अपनी रचनाओं में उनका ‘कवि’ अनायास ही प्रकट हो जाया करता था। उनकी गद्य और नाटकीय संवाद एवं उनके निबंध/कहानियां सब बीच-बीच में कवित्व की चाशनी से रसगर्भित सरस हैं।

दिहि : परिवेश से धारण मौलिकता या अध्ययन से ग्राह्य ज्ञान के साथ आपके सृजन को अधिक ऊर्जा कहां मिली?

डा. सारस्वत : परिवेशगत मौलिकता, अध्ययन से प्राप्त ज्ञान, दोनों ने ही मेरे सृजन को विश्वसनीयता दी है। परिवेश के अनुभवों ने जहां जमीनी हकीकत से रूबरू करवाया, अध्ययन ने वहां वर्णन और प्रस्तुति में औचित्य का संज्ञान दिया। परिवेश की पूर्ण अभिज्ञता के बिना, रचना सच से दूरी बना लेती है और अध्ययन का अभाव उसमें उचित-अनुचित एवं ग्राह्य-अग्राह्य का विवेक नहीं आने देता। उभयविध, समतुल्यता ही रचनाओं में रचाव का सही गणित बिठाती है।

दिहि : क्या कभी रचना ने आपको जीत लिया या जब कभी आपके विचारों का अपहरण हो गया या खुद दंग हो गए कि कलम कहां से निर्देशित हो गई़?

डा. सारस्वत : कभी-कभी होता है ऐसा भी। काफी अंतराल के पश्चात आप अपनी किसी विस्मृतप्राय रचना को पढ़ते  हैं तब उसमें व्यक्त विचारों से आप अचंभे में पड़ जाते हैं कि क्या यह मैंने ही लिखा है? अपने लेखन की उस विस्मत क्षमता पर आप हैरान होते हैं। व्यक्ति में तरह-तरह की ऊर्जा ही है जो न जाने कब क्या रच दे। महान साहित्यकारों की रचनाओं में ऐसे कई अजूबे भरे होते हैं।

दिहि : क्या जहां कहानी अधूरी है वहां कविता पूरी हो सकती है या निबंध की सहजता सारी विधाओं का समावेश बना सकती है?

डा. सारस्वत : हर विधा का अपना चरित्र होता है। कहानी, अपनी जगह है और कविता अपने स्थान पर। कोई भी विधा एक-दूसरे की ‘रिप्लेसमेंट’ नहीं होती। हां, कहानी में कविता किन्हीं विशेष स्थलों पर, कविता की सी भावुकता, भावक को स्पंदित कर सकती है किंतु कविता में कहानी की सी कथात्मकता नहीं होती। हां, किन्हीं लंबी कविताओं में एक कथातत्त्व रहता अवश्य है, किंतु वह कविता में वितन्वित होता है। इसलिए उस रचना को कविता ही कहा जाता है-कथात्मकता के रहते हुए भी ‘कहानी’ नहीं कहा जाता। निबंध की अपनी तासीर है। हां, यदि निबंधकार व्यापक-ज्ञान-विज्ञान संपन्न एवं रचना के प्रासंगिक अनुषंगों/अनुशासनों से परिचित है तो निबंध, अपनी रचनात्मक-कलात्मकता में मूदिशः अनुशंसित कृति के रूप में पठनीय हो जाता है। निबंध की सहजता-कठिनता उसके विषय के अनुरूप रहती है। कोई भी रचना अपना ‘ट्रीटमेंट’ स्वयं निर्धारित करती है। किसी एक रचना की शैली दूसरी रचना की शैली का पर्याय नहीं होती/नहीं हो सकती।

दिहि : साहित्यिक वातावरण के लिए क्या बस एक नजर चाहिए या दृष्टिकोण के पीछे चिराग के रोशन होने का भी कोई बहाना छुपा रहता है?

डा. सारस्वत : साहित्यिक वातावरण के लिए, एक दृष्टि और दृष्टि के पीछे एक अर्थपूर्ण अभिप्राय की आवश्यकता होती है। बिना अभिप्राय के शब्दों का व्यापार भाषा के अपव्यय जैसा ही है। चिराग दृष्टि के मंतव्यों को आलोकित करता है। उद्देश्य और प्रदेश की अर्थवत्ता ही रचना को सार्थकता देते हैं।

दिहि : मानव स्वभाव की सक्रियता में पलता साहित्य, ज्यादा मौलिक माना जा सकता है, या उम्र के हर पड़ाव में आपकी यात्रा ने लेखन की रुचि का संशोधन किया। फिलहाल लेखन की किस योजना या जमीनी संवेदना से रू-ब-रू हैं?

डा. सारस्वत : मानव ही क्यों, प्रत्येक जीव जात की प्रकृति से जुड़ा लेखन/साहित्य ज्यादा विश्वसनीयता और मौलिक होता है। साहित्य की श्रेष्ठता की कसौटी उसकी तमाम रचनात्मक अर्हताओं के साथ ही होती है। निरी कल्पना रचना को पुख्ता जमीन पर नहीं उतरने देती। मानवीय रचनात्मकता का कोई मूल्य नहीं। रुचि में संशोधन, साहित्य सृजन की अनिवार्य प्रक्रिया है। मानव-स्वभाव जड़ नहीं है, वह गतिशील है। स्वभाव ही, गतिशीलता ही, नव-नव मार्गों और नूतन-विषयों एवं रचना शैलियों का संधान करती है। स्वभाव की इसी विशिष्टता के कारण, संसार के साहित्य में, नई-नई विधाओं का आविष्कार हुआ है। इसमें उम्र का पड़ाव नहीं, सोच/चिंतन की सक्रियता महत्त्वपूर्ण है। आजकल एक बड़े फलक के एक उपन्यास और एक महाकाव्य पर कार्य कर रहा हूं।

दिहि : निबंध की ठोस बुनियाद पर अभिव्यक्ति, ज्ञान की इमारत की तरह क्यों हो जाती है। आपका अनुभव, जीवन के क्षणों का शृंगार सरीखा रहा या आप इसके जरिए यह सिद्ध कर पाए कि लंबी साहित्यिक विरासत में आपके जरिए भी तो यात्रा हुई?

डा. सारस्वत : चूंकि ज्ञान स्वयं एक ठोस निष्कर्ष है, अतः अभिव्यक्ति की बेला में उसका ‘पिलपिला’ होना काम्य नहीं। ज्ञान, भावुकता और कल्पना दोनों को नियंत्रित करता है और उन्हें एक सारवान आकार और पुख्ता आधार देता है। पिछले सात दशकों से ज्ञात-अनुभूत प्रतीतियों को कुछ शब्द दे सका, मेरी इतनी ही लब्धि है। साहित्य की प्रायः सभी विधाओं में लिखा है/लिख रहा हूं।

     -प्रतिमा चौहान


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